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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 1 - Part 1

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श्री मत्स्य अवतार कथा

संतोंका कहना है कि जब संसारके लोग विषयोंके मोहमें पड़कर भगवान्को भूल जाते हैं और उनकी स्वाभाविक विषमता के कारण पाप-तापसे झुलसने लगते हैं, तब उन्हें दुःखसे बचानेके लिये, अनन्त शान्ति देनेके लिये और उनका महान् अज्ञान मिटाकर अपने स्वरूपका बोध कराने एवं अपनेमें मिला लेनेके लिये स्वयं भगवान् आते हैं और अपने आचरणों, उपदेशों तथा अपने दर्शन, स्पर्श आदिसे जगत्के लोगोंको मुक्तहस्तसे कल्याणका दान करते हैं। यदि वे स्वयं आकर जीवोंकी रक्षा-दीक्षाकी व्यवस्था नहीं करते. जीवोंको अपनी बुद्धिके बलपर सत्य-असत्यका निर्णय करना होता और अपने निश्चयके बलपर चलकर उद्धार करना होता तो ये करोड़ों कल्पोंमें भी अपना उद्धार कर सकते या नहीं, इसमें संदेह है। परंतु भगवान् अपने इन नन्हे नन्हे शिशुओंको कभी ऐसी अवस्थामें नहीं छोड़ते, जब वे भटककर गड्ढे में गिर जायें। जब कभी ये अपने हाथमें कुछ जिम्मेदारीका काम लेना चाहते हैं और इसके लिये उनसे प्रार्थना करते हैं तब बहुत समझा बुझाकर सृष्टिका रहस्य स्पष्ट करके उन्हें अपने सामने कुछ काम दे देते हैं।

महर्षि कश्यपके पौत्र एवं सूर्यभगवान्के पुत्र महाराज वैवस्वत ऐसे ही पुरुष हो गये हैं। सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डप उनका शासन था। वे प्रजापर पुत्रवत् स्नेह करके धर्मपूर्वक राज्य करते थे। उन्हें किसी बातकी कमी नहीं थी और संसारमें जितने प्रकारके सुख-साधन हैं, सब उनके पास विद्यमान थे। राज्य करते-करते बहुत दिन हो गये. उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि अब प्रलयका समय निकट है। इस संसारका यही नियम है जो जन्मता है, उसे मरना ही पड़ता है। जिसकी सृष्टि हुई, उसका प्रलय अवश्य होगा। इसका उदाहरण तो संसारमें प्राय: प्रतिदिन ही देखनेको मिलता है।

संसारका अर्थ है सरकनेवाला जो प्रतिपल बदल रहा है अथवा जो पल बदलनेसे पहले हो लापता हो जाता है। हिके बड़े-बड़े देव ऋषि-महर्षि राजा-रंक, विद्वान् मूर्ख सबकी यही गति है। यों कहेंकि जितने पदार्थ हमारे अनुभवमें आते हैं, नहीं आते हैं. सब-के-सब मृत्यु एवं प्रलयकी ओर बड़े वेग बढ़ते जा रहे हैं। ऐसी स्थितिमें किसके साथ सरें, किससे हटे, किसको सदाके लिये अपने पास रखनेकी चेष्टा करें अथवा किसके साथ रहने की चेष्टा करें यही सोचकर बुद्धिमान् लोग जगत्के पदार्थोंसे अलग | रहकर अपने स्वरूपमें अथवा भगवान्‌के चरणोंमें स्थित रहते हैं। जगत्‌को सारी जिम्मेवारी भगवान्पर छोड़कर उनके भजनमें ही मस्त रहते हैं।

महाराज वैवस्वत मनु इन बातों से अपरिचित नहीं थे स्वयं उनके पिता सूर्यभगवान्ने उन्हें भगवान्‌ प्राप्त गुद्यतम ज्ञानकी शिक्षा दी थी, जिसका वर्णन गीताके चतुर्थ अध्यायमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने किया है। वे पूर्ण ज्ञानी थे, भगवानमें स्थित थे और देवी सम्पत्तियोंके मूर्तिमान् आदर्श थे। परंतु प्रलयकी कल्पना करके एक बार उनके मनमें भी क्षोभ हो ही गया। वे चाहते थे कि ये जीव तमोगुणकी प्रगाढ़ निद्रामें सोकर बहुत दिनोंके लिये अपनी उन्नतिसे वञ्चित न हो जायें। महात्माओंका यह सहज स्वभाव होता है कि अपनेको बड़ी से बड़ी आपत्तिमें डालकर दूसरोंकी छोटी-से छोटी आपत्ति भी दूर करें। उन्होंने सोचा ऐसी तपस्या करें, जिससे प्रलयके समय भी जीव भगवान्से दूर न हों, औषधि वनस्पतियोंका बीज नष्ट न हो और उनकी रक्षाका श्रेय भगवान्के प्रेम तथा उपासनाको प्राप्त हो।

बस, सोचनेभरकी देर थी। राज्य सिंहासनपर अपने ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकुको बैठा दिया और वे स्वयं तपस्या करनेके लिये जंगलमें चले गये। जिस सिंहासनपर बैठकर उन्होंने अनेक वर्षोंतक राज्य किया था, जिस प्रजाके साथ उनका अनन्त प्रेम था, उसे छोड़नेमें एक क्षणका भी विलम्ब न हुआ। महात्माओंकी यही विशेषता है, वे साथ रहकर भी अलग रहते हैं और अलग रहकर भी साथ रहते हैं। न उन्हें किसी वस्तुसे राग होता और न द्वेष। जब जैसा आ गया, वैसा ही कर डालते हैं।

यहाँ प्रसङ्गवश महाराज मनुके पुत्र इक्ष्वाकुकी भी | थोड़ी चर्चा कर दी जाती है। इन्होंने बचपनमें ही सम्पूर्णवेद-शास्त्रोंका अध्ययन कर लिया था। केवल अध्ययन ही नहीं, इनके सम्पूर्ण आचरण शास्त्रोंके अनुसार ही होते थे। इनका जीवन दैवी सम्पत्तियोंके रंगमें पूर्णतः रंग गया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि सम्पूर्ण ज्ञान एवं आचरणोंका सार भगवद्भक्ति इन्हें प्राप्त थी। ये शरीरसे जगत्‌का काम करते. वाणोंसे भगवान्‌के मधुर नामोंका जप करते और हृदयमें भगवान्का स्मरण करके विल होते रहते उठते-बैठते सोते-जाते एक क्षणके लिये भी भगवान्को नहीं भूलते। अपने घरमें भगवान्‌का चित्रपट रखते, नित्य नियमसे तीनों समय भगवान्‌की पूजा अवश्य करते, स्वप्रमें भी इन्हें भगवान् श्यामसुन्दरके ही दर्शन होते वर्षाकालमें साँवले साँवले बादलोंको देखकर इन्हें भगवान्‌की याद हो आती और उन्हें घंटों एकटक देखते रहते। कृष्णसार मृगको देखकर या उसका नाम सुनकर इन्हें श्रीकृष्णकी याद हो आती और ये भगवत्प्रेममें उन्मत्त हो जाते। राज- काजका सारा भार भगवान्पर ही रहता; परंतु कभी अपने कर्तव्यच्युत नहीं होते। ऐसे लोगोंका काम भगवान्‌की इच्छाशक्ति प्रकृति माता स्वयं ही करती हैं और सर्वदा करेंगी जिसने अपना सर्वस्व भगवान्को सौंप दिया, भगवान्ने अपने आपको उसे सौंप दिया और जिसके भगवान् हो गये, उसके लिये भय, हानि आदिकी सम्भावना ही नहीं है।

ऐसे योग्य पुत्रको राज्य सौंपकर जाते समय वैवस्वत मनुको प्रखता ही हुई। वे मार्ग में भगवान्‌की इस लीलामयी सृष्टिको देखते हुए चले जा रहे थे। उनका चित्त भगवान्‌की महिमा देख-देखकर मस्त हो रहा था कहीं बड़े-बड़े पहाड़ पड़ते, कहीं बड़ी-बड़ी नदियाँ पड़तीं, कहीं मस्स्थल पड़ता तो कहीं शस्य श्यामला भूमि पड़ती। वे इन सबको भगवान के ही विविध रूप समझते और जहाँ चित्त लग जाता, वहीं घंटों बैठकर भगवान्‌का ध्यान करते एक दिन वे चीरिणी अथवा कृतमाला नदीके पावन तटपर पहुँच गये।

कृतमाला बड़ी सुन्दर नदी है। सब ऋतुओं में एक सी आरोग्यप्रद हैं। अनेकों प्रकारके पशु-पक्षी इसके तटपर रहते हैं, बड़े-बड़े ऋषियों-तपस्वियोंके पर्णकुटीर स्थान-स्थानपर बने हुए हैं और नदीकी धवल धारा भी एक प्रेम-योगिनीकी भाँति अपने कृश शरीरसे भगवान्‌के। मङ्गलमय नामोंका गायन करती हुई मानो भगवान्के पास ही जा रही है। उस नदीके तटपर पहुँचकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। चारों ओर बड़ा घना जंगल था। उसमें फल- मूल सुलभतासे प्राप्त हो सकते थे। जंगली पशुओंकी अधिकता होनेपर भी हिंसक जन्तुओंकी कमी थी और जो थे भी वे किसीको कष्ट नहीं पहुँचाते थे। बाहरी लोगोंका आना-जाना कम था, तपस्यामें विन पड़नेकी कोई सम्भावना नहीं थी।

वैवस्वत मनुने वहाँ पहुँचकर नदी- देवताको नमस्कार किया और शौचादि क्रियासे निवृत्त होकर विधिपूर्वक स्नान किया। कृतमालाके शीतल जलमें स्नान करनेसे उन्हें बड़ी शान्ति मिली। संध्या-वन्दन किया. सूर्यको अर्घ्य दिया और गायत्री जप करने लगे। जपके समय सूर्य मण्डलमें स्थित परम पुरुष परमात्माके ध्यानमें वे इस प्रकार तन्मय हो गये कि घंटोंतक उनका बाह्यज्ञान लुप्त रहा। जब होश आया, तब उन्होंने अपनी तपस्याका नियम बनाया। कितने समयतक जप, कितने समयतक ध्यान, कितने समयतक प्रार्थना और कितने समयतक स्वाध्याय किया जाय, इसके लिये समय निश्चित किया। समयका नियम बड़े महत्त्वका है। जो लोग निरन्तर भगवान् के स्मरणमें लगे रहते हैं या जिनकी वृत्ति सर्वदा ब्रह्माकार रहती है, उनकी बात अलग है, परंतु जो साधक हैं जिनका समय प्रमाद या आलस्यमें भी बीत सकता है अथवा व्यर्थ कामोंमें अधिक समय लग जानेकी सम्भावना है उन्हें तो अपना समय नियमित रखना ही चाहिये। समयसे उठना, समयसे सोना और समयसे ही स्नान-ध्यान आदि करना बड़ा ही उपयोगी है। वर्तमान क्षण यड़ा ही मूल्यवान् है जिसने भूत और भविष्यको चिन्तामें इसको खो दिया, उसने भगवान्‌को ही खो दिया। समय भगवान् है। वर्तमान क्षणको ठीक कर लो, बस, सारी साधना पूरी हो गयी. भगवान् मिल गये। इसीसे आजतकके समस्त महात्माओंने समयके सदुपयोगपर बड़ा जोर दिया है।

वैवस्वत मनुका स्वभावसे ही सारा समय भजन पूजनमें ही बीतता परंतु सर्वसाधारणके लाभ और आदर्शको दृष्टिसे उन्होंने उसे नियमित कर रखा था। वे बहुत कम सोते थे। कहते हैं कि जिसे किसी वस्तुकी लगन होती है, वह उसके चिन्तनमें इतना तल्लीन रहता है कि नींद उसके पास फटक ही नहीं सकती। जिन्हेंसाधनाके समय नींद आती है, उन्हें अपनेमें लगनको कमीका अनुभव करना चाहिये। वे ब्रह्मवेलामें ही उठ जाते, नित्यकृत्य करके भगवान्‌के ध्यानमें लग जाते। उन्हें दूसरा कोई काम ही नहीं था।

वे मनसे तो भगवान्का चिन्तन करते ही, शरीरको भी घोर तपस्या में लगाये रखते वर्षामें बिना छायाके " मैदानमें खड़े रहते, जाड़ों में पानी में पड़े रहते और गरमीके दिनोंमें पञ्चाग्रि तापते। कभी एक पैरसे खड़े रहते, कभी सिरके बल खड़े रहते और कभी बहुत दिनोंतक खड़े ही रहते अनेकों दिनके उपवास करते, पानीतक नहीं पीते। श्वास बंद करके बहुत समयतक निश्चेष्ट पड़े रहते, वायुतक ग्रहण नहीं करते।

ध्यान या चिन्तनमें शरीरको आसक्ति बहुत ही बाधक है। संसारमें जो नाना प्रकारके दुःख और चिन्ताएँ हैं, यदि उनके मूलका पता लगाया जाय तो अधिकांश उनका कारण शरीरकी आसक्ति ही मिलेगी। शरीर या शरीरके सम्बन्धियोंकी चिन्तासे ही लोग व्याकुल रहते हैं। जिसने इस आसक्तिका परित्याग कर दिया, वह सबसे बड़ा तपस्वी और सुखी है। साधकोंको इस बात से बहुत सावधान रहना चाहिये कि कहीं शरीरकी आसक्तिके कारण वे साधन - भजनसे विमुख तो नहीं हो रहे हैं! महाराज मनुकी तपस्या निर्विघ्न चलती रही।

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