किसी-किसी पुराण में यह कथा भिन्न प्रकारसे आती है। कल्पभेदसे दोनों ही कथाएँ ठीक हो सकतीहैं उनमें लिखा है कि कृतमाला नदीके तटपर राजर्षि सत्यव्रत नामके एक महान् तपस्वी रहते थे। वे फल मूलादि भी भोजनके लिये नहीं लेते थे। केवल पानी पोकर ही अपने शरीरका निर्वाह कर लेते थे। समयपर स्नान, तर्पण, संध्या आदि नित्य-नियम बड़े प्रेमसे करते और भगवान्का चिन्तन करते हुए उनका नाम ले-लेकर मुग्ध हुआ करते। उनके मनमें कोई कामना नहीं थी। वे कुछ पाना नहीं चाहते थे। अपने जीवनका परम लाभ समझकर भगवच्चिन्तनमें मस्त रहते थे।
उनमें तीनों प्रकारके तप पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित थे। नित्य अपने आराध्यदेव भगवान्की विधिपूर्वक पूजा करते, अतिथियों, विद्वानोंका यथाशक्ति सत्कार करते। ऋषियों, गुरुजनोंकी वन्दना करते। त्रिकाल स्नान करते। मन्त्र, भस्म और न्यास आदि करके अपने शरीरको पवित्र करते। उनमें इतनी सरलता, इतनी नम्रता थी कि वनके वनस्पतियों, वृक्षों और पशु-पक्षियोंके साथ वे बहुत झुककर सम्मानके साथ व्यवहार करते। उनके ब्रह्मचर्यके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है! अष्टविध मैथुनकी चर्चा भी उनके पास नहीं फटकने पाती थी। उनमें अहिंसाका भाव इतना ऊँचा था कि आश्रमके आस-पासके हिंसक जन्तु भी अहिंसा प्रेमी हो गये थे अपना स्वाभाविक वैर छोड़कर बाघ बकरी एक ही साथ चरते विचरते, एक ही घाटपर पानी पीते थे।
वे जन-समाजसे तो प्रायः दूर ही रहते थे, किसीसे मिलते-जुलते न थे, बातचीत अधिक नहीं करते थे; परंतु कभी किसीसे बोलना ही पड़ता तो बहुत सँभालकर, खूब तौलकर प्रिय, सत्य एवं हितकर बात ही कहते थे। भगवान्के नामोंके उच्चारण एवं सत् शास्त्रोंके स्वाध्यायके अतिरिक्त दूसरे कामोंमें वाणीका बहुत कम उपयोग करते थे।
उनके अन्तःकरणकी अवस्था विलक्षण ही थी। वित्रता, विषाद, उद्वेग उनके पासतक नहीं फटकते थे। सदा उनका मन प्रसन्न रहता। जगत्की अनित्यता, भगवान्की सत्यता और आनन्द एवं शान्तिके भाव निरन्तर उठा करते। मनमें व्यर्थके विचार कभी नहीं आते। वह एक प्रकारसे मौन ही थे। अन्तःकरणपर | उनका पूरा संयम था और चाहे जिस क्षण जिस | परिस्थितिमें उसे रख सकते थे। जहाँ वे रहते थे उसके | आस-पास पवित्रताके परमाणु फैलते रहते थे।वे नित्य नियमसे अपनी तपस्यामें लगे हुए थे कि अकस्मात् एक छोटी-सी मछली उनकी अञ्जलिमें आ गयी। जब उन्होंने उसे फिर पानीमें डाल दिया, तब जैसे वैवस्वत मनुसे उस मछलीकी बात हुई थी, वैसे ही इनसे भी हुई और इन्होंने भी रक्षा करते-करते क्रमशः उस मछलीको समुद्रमें पहुँचा दिया।
भगवान् बड़े भक्तवत्सल हैं। जब अपने भक्तको निष्काम भावसे भजनमें लगा हुआ देखते हैं और देखते हैं अपने कर्तव्यमें उसकी तन्मयता, तब अवश्य अवश्य उसपर कृपा करते हैं और दर्शन देकर उसे ज्ञान-विज्ञान, प्रेम, अधिकार और सब कुछ देते हैं तथा उसके योग्य काम देकर उसे अपना सहकारी बना लेते है। भगवान्की यह बान है कि धर्ममें लगे हुएका कल्याण करते ही हैं। कोई धर्मके मार्गमें चले, तपस्या करे, साधना करे और भगवान् उसे न मिलें, ऐसा हो ही नहीं सकता। हमारे एक-एक भाव, एक-एक संकल्प और एक-एक विचार हमारे जीवनके साथ जोड़े जाते हैं और एक न एक दिन उनका फल मिलता ही है। भगवान्के राज्यका यही विधान है। आज राजर्षि सत्यव्रतके सामने भगवान् मत्स्यरूपसे प्रकट हैं। यद्यपि भगवान् के लिये सभी रूप समान हैं, परंतु भक्तोंके सामने वे कभी-कभी ऐसे रूपमें भी प्रकट होते हैं, जिससे उन्हें सर्वत्र देखनेमें सहायता मिल सके। इसीलिये वे पशु-पक्षी, जलचर, थलचर और शूकर तथा मत्स्यके रूपमें भी प्रकट होते हैं। यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि हमारे सामने जितनी वस्तुएँ आती हैं, उनका आकार-प्रकार चाहे जो हो, उनके रूपमें स्वयं भगवान् आ सकते हैं और आते हैं। यदि हम प्रमादमें हुए, आलस्यमें हुए अथवा विषयोंके चिन्तनमें पागल हुए तो वे सामनेसे आकर निकल जाते हैं, हम उन्हें पहचान नहीं पाते जो सर्वदा उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं, सब वस्तुओंमें उन्हें पहचाननेकी चेष्टा किया करते हैं, उनके सामने एक न एक दिन भगवान् आते हैं और वे उन्हें पहचानकर निहाल हो जाते हैं।
राजर्षि सत्यव्रतने मत्स्यके रूपमें भगवान्को पहचान लिया। असलमें भगवान् अपने पहचाननेके लिये ही आये हुए थे। सत्यव्रतके दण्डवत् प्रणाम और प्रार्थनाके बाद भगवान्ने कहा- 'सत्यव्रत मैं तुम्हारी तपस्यासे,साधनासे और अहैतुक प्रेमसे प्रसन्न हूँ। मैं जानता है, तुम निष्काम हो। तुम्हारे हृदयमें किसी प्रकारकी वासना नहीं है। वास्तवमें ऐसे ही भक्तोंकी मुझे आवश्यकता है और उन्हें में ईदा करता हूँ तुम मेरे सृष्टि कार्यमें हाथ बँटाओ ! मेरी आज्ञाका पालन करनेमें तुम्हें आनन्द ही होगा। आजके सातवें दिन सारी पृथ्वीको समुद्र डुबा देगा। स्वर्ग और पाताल भी डूबनेसे नहीं बच सकेंगे। यह 'नैमित्तिक प्रलय' का समय है। इस समय जीवों और ओषधियोंके बीज बचानेकी आवश्यकता है। मैंने यह काम तुम्हें सौंपा। जब सारी सृष्टि जलमें डूबने लगेगी, तब एक बड़ी-सी नौका तुम्हारे पास आयेगी। सप्तर्षियोंके साथ जीव और बीजोंको लेकर उसमें बैठ जाना। उस समय प्रलयके अगाध जलमें जब नौका डावांडोल होने लगेगी, तब में मत्स्यरूपसे आऊँगा। मेरे सींगमें नाव बाँधकर तुमलोग अपनी रक्षा करना।'
राजा सत्यव्रतने वही प्रसन्नतासे भगवान्की आज्ञा शिरोधार्य की! भगवान् अन्तर्धान हो गये। यह जीवन क्षणभङ्गुर है। आज है, पता नहीं कल रहेगा या नहीं ? कलकी तो बात ही क्या, अगले क्षणमें भी इसके रहने का कोई पक्का विश्वास नहीं ऐसे जीवनसे यदि भगवान्की आज्ञाका पालन हो जाय तो इससे बढ़कर अच्छी बात और क्या होगी ? हम न जाने कितनोंकी आज्ञा मानते हैं, किसीकी स्वार्थसे मानते हैं, किसीकी दबावसे मानते हैं और किसीकी विनोदसे मानते हैं; परंतु क्या भगवान्की आज्ञा इतना मूल्य भी नहीं रखती ? स्वार्थ और भयकी दृष्टिसे भी भगवान्को आज्ञाका उल्लङ्घन उचित नहीं है, विचार तो यही स्वीकार करता है परंतु हमारी हालत बड़ी विचित्र है। वेद, शास्त्र, गीता आदिके रूपमें भगवान्की आज्ञा प्राप्त होनेपर भी हम उसका पालन नहीं करते।
यह मूढ़ताके सिवा और कुछ नहीं है। यदि प्रेमीको अपने प्रियतमकी आज्ञा मिल जाय तो पूछना ही क्या है ? उसके लिये तो हानि-लाभका प्रश्न ही नहीं है। बस, आज्ञा ही आज्ञा है। यह सोचकर कि इस जीवनमें भगवान्के आज्ञापालनका सुअवसर प्राप्त हुआ, राजर्षि सत्यव्रतको बड़ी प्रसन्नता मिली वे कृतमालाके पूर्व किनारेपर कुशासन बिछाकर बैठ गये और मत्स्य भगवान्के चरणकमलोंका चिन्तन करने लगे। आजकेसातवें दिन प्रभु प्रकट होंगे और बहुत समयतक उनके संसर्ग और आलापका आनन्द मिलेगा, इस भावसे उनका हृदय द्रवित हो गया। वे भगवान्की दयालुताका स्मरण करके रोने लगे। उन्हें ये सात दिन सात कल्पसे भी बड़े जान पड़े। इन सात दिनोंमें ही जगत्की न जाने क्या हालत हो गयी, परंतु उन्हें कुछ पता न चला भगवान्की इच्छा और उनकी संकल्पशक्तिये सभी वस्तुएँ अपने बीजरूपसे उनके पास उपस्थित हुईं। इन बातोंका पता सत्यव्रतको तब लगा जब समुद्रकी घोर गर्जनासे उनकी एकाग्रता भंग हुई।
उन्होंने देखा, अब समुद्र मुझे डुबाना ही चाहता है कि इतनेमें नाव आ गयी और सप्तर्षि आदिके साथ वे उसपर सवार हो गये। समुद्रकी भीषणता देखकर उन लोगोंक मनमें तनिक भी आशंका नहीं हुई। उन्होंने बड़ी शान्तिसे भगवान्का ध्यान किया। ध्यान करते ही मत्स्यभगवान् प्रकट हुए और वासुकिके द्वारा वह नाव उनके सींगमें बाँध दी गयी।
अब राजर्षि सत्यनतने गद्गद स्वरसे प्रार्थना की। वे बोले-'भगवन्! हम सब जीव अनादिकाल से अविद्याके कारण आत्मस्वरूपको भूलकर संसारमें भटक रहे हैं। आपकी शरण ग्रहण करनेसे ही इसका नाश हो सकता है। यदि हम अज्ञानी जीव अपने हाथों इस अज्ञान और कर्मके बन्धनको काटना चाहें तो असम्भव ही है। इसे केवल आप काट सकते हैं। जैसे अंधेका नेता अंधा नहीं हो सकता, वैसे ही अज्ञानी जीवका गुरु कोई अज्ञानी गुरु नहीं हो सकता। गुरु तो केवल आप ही हैं और आपके ही उपदेशसे हमारी दुर्बुद्धि मिट सकती है। कामनाओंके कारण हमारी बुद्धि नष्ट हो गयी है। अपने ज्योतिर्मय प्रकाशसे इसका मोह दूर कर दीजिये और सर्वदाके लिये हमें अपना लीजिये। भगवन्! हमने समस्त गुरुओंके परमरूप आपको ही गुरुके रूपमें वरण किया है। मैं आपके चरणों में शत-शत, सहस्र-सहस्र नमस्कार करता हूँ।'
सत्यव्रतकी भक्तिपूर्ण इस प्रार्थनाको सुनकर भगवा सांख्ययोग आदिको शिक्षा दी। सारा मत्स्यपुराण सुनाया और अन्तमें आत्मतत्त्वका गुह्यतम ज्ञान और अपनी भक्तिका उपदेश किया। तत्पक्षात् सत्यव्रतको सम्बोधित करके भगवान्ने कहा- 'अब प्रलयका समय बीत | गया। तुमलोग संसारमें जाओ। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।मैंने तुम्हें स्वीकार किया। मैं सर्वदा तुम्हारे साथ रहूँगा। एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ेंगा। अब अगले कल्पमें तुम विवस्वान्के पुत्र बनोगे और तुम्हारा नाम वैवस्वत मनु होगा। एक मन्वन्तरके तुम्हीं अधिपति होओगे। मेरी कृपासे तुम्हें कभी मेरी विस्मृति नहीं होगी।' सबने श्रद्धा-भक्तिसे भगवान्को प्रणाम किया और वे हयग्रीवके वधके लिये उपस्थित हुए।