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श्री मत्स्य अवतार कथा (मछली अवतार की कहानी)

Matsya Avatar Katha (Fish Avatar Story)

भाग 7 - Part 7

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श्री मत्स्य अवतार- कथा

वेदका अर्थ है अनन्त ज्ञान। यह भगवत्स्वरूप है भगवान्का निःश्वास अर्थात् प्राण है। इसका भगवान्के साथ अटूट सम्बन्ध है। वेद रहें और भगवान् न रहें या भगवान् रहें, वेद न रहें ऐसी स्थिति न कभी हुई है और न हो सकती है। पहले-पहल अर्थात् सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान् ही ब्रह्माके हृदयमें वेदोंका संचार करते हैं। उन्हें ऐसा ज्ञान देते हैं, जिससे वे पूर्व कल्पके तत्त्वोंको पहचानते हैं और उनकी ठीक-ठीक व्यवस्था करते हैं। जबतक वे इस ज्ञानको सावधानीके साथ सुरक्षित रखते हैं, इसका स्मरण बनाये रखते हैं, तबतक वे सृष्टिकी व्यवस्था करते रहते हैं; क्योंकि यह ज्ञान भगवत्स्वरूप ही है। इसके आश्रयसे की जानेवाली सृष्टि भगवत् सम्बन्धसे युक्त ही रहती है।

बल्कि वेदसे ही सृष्टि हुई है। ॐकारके द्वारा प्रकृतिमें क्षोभ, गायत्रीके द्वारा ज्ञानका संचार और ब्रह्माके चारों मुखोंसे निकले हुए मन्त्रोंद्वारा ही सम्पूर्ण जगत्को सृष्टि हुई है। जबतक ब्रह्माके मुखोंसे वेद मन्त्र निकलते रहते हैं, तबतक प्रलय नहीं होता और जब वे असावधान हो जाते हैं, तमोगुण उसकी राजसिक और सात्विक प्रवृत्तियोंको दवा लेता है, तब उनका वेद-ज्ञान भूल जाता है और वे निद्रित हो जाते हैं। यह निद्राकाल ही नैमित्तिक प्रलयकाल है।

कहते हैं कि जब ब्रह्माका रात्रिकाल निकट आता है, संध्या हो जाती है, तब वे कुछ तन्द्राग्रस्त हो जाते हैं। उसी समय हयग्रीव नामका दैत्य, जिसे हम तमोगुण भी कह सकते हैं, उनके वेद चुरा ले जाता है। वे तो निद्राके कारण सो जाते हैं, परंतु भगवान् इस बातकी उपेक्षा कब कर सकते हैं? वे मत्स्यावतार धारण करके इस अगाध जलराशिमेंसे उसे ढूँढ़ निकालते हैं और प्रलयका अन्त होते-होते ब्रह्माके हृदयमें पुनः वही ज्ञानप्रकाशित कर देते हैं।

यद्यपि ब्रह्माके वेद कागजपर लिखे हुए कुछ गिने चुने मन्त्रोंके रूपमें नहीं हैं, जिन्हें कोई चुरा सके। वे तो अनन्त हैं तथापि असावधानी और तमोगुणके द्वारा अनन्त ज्ञानराशि भी लुप्त हो सकती है, इस बातका पता देनेके लिये भगवान् ही ऐसी लीला करते हैं।

वेदोंका रक्षक कौन है ? धर्मका रक्षक कौन है ? वेद और धर्मके व्यावहारिक रूप वर्णाश्रमका रक्षक कौन है ? इन प्रश्नोंका एकमात्र उत्तर है-'भगवान् !' वास्तवमें इनके रक्षक भगवान् ही हैं।

जब हयग्रीव वेदोंको चुराकर अगाध जलराशिमें छिप गया और उसने सोचा कि मेरे पासतक कोई नहीं आ सकेगा, मुझे अब कोई न देख सकेगा, तब भगवान्ने मत्स्यरूप धारण किया और वे उसके पास पहुँच गये। भला भगवान्से छिपकर कोई कहाँ जा सकता है? वे घट-घटकी जानते हैं, बल्कि घट में जितने विचार पैदा होते हैं, सब उन्हींके आय उन्होंको शक्तिसे होते हैं। यही नहीं बल्कि वे स्वयं ही घट-घटमें रहते हैं। ऐसी स्थितिमें हम उनसे क्या लिपा सकते हैं?

हम छिपा नहीं सकते, परंतु छिपाते हैं। इसका कारण क्या है? क्या हम भगवान्पर विश्वास नहीं करते ? क्या हम अपनेको आस्तिक कहते हुए भी अंदरसे नास्तिक हैं? अवश्य हम एक साधारण आदमीके सामने जिन चोरी आदि कुकमोंको नहीं कर सकते, उन्हें भगवान् के सामने करते हुए लज्जित नहीं होते। भगवानूपर आस्था रखनेवालेके द्वारा यह कभी सम्भव नहीं है।

परंतु इतनी बात अवश्य है कि हमारे अंदर बहुत सी कमजोरियाँ हैं। हम कभी तम्बेगुके अधीन हो जाते हैं, कभी रजोगुणके अधीन हो जाते हैं। यदि इनके अधीन होनेके समय भी भगवान्की याद बनी रहे, उनका भरोसा रहे तो हम समस्त आपत्तियोंसे छूट सकते हैं।

ब्रह्मा असावधान हो गये थे परंतु भगवान्का भरोसा नहीं छूटा था। यही कारण है कि भगवान्ने उनकी रक्षा की और हयग्रीवने भी चोरी तो की; परंतु उसे भगवान्का भय था भयसे ही सही, भगवान्पर आस्था थी इसलिये भगवान्ने स्वयं उसके पास जाकरउसे सद्गति प्रदान की। साधारण वध और भगवान्‌के द्वारा किये गये हुए वधमें बड़ा अन्तर होता है; क्योंकि भगवान् अपने हाथों जिसका वध करते हैं, उसका उद्धार हो जाता है। हाँ, तो हयग्रीवका उद्धार करके उन्होंने वेद ब्रह्माको दे दिये और ब्रह्माने फिरसे पहले कल्पकी भाँति सृष्टि की। इस प्रकार मत्स्यरूपसे भगवान्ने वेदोंकी रक्षा की। धर्मका, ज्ञानका उपदेश किया और अपनी महान् भक्तवत्सलता प्रकट की। इस अवतारके द्वारा भगवान्ने ऐसी सुन्दर लीला की, जिसे गा-गाकर लोग भवसागरसे तरेंगे और उनके प्रेममें मस्त रहेंगे।

प्रत्येक अवतारकी अलग-अलग उपासना-पद्धति है। उनमें उनके मन्त्र, ध्यान आदिका विस्तारसे वर्णन हुआ है। मत्स्य भगवान् के सम्बन्धमें भी मन्त्र और ध्यानका वर्णन मिलता है। वासुदेव द्वादशाक्षर मन्त्रकी भाँति इनका भी द्वादशाक्षर मन्त्र है। 'ॐ नमो भगवते मं मत्स्याय।' इस मन्त्रका जप करनेसे साधकको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा भगवत्प्रेमकी प्राप्ति होती है।इनके ध्यानके सम्बन्धमें मेरुतन्त्रमें लिखा है

नाभ्यधोरोहितसम आकण्ठं च नराकृतिः l

घनश्यामश्चतुर्बाहुः शङ्खचक्रगदाधरः ॥

शृङ्गिमत्स्यनिभो मूर्द्धा लक्ष्मीवक्षोविराजितः ।

पद्मचिह्नितसर्वाङ्गः सुन्दरश्चारुलोचनः ॥

(मेरुतन्त्र 36 अ0 )

भगवान् मत्स्यका विग्रह नाभिसे निचले भागमें रोहित मछलीकी भाँति है । गलेतक मनुष्यके आकार सा है और सिर शृङ्गी मछलीकी भाँति है। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल वर्ण और तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा धारण किये हुए हैं। आँखोंसे दयाकी वर्षा हो रही है और वक्षःस्थलपर लक्ष्मी विराज रही हैं। मत्स्य भगवान्का यही स्वरूप है। इसके ध्यानसे साधकोंका परम कल्याण साधन होता है। विस्तार मूल ग्रन्थमें ही देखना चाहिये।

अन्तमें हम श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् मत्स्यको प्रणाम करें और उनके चरणोंमें भक्तिकी प्रार्थना करें। बोलो भक्त और भगवान्‌की जय!

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