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श्री वामन अवतार कथा (वामन अवतार की कहानी)

Vaman Avatar Katha (Vamana Avatar Story)

भाग 1 - Part 1

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श्री वामन अवतार- कथा

श्रीभगवानको वही रसमयी है। अपनी लीलाके रूपमें वे स्वयं अपनेको ही प्रकट करते हैं। भगवान् और भगवान्‌की लीला - ये दोनों भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं। एक प्रकारसे यह सम्पूर्ण संसार भगवान्की लीला ही है। वे सब नाम-रूप उन्होंके हैं, वे ही हैं, परंतु वे इतने ही नहीं, इनसे परे भी हैं। उनकी सत्ता, उनका स्वरूप और उनकी लीला अनिर्वचनीय है।

जब जीव प्रमादवश भगवान् के स्वरूप और लीलाको भूलकर उससे भिन्न प्राकृत पदार्थोंसे सुख पानेकी आशा एवं अभिलाषा करता है और बहिर्मुख होकर उन्होंके पीछे भटकने लगता है, तब वह उद्वेग, अशान्ति एवं दुःखसे घिर जाता है। भगवान् वैसी स्थितिमें भी उसे बार-बार चेतावनी देते रहते हैं और प्रतीक्षा किया करते हैं कि वह अभिमान तथा भौतिक पदार्थोंका भरोसा छोड़कर सच्चे हृदयसे मुझे पुकारे तो मैं अभी चलकर उसे गलेसे लगा लूँ, उसपर अपना अनन्त प्रेम प्रकट करूँ तथा सर्वदाके लिये सुख शान्तिके साम्राज्य में वास दे दूँ। वे स्वयं उसके लिये कई बार मौका देते हैं, हृदयमें प्रेरणा करते हैं, संतोंको भेजते हैं और स्वयं आते हैं।

परंतु जीवकी यह मोहनिद्रा टूटे तब तो यह आयोजन सफल हो। भगवान्‌को दयाका तो क्या वर्णन किया जाय। उन्होंने तो समस्त जीवोंको दयाके अनन्त समुद्रमें ही रख छोड़ा है। उनके अनन्त उपकार, अपार कृपा और अपरिमित प्रेमसे सब के सब दबे हुए हैं।

जब अभिमान, कामना और भयके थपेड़ोंसे व्याकुल होकर, रजोगुणके नाना व्यापारोंसे ऊबकर नरक, स्वर्ग आदिमें चक्कर खाते-खाते परेशान होकर भी लोग सात्विकता, देवी सम्पत्ति एवं भगवान्‌की शरण नहीं ग्रहण करते, उलटे तमोगुणकी प्रगाढ़ निद्रामें सो जाते हैं, चराचरका प्रलय हो जाता है, तब यदि भगवान् प्रकृतिको क्षुब्ध करके इन्हें जगाते नहीं तो उस मोहनिद्रासे कैसे छुटकारा मिलता। सोतेसे जगाया, ज्ञानका संचार किया। तमसे रजमें लाकर सत्त्वकी ओरअग्रसर किया। अब क्या जीवन दान करनेवाले प्रभुकी शरण लेना भी हमारा कर्तव्य नहीं है। क्या हम इतना भी नहीं कर सकते ?

केवल कृतज्ञताको दृष्टिसे ही नहीं उनका आश्रय लिये बिना हमारा काम भी तो नहीं चल सकता। हम चाहे जितना प्रयत्न करें, जितना हाथ-पैर पीटें, बिना उनके हमारे सुख-शान्ति आदि स्थायी भी तो नहीं रह सकते। दो-चार दिनके लिये कुछ गुणोंको छाया भले ही आ जाय, भगवान्‌के बिना उनका टिकाऊ होना असम्भव है। यह आजकी बात नहीं-सर्वदासे ऐसा ही होता आया है।

भगवान्‌को कृपासे देवताओंका राज्य हुआ। स्वर्गके सिंहासनपर इन्द्रका राज्याभिषेक हुआ। वहाँ भोगोंकी तो कोई कमी थी ही नहीं। परंतु कामनाओंका अभाव कब होता है? यह तो भगवान्को यही कृपाका फल है। देवसभामें सर्वसम्मति से निश्चय हुआ कि हमलोगोंक पास भोगको प्रचुर सामग्री रहनेपर भी मृत्युके भयसे उसका पूर्णतः भोग नहीं हो पाता। यह डर लगा ही रहता है कि न जाने कब मृत्यु हमें इनसे अलग कर देगी। कोई ऐसा उपाय किया जाय जिससे हमलोग अमर हो जायें।

देवता तो थे ही। इनका यही लक्षण है कि ये भगवान्‌की शरण नहीं छोड़ते। सबने एक स्वरसे भगवान्से प्रार्थना की और भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान्ने इनकी अभिलाषा पूर्ण की। केवल अमृतमन्धनके लिये भगवान्ने अपनेको अनेक रूपोंमें प्रकट किया।

मन्दराचलको लाना, उसे कच्छप बनकर पीठपर धारण करना, बाहर देवताओंके साथ मचना, धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लाना, मोहिनीके रूपमें पिलाना और अन्तमें बलि आदि दैत्योंको युद्धमें पराजित कर देना, सब काम स्वयं भगवान्ने हो तो किया था। परंतु अब देवताओंको अभिलाषा पूर्ण हो गयी थी। उनके पास भोगोंको कमी थी ही नहीं, मृत्युका भय छूट ही गया था। अब भगवान्‌को भला कौन याद करे? होना तो यह चाहिये कि कामनाओंकी पूर्ति और भय निवृत्ति हो जानेपर भगवान्‌का अधिकाधिक स्मरण हो। परंतु इससेउलटा ही होता देखा गया है। अपनी विजय लोग भगवान्को भूल गये, विषयपरायण हो गये। उनमें देवत्वके स्थानपर असुरत्व घुस आया। परंतु यह भी निश्चित है कि भगवान्‌के बिना चाहे दैवी सम्पत्ति हो या लौकिक सम्पत्ति, टिक नहीं सकती। हुआ भी ऐसा ही।

उधर हारे हुए दैत्य बड़ी सावधानीके साथ पूरे प्रयत्नसे अपना बल बढ़ाने लगे। अपने कुलगुरु शुक्राचार्यकी सम्मतिसे बड़े भारी यज्ञका आयोजन हुआ। विधिपूर्वक अनुष्ठान होने लगे। यहाँ असुर भावके स्थानपर देवभावकी जागृति होने लगी। हारनेवाला जीत गया और जीतनेवाला हार गया। स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर रथ, घोड़े आदि एवं आशीर्वाद दिया। बलिका अभिषेक हुआ। बड़ोंकी वन्दना करके उन्होंने विजययात्रा की।

देवतालोग अपनी अमरताके घमंडमें चूर थे। विषयोंकी मदिरा पीकर पागल थे। लक्ष्मी उनसे अप्रसन्न थीं, क्योंकि वहाँ न उनके पतिकी पूजा थी, न उनकी ही बात की बातमें दैत्योंने उन्हें स्वर्गसे खदेड़ दिया। जिनके पास भगवान्‌का बल नहीं है, भला वे किस बलपर कितनी देरतक किसी आपत्ति, विपत्ति या द्वन्द्वका सामना कर सकते हैं। मर सकते नहीं थे, विषयभोग छिन गये, साधारण जीवोंकी अपेक्षा भी अधिक दुर्दशा भोगनी पड़ी। किसीने वन बीहड़की शरण ली और किसीने नदीतटपर अड्डा जमाया। स्वर्गपर बलिका अधिकार हो गया। वे ही अब इन्द्र हुए।

देवेन्द्रके दुःखका पारावार नहीं था। कलका इन्द्र आज भिखारी है। कलका त्रिलोकाधिपति एकच्छत्र शासक आज दुत्कारा जा रहा है। अमृत पीनेवालेको पानी नहीं मिलता। खानेको अन्न नहीं पहननेको वस्त्र नहीं। इस अवस्थाके दुःखका अनुमानमात्र किया जा सकता है। कोई क्षत्रिय राजा होता तो लड़कर सामने युद्धमें प्राण त्याग देता; परंतु इसमें तो इनकी वही अमरता, जिसके बलपर ये फूले नहीं समाते थे, बाधक हो रही थी. इसीको कहते हैं-समयका फेर । जब वे सर्वथा निराश हो गये, तब अपनी माँकी याद आयी। वे सोचने लगे-अब माताकी शरण में जानेसे ही कल्याण हो सकता है जिसके हृदयकेखूनसे इस जीवनकी रचना एवं रक्षा हुई है, जिसने अपने गर्भ में महीनों इसका वहन किया है; जब चलना नहीं आता था, तब चलना सिखाया, बोलना नहीं आता था बोलना सिखाया, पहनना नहीं आता था पहनना सिखाया, जिसकी शिक्षा-दीक्षा एवं कृपासे इतने उच्च पदपर आसीन हुए और वास्तवमें जिसका यह शरीर और जीवन है, उसी माँके पास चलना चाहिये।

उनकी माताका नाम अदिति था। ये दक्ष प्रजापतिकी पुत्री तथा महर्षि कश्यपकी धर्मपत्नी थीं। ये महर्षि कश्यपकी विभिन्न पनियोंमें एक थीं और इन्हें ही देवजननी होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कश्यप महर्षि तो अलग एक एकान्त कुटीरमें भगवच्चिन्तनमें लगे रहते थे। अब पितामहकी आज्ञाका पालन कर चुके थे, विभिन्न पत्रियोंसे असंख्य संतानोंकी सृष्टि कर थे। उनका एकमात्र काम था- भगवच्चिन्तन । दूसरी स्त्रियाँ अपने प्रतापशाली पुत्रोंके साथ रहती थीं। केवल अदिति ही— उनकी कुटीरसे थोड़ी दूरपर एक आश्रम में रहकर अपने पतिकी सेवामें लगी रहती थी। वह अपने पतिदेवको ही साक्षात् भगवान् समझती थी और उन्हों की सेवा पूजामें लगी रहती थी। उसके सामने बड़े-बड़े प्रलोभन आये, अपना हो पुत्र देवेन्द्र हु विषय-भोगोंकी क्या कमी थी, परंतु पतिसेवाके सामने वह उन्हें तुच्छ समझती थी, अपना लड़का सुखी है संतुष्ट हैं और अपना काम कर रहा है; इतना जान लेनेके बाद फिर उसे कभी उनका स्मरण भी नहीं हुआ। वह निरन्तर मन, कर्म और वाणीसे पतिसेवामें ही लगी रहीं।

इन्द्रने सोचा कि पिताजी तो समदर्शी है, देवता दैत्य दोनों ही उनके पुत्र हैं। वे भला क्यों हमारे लिये यत्नशील होने लगे। वे सोधे अपनी माताके आश्रमपर पहुँचे। वह अपने पतिदेवके लिये फलाहारकी सामग्री कर रही थीं। एकाएक देवेन्द्र आकर उनके चरणोंपर गिर पड़े। उनको आँखों आँसू माताके चरण भ गये। अपने पुत्रको इस अवस्थामें देखकर माता अदितिकी क्या दशा हुई, इसकी कल्पना कोई मातृहृदय ही कर सकता है। अदितिने झट देवेन्द्रको अपने दोनों हाथोंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। उनकी स्थितिको कल्पनासे माताका हृदय वह पड़ा और आँसुओंकी धारासे देवेन्द्रका मस्तक सिक्त हो गया।थोड़ी देर बाद सँभलकर अदितिने देवेन्द्रको ढाढस बँधाया और समझाया कि 'बेटा! इतना निराश, उदास क्यों होते हो ? क्या भगवान्पर तुम्हारा विश्वास नहीं है? वे सर्वदा सर्वथा भला ही करते हैं। उनके दरबारमें अन्यायके लिये स्थान नहीं है। वे दयामूर्ति हैं। जब कहीं पतनकारी दोष देखते हैं, तब क्षणभरके लिये आड़ में खड़े हो जाते हैं और उन अभिमानादि दोषोंका नाश करनेके लिये मानो उसपर दुःखका पहाड़ डाल देते हैं। उनपर विश्वास रखनेवाले इस स्थितिमें बड़ा आनन्द लेते हैं। इस आँखमिचौनीकी भूलभुलैयामें पड़कर वे उन्हें कोसने नहीं लगते। बल्कि कहते हैं कि तुम्हारी लीला बड़ी रसमयी है।'

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