बहुत बड़ी सम्पत्ति हो, अपार सेना हो, बड़े-बड़े लोग आज्ञापालनके लिये हाथ जोड़कर सामने खड़े रहते हों, बड़ी-बड़ी गुत्थियोंको सुलझा डालनेवाली विशाल बुद्धि हो, कल्पोंतक रहनेवाली कीर्ति हो, विषय-भोगोंकी राशि अपने हाथमें हो, सुन्दर - स्वस्थ युवा शरीर हो, गुणज्ञ आज्ञाकारी बलिष्ठ पुत्र हों, मनचाही पत्नी हो और हो तीनों लोकोंपर एकच्छत्र शासन; परंतु इनसे - केवल इनसे शान्ति और सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
आज बलिके पास क्या नहीं है? संसारमें जो कुछ हो सकता है वह सभी तो हो चुका है। परंतु वे शान्त नहीं हैं, उनके मनमें उद्वेग है। सब उनके शासनकी प्रशंसा करते हैं, उनकी बहादुरीके गीत गाते हैं, उनके पुरुषार्थ, प्रयत्न और तत्परताके आभारी हैं। परंतु समझ नहीं पाते कि चित्तमें यह अभावकी आग कहाँसे क्यों धधक रही है।
मन्त्रियोंने विचार किया, गुरु-पुरोहितोंने ग्रन्थोंके पन्ने पन्ने उलट डाले, जो कुछ समझ सके, वैसा ही उन्होंने किया, परंतु किसी उपायसे स्थायी लाभ नहीं हुआ। कुछ साधन करते। दान, यज्ञ आदिका विधिपूर्वक अनुष्ठान होता। थोड़े समयके लिये संतोष हो जाता। दो-चार दिन शान्तिका अनुभव हो जाता, फिर वही पुरानी हालत हो जाती।
अन्तमें सबने सलाह की, स्वयं बलिने इस बातपर बड़ा जोर दिया कि हमारे दादा प्रह्लादजीके पास चलकर यह बात पूछी जाय। वे एकान्तमें रहते हैं, फल-मूल खाते हैं, उनके पास संसारके विषय-भोग हैं नहीं, फिर भी वे हमारी अपेक्षा अधिक शान्त, अधिक सुखी हैं। वे अवश्य हमारी अशान्तिका कारण जानते होंगे। वे शान्तिका उपाय भी बतायेंगे।
दो चार मुख्य-मुख्य दैत्योंको लेकर बलि प्रह्लादके कुटीरपर पहुँचे। वे उस समय भगवान्के चिन्तनमें लगे हुए थे। उनकी आँखें बंद थीं। मुखमण्डलसे एक दिव्यज्योति छिटक रही थी। शरीर निश्चेष्ट था और आसन दृढ़ इससे सिद्ध होता है कि वे बहुत देरसे उसी दशामें थे।
उनके ध्यानमें बाधा न पड़े, इस दृष्टिसे बलिने दूरसे ही प्रणाम किया और सबके साथ वहीं बैठ गये। प्रह्लादके शरीरसे शान्ति, प्रेम एवं आनन्दकी धारा प्रवाहित हो रही थी, जिसके कारण बलि आदिका मन बहुत कुछ शान्त हो गया। वे प्रह्लादकी ओर एकटक देख रहे थे और उनके प्रसन्न मुखमण्डलको देख देखकर विस्मित हो रहे थे। कितना समय बीत गया इसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं गया।
जब प्रह्लादका ध्यान टूटा और उन्होंने भगवन्नामका उच्चारण करते हुए अपनी आँखें खोलीं, तब इन्हें पता चला कि अब बहुत देर हो गयी है और इन लोगोंने जाकर चरण-स्पर्श किये। प्रह्लादने बड़े प्रेमसे हृदयसे लगाया और कुशल- समाचार पूछे बड़ी नम्र वाणीसे; किंतु अभिमानके साथ बलिने अपनी विजय कथा कह सुनायी और देवतालोग इनके सामने एक क्षण नहीं ठहर सके, अब उनकी क्या दशा हो रही है यह सब भी कहे बिना बलिसे नहीं रहा गया। अन्तमें बलिने कहा- आप गुरुजनोंके आशीर्वादसे मैं अब त्रिलोकीका राजा हूँ। मेरे पास किसी भी सामग्रीकी कमी नहीं। मैं किसीको दुखी भी नहीं रहने देना चाहता। नित्य दान किया करता हूँ। पहलेसे ही सतर्क रहकर आपत्तियोंका निवारण करता रहता हूँ। परंतु दादाजी! यह सब होनेपर भी न मेरे अंदर शान्ति है, न तो मेरी प्रजा ही शान्त है। मैं आपसे यही पूछने आया हूँ कि इस अशान्तिका कारण क्या है? आप बताइये - मैं उसे उखाड़कर फेंक दूँ।'
प्रह्लादने कहा- 'बेटा! संसारकी सारी सम्पत्तियों में वह शक्ति नहीं है कि वे किसीको सुख-शान्ति दे सकें। उसे देनेकी शक्ति तो केवल भगवान्में ही है। जो उनका भजन, सेवन करता है, उनकी आज्ञापर चलता है, उनसे प्रेम करता है और उनके चरणों में आत्मसमर्पण कर देता है, उसे ही सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है। यह सारा उद्वेग, यह सम्पूर्ण अशान्ति केवल उनका भजन न करनेसे है।'
प्रह्लाद यह कहते-कहते भगवान्की स्मृतिमें डूबते से जा रहे थे। वे मानो दूसरे लोकमें चले गये। वाणीबंद हो गयी शरीर निक्षेष्ट हो गया। वे दूसरे रूपमें भगवान्को ढूँढ़ने लगे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, स्वर्ग एवं मर्त्यलोकमें भगवान्को ढूँढ़ डाला; परंतु कहीं भगवान्के दर्शन नहीं हुए। फिर अलग-अलग सब वस्तुओंको देखना शुरू किया। अन्ततः देखा तो अदिति के गर्भ में भगवान् मन्द मन्द मुसकरा रहे हैं। नमस्कार किया। आशीर्वाद के लिये वामन भगवान्के दाहिने हाथको उठा देखकर प्रह्लादको इतना आनन्द हुआ कि उन्हें और सब बातें भूल गयीं। बड़ी देतक एकटक देखते रहे। फिर भगवान्ने स्वयं ही उन्हें इस शरीर में भेज दिया।
यहाँ बलि बैठे-बैठे प्रह्लादके अन्तिम वाक्यपर विचार कर रहे थे कि 'यह सारा उद्वेग, यह सम्पूर्ण अशान्ति भगवान्का भजन न करनेसे है। उनका हृदय क्षुब्ध हो उठा। वे अपने आप ही उत्तेजित हो उठे। उनका चेहरा लाल हो गया, आँखें चढ़ गयीं। वे सोचने लगे कि भगवान् कौन हैं? अपना भजन न करनेसे वह हमें दुःख क्यों देता है? क्या वह हमसे अधिक बलवान् है, सुनते हैं वह देवताओंका हिमायती है? क्या इसीसे हमें अशान्त करता है ? अस्तु, दादाजी इस बार कोई पतेकी बात कहेंगे। इतनेमें ही प्रह्लादकी आँखें खुली।"
क्षणभर बाद प्रह्लादने कहा- 'बेटा! अब भगवान्के भजन बिना कल्याण नहीं। वे देवताओंकी प्रार्थनासे अदिति के गर्भ में आ चुके हैं। वे देवताओंका कल्याण करेंगे। तुमलोग भी उनका भजन करो, वे तुम्हारा भला करेंगे।'
बलि पहलेसे ही उत्तेजित थे। प्रह्लादकी बातों से उनको उत्तेजना बढ़ गयी उनका अभिमान बोल उठा- 'मैं समझ गया। यह सब उन्हींकी करतूत है। वे हमारे पुराने शत्रु हैं। अमृत मथनेके समय बराबर परिश्रम करनेपर भी हमें ठग लिया। युद्धमें देवताओंकी सहायता की। इस बार जब हमारी शक्ति बढ़ी तब सामने नहीं आये। अब लुक-छिपकर अशान्ति फैलाते हैं। देवताओंकी सहायता करनेके लिये अदिति के गर्भ में आये हैं। इस बार देखा जायगा। मेरे एक-एक मित्र शम्बर, मय, बल आदि उन्हें मार सकते हैं। उनमें रखा ही क्या है?' आवेशमें आकर बलि बहुत बोल गये पीछेसे गुरुजनोंके सामने इतना बोल जानेका पश्चात्ताप भी हुआ।परंतु अब तो तीर निकल चुका था। अब कर ही क्या सकते थे। भगवान्पर आक्षेप प्रह्लादसे नहीं सुना गया। वे काँप उठे। उनके रोम-रोममें चिनगारियाँ निकलने लगीं। कहीं-कहीं ममता भी क्रोधकी जननी हो जाती है। सम्भव है दूसरा कोई ऐसी बात कहता तो प्रह्लादको क्षोभ न होता; परंतु अपना ही पौत्र इस प्रकार कहे यह उन्हें असह्य था। वे बोल उठे-
बलि ! तू मेरे कुलका कलंक है। मेरा पौत्र, विरोचनका पुत्र होकर तू ऐसी बात कहता है? तुझे गर्भ में ही मर जाना चाहिये था। तू इस सेनाके बलपर, इस शरीर के बलपर इतना घमंड कर रहा है, इतना इतरा रहा है। तुझे धनका उन्माद हो गया है। इसीसे तू त्रिलोकीको संकल्पमात्रसे धारण करनेवाले भगवान्का निरादर करता है। जा, अब तेरा धन न रहेगा, तेरी सेना काम न आयेगी और तू पदभ्रष्ट हो जायगा, तब तेरी हेकड़ी छूटेगी, तू भगवान्की महिमा जानेगा।'
बलि तो सन्न रह गये। काटो तो खून नहीं। वे चाहे जितने अभिमानी रहे हों, परंतु उनके हृदयमें प्रह्लादकी भक्ति थी, गुरुजनोंका आदर था। वे आवेशमें जो कुछ कह गये थे, उसके लिये स्वयं उन्हें दुःख था। जब प्रह्लादकी बात सुनी, तब तो वे सर्वथा निराश हो गये। उनका विश्वास था कि चाहे जो हो जाय दादाजीकी बात मिथ्या नहीं हो सकती। वे तुरंत उनके चरणोंपर गिर पड़े। उनकी आँखोंसे आँसूकी धारा बहने लगी।
क्षणभर बाद ही प्रह्लाद शान्त हो गये, बलिको उठाकर छातीसे लगाया। समझाया-'बेटा! मैं तुम्हारी बात सुनकर आवेशमें आ गया। तभी तो ऐसी बात मुँहसे निकल गयी। नहीं तो, इस भगवान्की लीलामें क्रोधके लिये स्थान कहाँ है। ऐसी ही उनकी इच्छा थी। अब चलकर उनका भजन स्मरण करो। वे किसीका पक्षपात नहीं करते। सबको समानरूपसे देखते हैं। यदि वे इन्द्रको स्वर्गका राज्य देंगे तो तुम्हें उससे भी अच्छा पद दे सकते हैं। उनके विधानपर | विश्वास रखो। वे जो कुछ करते हैं अच्छेके लिये ही करते हैं। जिस सम्पत्ति, पद, सेना, बल आदिको अपना | समझकर तुम अभिमानवश भगवान्को भूलकर अशान्त | होते जा रहे थे-यदि भगवान् उन्हें छीनकर तुम्हें अपना लें, अपनी सारी वस्तुएँ तुम्हें दे दें, वे स्वयं तुम्हारे हो जायँ तो इससे बढ़कर क्या बात होगी ?''अब जाओ, अपने धनका सदुपयोग करो। सबका सम्मान करो। सबकी इच्छा पूर्ण होने दो। वे न जाने किस रूपमें आ जायँ। सबके रूपमें उन्हें देखो । आजसे यज्ञ प्रारम्भ कर दो। तुम्हारा कल्याण होगा। भगवान् तुम्हारा कल्याण करेंगे।'
बलि जाकर यज्ञ-कार्यमें लग गये।