प्रकृति माता अनादि कालसे एक ही काम करती आयी हैं और अपने जीवनभर वही करती रहती हैं। उनके लिये दूसरा कोई काम ही नहीं है। वह काम है- परम पुरुष परमात्माको रिझाना उनकी आज्ञाके अनुसार चलती हैं, उनके इशारेसे नाचती हैं, गाती हैं, सो जाती हैं और जागती हैं। यह इसीलिये बनी हैं और हैं कि भगवान् अपने एकाकीपनमें— सूनेपन में इनके साथ रमण करें, खेलें, मनोरञ्जन करें। हाँ तो प्रकृति माता सर्वदा अपने इस काममें सावधान रहती हैं, एक क्षण भी प्रमाद नहीं करतीं। वह सामान्य बात है।
परंतु जिस दिन भगवान् निराकारसे साकार, अव्यकसे व्यक्त और निर्गुणसे लीलाधारी होते हैं उस दिन तो इनकी प्रसन्नताका ठिकाना ही नहीं रहता, इनका आनन्द फूट पड़ता है। आज भाद्रपद शुक्ल द्वादशी है। प्रकृति माताने दूसरे ही रूपमें अपनेको सजा रखा है। दिशाएँ प्रसन्न हैं, ऋतु अनुकूल हैं, शीतल सुगन्ध वायुके मन्द मन्द झकोरे लोगोंके हृदय गुदगुदा जाते हैं। आकाश निर्मल है, नदियाँ शान्ति भगवन्नामका संगीत गा रही हैं, अन्तरिक्ष उन्हींके शब्दोंमें अपना शब्द मिलाकर अनाहत नादको प्रकट कर रहा है, अग्नि घूमरहित होकर आहुति ग्रहण कर रही है, सारी पृथ्वीमें मङ्गल मङ्गल है, ब्राह्मण वेदोक गायनमें मस्त हैं, गौओके | सनोंसे स्वयं दूध निकल रहा है, पशु, पक्षी, अणु परमाणु सब कुछ शान्त, प्रसन्न आनन्दित हैं।
और तो क्या, आज स्वयं ब्रह्मा, शिव एवं समस्त देवमण्डल अदितिके मूतिकागृहमें उपस्थित होकर | गर्भमें स्थित अनन्त, अजन्मा, निर्विकार, ज्ञानस्वरूप प्रभुकी स्तुति कर रहा है
'प्रभो! अनन्त, अच्युत! तुम्हीं सारे विश्व ब्रह्माण्डों के अधिपति हो, आश्रय हो। तुम्हारे ही संकल्पसे सृष्टिकी | उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय होते हैं। संसारमें दैवी | सम्पत्तिको स्थापना करके तुम्हीं विश्वको मोक्षकी ओरबढ़ाते हो और स्वयं अपनी ओर खींचते हो। भगवन्! इच्छामात्रसे ही संसारका कल्याण, हमारा उद्धार, आसुरी सम्पत्तियोंका निवारण कर सकनेपर भी तुम भक्तोंके लिये अवतार ग्रहण करते हो कि वे भर आँख तुम्हें निहार-निहारकर देखें और निहाल हों, तथा पीछेसे तुम्हारी लीला गा-गाकर लोग तुम्हारा स्मरण करें और संसार सागरसे पार उतर जायें। प्रभो! हम तुम्हारे चरणोंमें कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं।'
देवतालोग स्तुति करके अपने-अपने धाम गये ही थे कि भगवान् के अवतारका शुभ समय आ पहुँचा। उस समय विजया द्वादशीका अभिजित् मुहुर्त था। सूर्यभगवान् बीचोबीच आकाशमें ठहरकर भगवान्के अवतारकी प्रतीक्षा कर रहे थे। एकाएक अदितिका आश्रम प्रकाशसे भर गया। चारों ओर दिव्य शीतल किरणें फैल गयीं। सहसा अदिति के सामने पीताम्बरधारी, चतुर्भुज, शङ्ख, चक्र, गदा, कमल लिये हुए, मन्द मन्द मुसकराते हुए श्यामसुन्दर भगवान् प्रकट हो गये। उनकी चितवनसे प्रेमकी वर्षा हो रही थी। लाल-लाल ओठोंपर दाँतोंकी सुधा धवल किरणें छिटक रही थीं। वनमालापर गुंजार करते हुए भरें मँडरा रहे थे। नाना प्रकारके चिन्मय आभूषण अपनेको सुशोभित कर रहे थे।
अभी अदिति सँभली भी नहीं थी कि आकाशमें शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग, वीणा आदिके शब्द होने लगे। गन्धर्व गाने लगे, विद्याधरी, अप्सराएँ नाचने लग सिद्ध-चारण स्तुति करने लगे और देवताओंने दिव्य पुष्पोंकी वर्षासे अदितिका आश्रम भर दिया l
अब अदितिने देखा कि स्वयं भगवान् उसके पुत्ररूपसे सामने खड़े हैं। वह विस्मय, आनन्द एवं भगवान्की कृपाका अनुभव करके प्रेमविह्वल वाणीसे स्तुति करने लगी l
'भक्तवत्सल, परम दयालो, प्रभो! मैं अबोध नारी तुम्हारी क्या स्तुति कर सकती हूँ। बड़े-बड़े ऋषि महर्षि, देव सिद्ध, गन्धर्व एवं वेद भी तुम्हारी वास्तविक महिमाका गान करनेमें असमर्थ हैं। नेति नेति करके अन्तमें सभी मौन धारण कर लेते हैं। अबतक तुम्हारी पूरी महिमाका गायन न हो सका, न हो सकेगा। वह अनन्त है, अपार है, अचिन्त्य है जब तुम्हारी वास्तविक महिमाका वर्णन ही नहीं किया जा सकता तब स्तुति या प्रशंसा तो कोई क्या कर सकता है।मुझपर तुमने महान् कृपा की है। मैं जन्म-जन्मकी अपराधिनी हैं। व्रत किया, जप किया, साधना की और उनसे तो क्या तुम्हारी कृपाके बलपर तुम्हें प्रसन्न कर पाया। परंतु नाथ! मेरा अन्तःकरण इतना कलुषित, इतना मलिन था कि तुम्हें पाकर भी पुत्रादि सम्बन्धियोंके बन्धनमें पड़ी रही। जिनसे मोक्ष मिल सकता था, प्रेम प्राप्त हो सकता था और जो स्वयं प्राप्त हो सकते थे, उनसे केवल पुत्रोंके राज्यकी प्रार्थना की। परंतु भगवन् ! तुम कितने दयालु हो, मेरे पापोंकी परवा न करके स्वयं मेरे गर्भसे प्रकट हुए और मेरे लिये दैत्योंको पराजित करने जा रहे हो।'
इतना कहते-कहते अदिति संकोच एवं लज्जासे गड़-सी गयी। भगवान्ने बड़े प्रेमसे उसे आश्वासन देते हुए कहा- 'देवि! संकोच करनेका कोई कारण नहीं है। मेरी इच्छाके बिना कोई काम नहीं होता। यदि जीवमें स्वार्थ, लोभ, भय और अज्ञान न रहे, तो वह संसारमें भटके ही क्यों? वह तो सीधे मेरे पास आ जाय, मेरा स्वरूप हो जाय। परंतु उनका अस्तित्व जिनके अंदर है, वे यदि स्वार्थसिद्धि, लोभपूर्ति, भय निवारण एवं अज्ञान-निवृत्तिके लिये दर-दर न भटकें, संसारमें विषयोंके पीछे मारे-मारे न फिरें, सीधे मुझसें माँगें, मुझसे प्रार्थना करें तो मैं उनकी प्रत्येक उचित इच्छाको पूर्ण करता हूँ। अनुचित इच्छाओंका नाश कर देता हूँ और इच्छाके पूर्ण या नष्ट होनेपर उन्हें अपने पास बुला लेता हूँ।"
'मेरे द्वारा इच्छा पूर्ण होनेपर उसमें किसीपर अन्याय तो हो ही नहीं सकता। सबकी भलाई ही होगी। देखो, मैं तुम्हारी प्रार्थनासे अभी प्रकट हुआ हूँ, इन्द्रको स्वर्गका राज्य मिल जायगा; क्योंकि इस समय उन्हींको इन्द्र होना चाहिये। परंतु बलिकी भी कोई हानि नहीं हो सकती। उन्हें स्वर्गके समान ही स्थान मिलेगा। संसारमें उनकी कीर्ति होगी। उनकी छिपी हुई महिमा प्रकट हो जायगी। अगले मन्वन्तरमें वे इन्द्र होंगे ऐसी स्थितिमें तुम अपने स्वार्थकी बात सोचकर दुःख मत करो। इसके पहले तुम्हारे हृदयमें स्वार्थ था, परंतु अब वह दूर हो गया। उपासना, सत्सङ्ग और मेरे संसर्ग एवं आलापसे तुम्हारा हृदय शुद्ध हो गया है। अब चिन्ता मत करो। प्रसन्नतासे मेरी लीला देखो और आनन्दित हो।' भगवान् बोल ही रहे थे कि उनके आयुध, वस्त्र, आभूषण आदि लुप्त होने लगे और वे वामनके रूपमेंप्रकट हो गये तुरंत ब्रह्मा आदि देवतागण एवं ऋषि महर्षि वहाँ उपस्थित हुए, विधिपूर्वक कर्मकाण्ड कराने लगे। भगवान्के काम आकर सभी अपनेको धन्य मान रहे थे।
ब्रह्मचर्यदीक्षा सम्पन्न हुई। कश्यपने मेखला, बृहस्पति यज्ञोपवीत और सूर्यने गायत्रीकी दीक्षा दी। पृथ्वीने कृष्णमृगचर्म, ओषधियोंके स्वामी चन्द्रमाने दण्ड, माताने कौपीन एवं ओढ़नी, आकाशने छत्र, ब्रह्माने कमण्डलु, सप्तर्षियोंने कुश और सरस्वतीने रुद्राक्षको माला दी। कुबेरने भिक्षा पात्र एवं साक्षात् जगन्माता अन्नपूर्णानि भिक्षा दी। उनके ब्रह्मचर्यकी दीक्षा पूर्ण हुई। वे सबके साथ हवन करने लगे। उस समय उनके मुखमण्डलसे निकलती हुई ज्योतिका नेत्रद्वारा पान करके लोग आनन्दमग्न हो रहे थे।
हवन समाप्त होनेपर जब मालूम हुआ कि बलिके यहाँ यज्ञ हो रहा है, तब उन्होंने सबसे कहकर यज्ञशालाकी ओर प्रस्थान किया।
जिन भगवानकी इच्छासे ही यह जगत् टिका हुआ है और जिनके भ्रूभङ्गमात्र इसका प्रलय हो जाता है, वही भगवान् इस जगत्के एक प्राणीसे भिक्षा माँगनेके लिये भिक्षुक ब्रह्मचारीके वेशमें पाव-पयादे पधार रहे हैं। न संकल्पमात्रसे उसे नष्ट कर सकते और न युद्धमें उसका संहार ही कर सकते। आज तो उसके यहाँ भिक्षा माँगनी होगी और ये उसी वेशमें सजे जा रहे हैं। हम इसे क्या कहें? ऐश्वर्य या माधुर्य ?