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श्री वामन अवतार कथा (वामन अवतार की कहानी)

Vaman Avatar Katha (Vamana Avatar Story)

भाग 6 - Part 6

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श्री वामन अवतार-कथा

यों तो लोभ और भय जीवकी दुर्बलता है और यह भगवत्स्वरूपके अज्ञान एवं उनके प्रेमके अभाव में ही पनपती और फलती-फूलती है। परंतु यदि इसका सदुपयोग किया जाय तो इसी दुर्बलताके द्वारा जीव अपना परम कल्याण साधन कर सकता है। पापोंसे भय, नरकका भय, मृत्युका भय, भगवान्‌का भय, स्वर्गका लोभ, वैकुण्ठका लोभ, परमानन्दका लोभ, मोक्षका लोभ एवं भगवत्प्रेमका लोभ-ये सब-के साधनामें लगाकर जीवको परम गति, परम कल्याणकी - सब ओर ले जाते हैं। इसीसे शास्त्रोंमें भी इनके लिये पर्याप्त स्थान है और बहुत-सी बातें रोचक एवं भयानक ढंगसे कही गयी हैं । परंतु इनसे जीव जगत्का महान् लाभ है, अतः इन्हें यथार्थके रूपमें मानना ही सर्वोत्तम है। अब बलिके अन्तःकरणकी दूसरी ही दशा है।सम्पत्ति, पद, बल, मान, मर्यादा आदिके नाशकी आशङ्का तथा विश्वाससे उनके अभिमान, मद नष्ट हो गये हैं। यह सब मेरा है, मैं इनका स्वामी हूँ, इस प्रकारकी ममता तथा अज्ञान लापता हो गये हैं। यह सब भगवान्का है, सारे जगत्का है, न जाने कब किस रूपमें वे आ जायँ कहीं प्रमादवश उनका अपमान न हो जाय इस प्रकारके भाव उनके हृदयमें उठा करते हैं। बड़े-बड़े यज्ञ, दान आदि भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही करते करते ही रहते हैं कहीं भगवान् प्रसन्न 1 हो जायँ आ जायें, तब तो क्या पूछना है। इस प्रकारके भाव उनके हृदयमें उठा करते हैं।

बलिमें जो एकाएक इतना परिवर्तन हो गया, इसका कारण उनकी अपने दादाजी भक्तराज प्रह्लादपर श्रद्धा ही थी कुछ न हो, केवल पूर्वपुरुषोंपर श्रद्धा हो, संतोंका विश्वास हो तो सब कुछ हो सकता है। बलिमें यह बात थी और पूर्णरूपसे थी। अतः वे बलि, जिनके अभिमानकी सीमा न थी, जो भगवानको भी अपने सैनिकोंसे निर्बल बताते थे, आज इस प्रकार पानी-पानी हो गये हैं।

नर्मदाके पवित्र तटपर एक भृगुकच्छ नामका स्थान है आज वहाँ अपने पुरोहित भृगुवंशी शुक्राचार्यक निरीक्षण में बलिने एक महान् यज्ञका आयोजन किया है। होता, ऋत्विज, ब्रह्मा आदि यज्ञके अपने-अपने काममें लगे हैं। बलि अपनी धर्मपत्नी विन्ध्यावलीके साथ ब्राह्मणोंके आदेशानुसार काम कर रहे है। सम्पूर्ण यज्ञशाला चरु, पुरोडाश आदि यज्ञीय सामग्रियोंसे भरी हुई है। कहीं दरिद्रोंको अन्न बाँटा जा रहा है, कहीं भोजन कराया जा रहा है, कहीं बहुमूल्य वस्त्र दिये जा रहे हैं। बड़ा कोलाहल है, बड़ा उत्साह है, बड़ी स्फूर्ति है।

कई दैत्योंके मनमें बड़ी आशङ्का है कि दैत्यराज बलि यह सब क्या कर रहे हैं। इतने खुले हाथसे यह सारी सम्पत्ति क्यों लुटा रहे हैं? त्रिलोकीके स्वामी तो हैं ही, अब और क्या चाहते हैं? जिनके मनमें भगवान्की प्रसन्नता या निष्कामभावकी कल्पना तक नहीं हो सकती, ऐसे लोग भी संसारमें बहुत से रहते हैं।

ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि, लोगोंकी जय-जय ध्वनिके बीच बलिको सूचना मिली कि एक बड़े तेजस्वी वामन: ब्रह्मचारी आ रहे हैं। उनके तेज और प्रभावको बातसुनकर बलिने सोचा कि सम्भव है भगवान् ही आते हों परंतु वे तो इन्द्रके सहायक हैं न? तो क्या वे मुझे मारकर इन्द्रको राज्य देंगे। हाँ, भगवान् यदि अपने हाथों मारें भी तो हमारा कल्याण ही होगा। उनके हाथों किसीकी हानि तो हो ही नहीं सकती। दादाजीने ऐसा ही कहा था। पर यह क्या निश्चय है कि वही हैं। वे न हों, तो भी हमें सावधान रहना चाहिये। न जाने वे किस वेशमें आ जायें।

दूरसे ही उनके ज्योतिर्मय मुखमण्डलको देखकर यज्ञके सब सदस्य प्रभावित हो गये। सबने आगे जाकर उनका स्वागत किया और यज्ञशालामें ले आकर उन्हें सर्वोच्च आसनपर बैठाया। बलि और विन्ध्यावलीने अपने हाथों उनके चरण धोकर चरणामृत लिया एवं विधिपूर्वक उनकी पूजा को उस समय वामनभगवान्की छवि बड़ी भली लगती थी।

प्रकाशमान मुखमण्डल, सिरपर बिखरी हुई जटाएँ, कंधेपर पीला वस्त्र, गलेमें यज्ञोपवीत, बगलमें मृगचर्म, कमरमें मूँजकी मेखला और पास ही रखे हुए छत्र एवं सजल कमण्डलु शोभा पा रहे थे। पूजा हो जानेके पश्चात् बलिने प्रार्थना की-द्विजराज, ब्रह्मचारिन्। आपके शुभागमनसे हमारी यज्ञभूमि पवित्र हो गयी। आज मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है, मानो ब्रह्मर्षियोंकी तपस्या ही मूर्तिमान् होकर आयी है। आपके तेज, आपके प्रभावसे मेरे पितर तृप्त हो गये, मेरा कुल पवित्र हो गया। आपके शुभागमनसे, आपको चरणधूलिसे मेरा गृह पवित्र हो गया। आपके चरणामृतसे मेरे पाप धुल गये। मैं पवित्र हो गया। ब्राह्मणदेवता! आप प्रसन्न होकर मेरी कुछ सेवा स्वीकार करें। आपको जिस वस्तुकी आवस्यकता हो, धन, भूमि, गौ, हाथी, घोड़े, कन्या आदि निःसंकोच मुझसे माँग सकते हैं। आवश्यकता न हो तो भी मुझपर कृपा करके इस सेवकको कृतार्थ करनेके लिये ही कुछ स्वीकार करें। ब्राह्मणकुमार! आप इस यज्ञके समय अवश्य कुछ-न-कुछ ग्रहण करें। मैं आपके चरणोंमें कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ।'

बलिकी इस धर्मानुकूल, उदारतायुक्त और मधुर प्रार्थनाको सुनकर वामनभगवान् बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बलिका अभिनन्दन करते हुए कहा कि 'दैत्येन्द्र ! तुम्हारी बात सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। तुम्हारे गुरुजन भृगुवंशी और विशेषकर शुक्राचार्य धन्य हैं, जिनके सङ्ग और शिक्षासे तुम्हें ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है। तुम्हारे वंशमें यह कोई नयी बात नहीं है। तुम्हारे वंशमें अबतक कोई ऐसा नहीं हुआ है जो शक्तिहीन हो, सूम हो अथवा किसीको कुछ देनेका वचन देकर फिर अस्वीकार कर गया हो। तुम्हारे पूर्वजों में हिरण्याक्ष इतना बड़ा वीर था कि यद्यपि विष्णुने किसी प्रकार जीत लिया पर वे अपनेको विजयी नहीं मानते। समय समयपर उसके बल पौरुषका स्मरण किया करते हैं।' और तो क्या कहूँ दानवेन्द्र हिरण्यकशिपु जब अपने भाईका बदला लेनेके लिये विष्णुको ढूँढ़ने गया, तब मानो उन्हें कहीं छिपनेको जगह न मिली तो उसीके हृदयमें घुसकर छिप गये तुम्हारे दादा प्रह्लादकी महिमासे तो आज त्रिलोकी ही भरी हुई है जो कि अब भी सारे संसारके उद्धारके लिये निरन्तर चिन्तित रहते हैं और तुम्हारे पिता जैसा उदार, दाता और ब्राह्मणभक्त तो संसारमें विरला ही हुआ होगा; क्योंकि जब देवता छलसे ब्राह्मणवेश बनाकर उसके पास आयु माँगने आये, तब उसने जानकर अपनी सम्पूर्ण आयु दान कर दी तुमने अपनी उदारतापूर्वजों की कीर्ति रख ली। आज सारे संसार तुम्हारी कीर्ति छायी हुई है। मैं तुमसे अधिक कुछ नहीं चाहता। केवल मेरे पगोंसे तीन पग भूमि मुझे दे दो मुझे इससे अधिककी आवश्यकता नहीं है। अधिक परिग्रहसे पापभागी होना पड़ता है।'

वामनकी बात सुनकर बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा—'ब्राह्मणकुमार! यद्यपि तुम्हारी बातें तो वृद्धोंकी सी हैं परंतु अभी बालक ही हो न ? इसीसे मुझसे केवल तीन पग भूमि माँग रहे हो। तुम्हें जितना चाहिये अधिक-से-अधिक ले लो। मैं द्वीप के द्वीप दे सकता हूँ। मुझसे माँगकर फिर किसीसे भागना नहीं पड़ता।" वामनने कुछ गम्भीरतासे कहा-'दैत्येन्द्र! संसारके विषयोंके भोगसे अबतक न किसीको तृप्ति हुई है, न होगी। जैसे अग्रिमें जितना घी डाला जाय, उतनी ही वह बढ़ती है, वैसे ही वासनाओंको जितना बढ़ाया जाय, उतनी ही अधिक उनकी वृद्धि होती है। यदि मैं तीन पग भूमिसे संतुष्ट न रहूँ तो एक द्वीप मिलनेपर भी संतोषकी आशा नहीं है। सुख संतोषमें है, परिग्रहमें नहीं। अनेकों राजा सातों द्वीपोंके स्वामी हुए हैं, क्या वे सर्वदा सुखी रहे हैं, क्या उनकी तृष्णा नष्ट हो गयी है? संसारके दुःखोंका कारण असंतोष है। जो संतुष्ट हैं, उन्हें कहीं दुःख नहीं है। विशेष करके हम ब्राह्मणोंकेलिये संतोष ही सर्वोत्तम वस्तु है। इसलिये मैं प्रयोजनसे अधिक नहीं चाहता। आप मुझे केवल तीन पग पृथ्वीका दान करें।'

ब्राह्मणके ज्ञान, संतोष, तेज एवं शान्ति आदि सद्गुणोंको देखकर बलि आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने कहा- 'ब्राह्मणकुमार! तुम्हारी जितनी इच्छा हो, उतना ही लो। मैं तुम्हारी प्रसन्नतासे ही प्रसन्न हूँ।' बलिने संकल्प करनेके लिये जलपात्र उठाया।

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