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श्री वामन अवतार कथा (वामन अवतार की कहानी)

Vaman Avatar Katha (Vamana Avatar Story)

भाग 7 - Part 7

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श्री वामन अवतार-कथा

जब मनुष्यको अपनी विद्या-बुद्धिका अभिमान हो जाता है तब कभी-कभी वह ऐसा सोचने लगता है कि 'मैं भगवान् से अलग रहकर भी सुखी हो सकता हूँ।' उसके अन्तःकरणके किसी कोनेमें ऐसा भाव भी आ जाता है कि 'एक बार अवसर पड़नेपर भगवान्‌को भी छका सकता हूँ और अपनी चतुरतासे भगवान्की इच्छाके विपरीत भी काम बना सकता हूँ।' यह कोरा अज्ञान है, परंतु बड़े-बड़े कहे जानेवाले लोगोंमें भी यह पाया जाता है यहाँतक देखा गया है कि बाहरसे भगवान्की दुहाई देनेवालोंके चित्तमें भी यह भाव स्थित रहता है और कई बार तो उन्हें स्वयं इस बातका पता भी नहीं होता।

शुक्राचार्यको विद्या, बुद्धि, नीति, सब एक-से-एक बढ़कर थे। उनकी मृतसंजीवनी विद्या देवगुरु बृहस्पतिको भी नहीं मालूम थी। उनकी सम्मतिके बलपर बलिने त्रिलोकीका राज्य प्राप्त किया था और उनकी नीति शुक्रनीतिके रूपमें आज भी महान् आदर पा रही है। परंतु वे भी जगत्की सम्पत्तिको बड़ा महत्त्व देते थे। विषयोंमें उन्हें सुख दीखता था, भगवान्‌के आनन्दका अनुभव नहीं था। केवल विद्यासे ही उस आनन्दका अनुभव नहीं होता ।

दैत्येन्द्र बलि अनजानमें एक तेजस्वी ब्रह्मचारी समझकर वामनकी अभिलाषा पूरी करनेके लिये संकल्प करने जा रहे हैं और शुक्र जान-बूझकर कि "ये भगवान् हैं, कहीं मेरे यजमानकी सारी सम्पत्ति छिन न जाय' इस भयसे बलिको मना करने जा रहे हैं। उन्हें भगवान्की अपेक्षा बलिकी सम्पत्तियोंका अधिक मूल्य दीखता है। अब यहाँ क्या निर्णय किया जाय कि शुक्रका ज्ञान अच्छा है या बलिका अज्ञान ? शुक्राचार्यने कहा- 'दैत्येन्द्र ! यह कोई साधारणब्रह्मचारी नहीं हैं। ये कश्यप-अदितिसे अवतार ग्रहण करके देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये स्वयं विष्णु हो आये हुए हैं। इन्हें तीन पग भूमि देने की बात करके तुमने अच्छा नहीं किया। ये दो पगमें ही सम्पूर्ण पृथ्वी और स्वर्ग नाप लेंगे तथा अपने बड़े शरीरसे सारा आकाश ले लेंगे, तुम तीसरा पग कहाँसे पूरा करोगे। ये तुम्हारा राज्य छीनकर इन्द्रको देनेके लिये आये हैं, यदि सब तुम इन्हें दे दोगे तो तुम्हारे शत्रु सुखी हो जायेंगे और तुम्हारे बन्धु बान्धव तथा स्वयं तुम राहके भिखारी बन जाओगे। दानकी भी एक नीति है। दान ऐसा होना चाहिये, जिससे सर्वदा दान देनेकी परम्परा चलती रहे। आज दान देकर कल भूखों मरना ठीक नहीं तुम्हें झूठी प्रतिज्ञाका दोष न लगेगा अस्वीकार कर दो।'

शुक्राचार्यकी बात सुनकर बालिके हृदयकी अद्भुत दशा हो गयी। अभीतक वे साधारण ब्राह्मण समझ रहे थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो वही भगवान् है जिनकी प्रतीक्षा करते-करते मेरे एक-एक दिन युग युगकी भाँति बीतते हैं, तब उनकी प्रसन्नताको सीमान रही। वे खिल उठे, वे सोचने लगे कि जिनके संकल्पमात्रसे सारी सृष्टिका प्रलय हो सकता है, वे ही प्रभु आज मेरे द्वारपर भिखारीके रूपमें आये हैं। उनका हृदय गद्गद हो गया। वे बड़ा जोर लगाकर अपनी आँखों आँसू रोके हुए थे। उनका चित्त भगवान्को भक्तवत्सलता, दयालुता आदिमें तन्मय होता जाता था। 'जिनका सब कुछ है, वे याचक हैं और जिसका कुछ नहीं है वह दाता बना हुआ है'- यह अहङ्कारके कारण बनी हुई परिस्थिति और उसका दुष्परिणाम है। परंतु भगवान् कितने दयालु हैं। वे भिखारी बनकर भी हमें कल्याण मार्गपर चलाते हैं।

उन्होंने शुक्राचार्यसे कहा- 'भगवन्! आप अपनी समझसे मेरे कल्याणकी ही बात कह रहे हैं। आप मेरे हितैषी हैं। परंतु जो बात मैं कह चुका हूँ उसे छोड़ना ठीक नहीं जँचता । मैं नरकसे, मृत्युसे और किसी भी सांसारिक यन्त्रणासे नहीं डरता, परंतु झूठसे बहुत डरता। हूँ। किसी साधारण मनुष्यसे भी कोई प्रतिज्ञा करके मैं उसे नहीं तोड़ सकता तो साक्षात् भगवान् ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता हूँ जिन्हें पत्र, पुष्प आदि देनेसे जीवका कल्याण साधन होता है, उन्हें त्रिलोकीकादान करके मैं दुखी हो जाऊँगा, यह बात समझमें नहीं आती। वह इन्द्रको देना चाहते हैं-दे दें। मैं तो उनकी वस्तु उन्हें देना चाहता हूँ।'

शुक्राचार्यको ऐसा जान पड़ा कि बलि मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन कर रहे हैं, मेरा अपमान कर रहे हैं। सम्मानकी कामनामें ठेस लगते ही क्रोध आ गया और क्रोध तो मनुष्यको अंधा बना ही देता है। शुक्राचार्यने शाप दे दिया- 'शीघ्र ही तुम्हारी सम्पत्ति नष्ट हो जाय।'

इस समय शापसे उन्हें तनिक भी चिन्ता या घबराहट नहीं हुई। उन्हें इस सम्पत्तिके बदले स्वयं भगवान् मिल रहे थे। विन्ध्यावलीने सोनेकी झारीसे जल दिया, बलिने अपने हाथों भगवान्‌के चरण धोये, चन्दन लगाया, माला पहनायी और संकल्प लेनेके लिये जल उठाया।

सुनते हैं-फिर शुक्राचार्यने अपना शरीर सूक्ष्म बनाकर झारीमें प्रवेश किया और जल गिरनेका रास्ता रोक दिया। भगवान्ने एक कुश उठाकर उसके छेदमें डाला, शुक्राचार्यकी एक आँख फूट गयी। तबसे वे काने हो गये। दानमें विघ्न करनेका अच्छा फल मिला।

बलिके संकल्पके लिये जल ग्रहण करते ही संसारके सभी प्राणी आश्चर्यचकित हो गये। इतना त्याग, इतना सत्यप्रेम और इतनी भगवन्निष्ठा कि यह जानते हुए भी कि सारी वस्तु हमारे को मिलेंगी, जिलोकोका राज्य दान कर रहे हैं। बलिके अभिनन्दनमें देवताओंके नगारे बज पड़े, गन्धर्व गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं, विद्याधर पुष्पवर्षा करते हुए स्तुति करने लगे ।

इधर वामनभगवान्ने दूसरी ही लोला रची। अब उनका नन्हा सा बवना शरीर रहा। उन्होंने अपना विराट् रूप प्रकट कर दिया। वास्तवमें भगवान्के विराट्रूप-दर्शनका यही समय है जब जीव संसारकी समस्त वस्तुओंपरसे अपनी ममता हटा लेता है, तब सभी वस्तुएँ भगवान्की हो जाती हैं और उन रूपों में स्वयं भगवान् हो जाते हैं।

उस समय बलिने देखा कि सम्पूर्ण संसार, जीव, संस्कार, अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीर तथा जो कुछ त्रिगुणमय है सब भगवान्‌के शरीरमें है चरणोंमें पृथ्वी, तलवेमें रसातल, जंघों में पर्वत, नाभिमें अन्तरिक्ष, कोखोंमें सातों समुद्र, छातीपर ताराओंकी माला, बाहुओं में इन्द्रादि देवता, कानोंमें दिशाएँ, बालोंमें बादल श्वासमेंवायु, आँखोंमें सूर्य और उनके शरीर में सम्पूर्ण विश्वकी सभी वस्तुएँ पृथक् पृथक् दीख पड़ीं। उस समय भगवानके सारे आयुध, समस्त पार्षद उपस्थित हो गये।

संकल्प पूर्ण होते ही भगवान्ने एक पगसे सारी पृथ्वी, शरीरसे आकाश एवं बाहुओंसे सारी दिशाएँ ले लीं। दूसरे पगसे स्वर्ग नाप लिया। भगवान्‌का दूसरा पग स्वर्गमें होकर महर्लोक, जनलोक एवं तपोलोकमें होता हुआ ब्रह्मलोकमें पहुँचा। उन लोकोंके रहनेवाले सिद्धोंने विधिपूर्वक पूजा की।

ब्रह्माने देखा कि उनका लोक भगवान्के नखमण्डलकी दिव्य चमकसे चमक उठा। वे सम्भ्रमके साथ उठ खड़े हुए और बड़े प्रेमसे अपने कमण्डलुके जलसे उन्होंने भगवान्के चरणकमल पखारे उस समय वहाँके निवासी मरीचि आदि प्रजापति, सनकादि सिद्ध तथा समस्त वेद-उपवेदोंने भगवान्‌की पूजा को तथा गद्गद कण्ठसे प्रार्थना की। ब्रह्माके कमण्डलुका जल ही कालान्तरमें गङ्गाके रूपमें अवतीर्ण हुआ, जिसकी परम पावन तीन धाराओंसे त्रिलोकी पवित्र होती है।

एक ओर ब्रह्मा आदि गन्ध, धूप, दीप आदिसे पोडषोपचार पूजा कर रहे थे। आरति, नृत्य, गीत, नाम कीर्तन, शङ्ख-नगारादि बाजे तथा स्तुतियोंसे भगवान्की आराधना करके अपने जीवनको सफल कर रहे थे। दूसरी ओर ऋक्षराज जाम्बवान् मनकी भाँति तीव्र गति से दौड़कर भगवान्की प्रदक्षिणा कर रहे थे और भेरी बजा-बजाकर चारों ओर देवताओंकी विजय, भगवान्‌की कृपा और परमानन्दकी घोषणा कर रहे थे।

दैत्योंने देखा कि हमारे स्वामी तो इस समय यज्ञकी दीक्षा लिये हुए हैं, शस्त्र उठा नहीं सकते और ये उन्हें धोखा देकर सारा राज्य ले लेना चाहते हैं। वे अपने अपने शस्त्र उठाकर टूट पड़े। भगवान्‌के पार्षद नन्द, सुनन्द आदिने हँसते-हँसते उन्हें मार भगाया। यह सब देखकर बलिने उन्हें समझाया कि 'भैया! जब भगवान् अनुकूल रहते हैं, तभी विजय प्राप्त होती है। इस समय वे देवताओंके अनुकूल हैं तुम्हारी एक न चलेगी। यद्यपि वे सदा सवपर अनुकूल ही रहते हैं, परंतु उनकी लीलाका रहस्य सहसा समझमें नहीं आता। यह तुम्हारी विजयका समय नहीं है, भगवान्की लीला देखो और प्रसन्न रहो।'

बलिकी बात दैत्योंकी समझमें नहीं आयी। परंतुवे अपना अवसर न देखकर पातालमें चले गये। अभी तीसरा पग देना बाकी ही था l

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