भगवान् सर्वत्र हैं, सर्वशक्तिमान् हैं और परम दयालु हैं। वे सब कुछ जानते हैं, सब कुछ कर सकते हैं और किसीको दुखी देख नहीं सकते। इन तीन बातोंपर जिनका विश्वास हो गया है, वे भयंकर से.. भयंकर परिस्थितिमें भी भयभीत नहीं होते, दुखी नहीं होते। सर्वत्र भगवान् किसीकी परीक्षा नहीं लेते, उनकी परीक्षामें कोई फेल नहीं होता-सब पास ही होते हैं, परंतु विश्वासकी कमी और अपनी दुर्बलता ही उन्हें दुखी बना देती है। ऐसी परिस्थितिमें भी अपने भक्तोंको सुखी दिखलाकर भगवान् जगत्के सामने उनकी महिमा प्रकट करते हैं और एक महान् आदर्श उपस्थित कर देते हैं।
भगवान्ने तीसरे पगके लिये बलिको डाँटा । भगवान्की इच्छा समझकर गरुडने उन्हें वारुणपाशसे बाँध दिया। भगवान्की लीलाका रहस्य न समझनेवालों में हाहाकार मच गया। एक क्षणके लिये सभी स्तब्ध हो गये। भगवान् ने कहा-' दैत्यराज ! तुमने बड़ी डींग मारी थी कि मैं यह दूँगा, वह दूँगा। अब तीन पग जमीन नहीं दे सकते एक पगमें सारी पृथ्वी, दूसरे में स्वर्ग और शरीरसे आकाश तथा बाहुओंसे दिशाएँ ले ली। अब तीसरे पगके लिये स्थान बताओ। यदि प्रतिज्ञा करके नहीं दे सकोगे तो तुम्हें नरकमें जाना पड़ेगा। प्रतिज्ञा करके न देनेवालेकी यही गति होती है।'
भगवान्की यह कड़वी बात सुनकर भी बलिको किंचित् क्षोभ नहीं हुआ। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता एवं गम्भीरतासे कहा- 'भगवन्। आप परम दयालु हैं। मैं धनके मदमें अंधा होकर अपनेको उसका स्वामी मानता था और दानके समय मैं बड़ा उदार दाता हूँ, ऐसा अभिमान करता था, परंतु आपने मेरा घमंड तोड़ दिया। न मेरा कुछ है, न मैं दाता कर्ता हूँ। सब आपकी लीला है, आप ही करते-कराते हैं। यही समझकर हमारे दादा प्रह्लादने आपके चरणोंकी शरण ली थी। भगवन्! यह तीसरा पग पूरा न करके आपने मुझपर बड़ी दया की है। आप इसके बदले मुझे ही ले लीजिये। प्रभो! अब आप अपना चरण मेरे सिरपर रखें और मेरे अन्तःकरण-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथाआत्माको अपना बना लें। यह सब तो आपके हैं ही, केवल अज्ञानके कारण मैं भूला हुआ था। भगवन्! अब ऐसी कृपा करें कि यह भूल कभी न हो।'
अभी बलि बोल ही रहे थे कि भगतों विभोर विह्वल होकर मधुर स्वरसे भगवन्नामका उच्चारण करते हुए भक्तराज प्रह्लाद वहाँ उपस्थित हुए। बलि उन्हें देखकर चुप हो गये। उनका सिर झुक गया और आँखों में आँसू आ गये। वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये कि जिनके आनेपर में विधिपूर्वक पूजा करता था, आज उनका चरण स्पर्श करके प्रणाम भी नहीं कर सकता।
भगवान्को देखकर प्रह्लादकी आँखोंसे आनन्दके आँसू बहने लगे, शरीरमें रोमा हो गया। भगवान्के चरणोंमें वे साष्टाङ्ग लोट गये। थोड़ी देर बाद उठे और अञ्जलि बाँधकर रुंधे कण्ठसे बोलने लगे।
'प्रभो! तुमने बड़ा ही अच्छा किया। तुम्हींने इसे इन्द्र पद दिया और तुम्हींने ले लिया। वह तुम्हारा ही है। उसे जो अपना मानकर गर्व करता है, उसके हाथमें वह रह नहीं सकता। इसे बड़ा घमंड था। यह तुम्हारे भजनसे विमुख हो गया था धनमदसे बड़े बड़े लोग मोहित हो जाते हैं। यह तो अभी बच्चा है। तुम्हारा प्रत्येक विधान न्याय तथा करुणासे परिपूर्ण हैं। मैं तुम्हें कोटि-कोटि नमस्कार करता हूँ।'
विन्ध्यावलीने आकर पूजा की। नीचे मुख करके हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। भगवान् उसकी श्रद्धा, भक्ति, पातिव्रत्यको देख-देखकर प्रसन्न हो रहे थे।
ब्रह्माने भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की
"भगवन्! अब आपने इसका सर्वस्व ले लिया। अब इसे छोड़ दीजिये, छोड़ दीजिये। जिसके चरणों में जल चढ़ाकर तथा दूब आदिसे पूजा करके लोग बन्धनमुक्त हो जाते हैं, उन्हीं चरणोंमें अपना सर्वस्व समर्पित करके बलि बन्धनमें पड़े, यह अच्छा नहीं लगता।'
भगवान्ने कहा—'ब्रह्मन् ! अनेक योनियोंमें भटकनेके बाद इस शरीर की प्राप्ति होती है। केवल इसीमें अपने कल्याणका साधन किया जा सकता है और कहीं नहीं। इसमें भी आकर लोग अपनी कुलीनता, पदमर्यादा, बल, सुन्दरता और सम्पत्ति आदिमें फँस जाते हैं, उन्हें अपना मानकर गर्वसे फूल जाते हैं, अपने जीवनकाउद्देश्य भूल जाते हैं। परमार्थसे प्रेम न कर विषयोंमें प्रेम करने लग जाते हैं। ऐसी स्थितिमें यही एक उपाय है कि उन वस्तुओंको उनसे छीन लिया जाय। यही मेरा परम अनुग्रह है। मैं जिसपर दया करता हूँ उसकी सम्पति छीन लेता हूँ।'
'मैं केवल सम्पत्ति छीन ही लेता हूँ, देता नहीं हूँ, सो बात नहीं है। जब अभिमान नष्ट हो जाता है, वास्तविक तत्त्वकी उपलब्धि हो जाती है, तब मैं अपनी इच्छाके अनुसार त्रिलोकीका शासन भी कराता हूँ। परंतु अभिमान मुझे पसंद नहीं, दानवेन्द्र बलि तो मेरे परम भक्त हैं, प्रह्लादके पौत्र हैं। इनका धन छीन लिया, डाँटा, बाँधा और नरकमें भेजनेकी बात कही, फिर भी इनके मनमें क्षोभ नहीं बन्धु बान्धवोंने छोड़ दिया, गुरुजनोंने शापतक दे दिया, परंतु ये सत्यसे विचलित नहीं हुए। इनका विश्वास नहीं डिगा । इन्हें अब मैं ऐसा स्थान देता हूँ जो देवताओंको भी दुर्लभ है। ये सावर्णि मन्वन्तरमें इन्द्र होंगे। तबतक सुतल लोकमें रहें। उस विश्वकर्माके बनाये हुए लोकमें आधि-व्याधि, क्लेश, पराजय आदि नहीं होते और मेरी दृष्टिके प्रभावसे कोई विप्र-वा दुःख नहीं पहुंचा सकती। समय आनेपर ये इन्द्र होंगे और मैं इनकी रक्षा करूँगा।'
बलिकी ओर दृष्टि करके भगवान्ने कहा 'दैत्यराज ! अब तुम सुतल लोकमें जाओ। बड़ा ही सुन्दर लोक है, देवतालोग भी उसे चाहते रहते हैं। तुम्हें कोई दवा न सकेगा। जो तुम्हारी आज्ञा न मानेगा, मेरा चक्र उसका सिर काट डालेगा। मैं सर्वदा तुम्हारी रक्षामें तत्पर रहूँगा। तुम सर्वदा मेरा दर्शन प्राप्त कर सकोगे। मैं हाथमें गदा लेकर तुम्हारा द्वारपाल बना रहूँगा। बलि! तुमने मुझे बाँध लिया। जो मेरे हाथ बँध गया, मैं उसके हाथ बँध गया। मैं तुम्हारा हूँ।"
भगवान् के मुखसे ये शब्द निकल रहे थे और सबकी आँखोंसे आँसू सभी भगवान्की कृपालुता देखकर चकित थे। अबतक बलिका बन्धन खुल चुका था। उनका सिर था भगवान्के चरणोंके नीचे और भगवान् के हाथ उन्हें बलात् उठाकर छातीसे लगा रहे थे।
सावधान होकर बलिने भगवान्से कुछ कहनेकी चेष्टा की किंतु उनका गला रुँध गया, वाणी न निकली, शरीर पुलकित हो गया। थे एकटक भगवान्कामुखमण्डल देखना चाहते थे, पर अश्रुधाराके वेगसे उनकी आँखें भरी हुई थीं, देख न पाते थे। अन्तमें भगवान्की आज्ञा शिरोधार्य करके उन्होंने सपरिवार सुतल लोककी यात्रा को देखा तो एक ओर शिव इन्द्रादि देवता भगवान्की यह लीला देख-देखकर निहाल हो रहे हैं। सबको प्रणाम करके जब बलि चले गये तब भगवान्ने शुक्राचार्य से कहा
'अब इस यज्ञकी पूर्णाहुति कर दो, जिससे विधिभंग न हो, यजमानका कल्याण हो।' शक्राचार्यने कहा- 'भगवन्! जिस यज्ञमें आप स्वयं उपस्थित हैं, वहाँ विधिभंग कैसा? मन्त्र, तन्त्र, काल, देश एवं वस्तुसे जब यज्ञकी पूर्णता नहीं होती, किसी प्रकारकी त्रुटि रह जाती है, तब आपके नामोंका संकीर्तन करके उसे पूर्ण किया जाता है। इस यज्ञमें तो आप स्वयं उपस्थित हैं। यहाँ त्रुटि कैसी ? परंतु आपकी आज्ञा का पालन करना ही जीवोंका एकान्त कर्तव्य है। आपकी आज्ञा सर्वथा शिरोधार्य है-कहकर शुक्राचार्यने यज्ञकी पूर्णाहुति की।'
अब प्रह्लादने भगवान्के चरणोंका स्पर्श करते हुए कहा- 'भगवन्! ऐसी कृपा आपने अबतक किसीपर नहीं की है। ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मी और योगेश्वरोंपर भी ऐसी कृपा नहीं हुई है कि आप उनके द्वारपाल हों। प्रभो! आपमें विषमता नहीं है। सबको एक ही दृष्टिसे देखते हैं। यदि आपमें नीच ऊँचका भेद होता तो आप हम असुरोंके द्वारपाल कैसे होते? प्रभो! हममें कोई योग्यता नहीं है, हमारा कुछ अधिकार नहीं है। यह सब आपकी कृपा है। मैं आपके चरणोंमें अनन्त प्रणाम करता हूँ।'
प्रणाम करते हुए प्रह्लादसे भगवान्ने कहा- 'प्रह्लाद ! अब तुम भी सुतल लोकमें जाओ! बलिके साथ मेरा स्मरण करते हुए प्रसन्नतासे रहो तुम वहाँ नित्य मेरा दर्शन पाते रहोगे। तुम्हारे और बलिके सत्संगसे वहाँके दैत्योंका आसुर भाव छूट जायगा। उनमें देवभाव आ जायगा। संसारके जिस यज्ञमें विधिभंग हो जायगा, उसका फल सुतलमें रहनेवालोंको प्राप्त होगा।'
भगवान्की आज्ञासे प्रह्लाद चले गये अबतक भगवान् अपने पहले वामन रूपमें हो गये थे। इधर इन्द्रने बड़ी तैयारी की। देवता, ऋषि, मुनिऔर योगेश्वरोंके साथ भगवान्को विमानपर चढ़ाकर स्वर्ग ले गये। वहाँ भगवान्ने इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाकर सबके साथ विधिपूर्वक राज्याभिषेक किया और इन्द्रका राज्य उन्हें सौंप दिया।
ब्रह्माकी अनुमतिसे सबने मिलकर उपेन्द्रपदपर वामन भगवान्का अभिषेक किया और अपनी प्रसन्नता तथा संतोषके लिये वेद, धर्म, मङ्गल, व्रत एवं मोक्ष आदिका स्वामी उन्हें बनाया। कश्यप, अदिति, सनत्कुमार, नारदादिने स्वयं अपने हाथों तिलक किया। सर्वत्र आनन्द, मङ्गल, प्रेम, ज्ञानका साम्राज्य हो गया। भगवान् एक रूपसे इन्द्रके पास रहने लगे और एक रूपसे बलिके पास आज भी वे दोनोंके पास रहते हैं।
हाँ, तो भगवान्की लीला बड़ी रसमयी है। वे अजन्मा होनेपर भी इसीलिये जन्म लेते हैं, अकर्मा होनेपर भी इसीलिये कर्म करते हैं। अव्यक्त होनेपर भी इसीलिये व्यक्त होते हैं। वे स्वयं रसरूप होनेपर भी अपनी लीलासे विशेष रसका आस्वादन करते हैं। भगवान के जिस दिव्य जन्म एवं दिव्य लीलाका रसास्वादन करनेके लिये ज्ञानीलोग स्वरूप-सुखका त्याग कर देते हैं और सर्वदा उसीमें मस्त रहते हैं, उसके सम्बन्धमें यदि हम बार-बार कहें कि भगवान्की लीला बड़ी रसमयी है तो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है।
अन्य अवतारोंकी भाँति भगवान् वामनकी उपासनाके भी बहुत से मन्त्र हैं। उनमेंसे यहाँ केवल एक मन्त्र दिया जाता है- 'ॐ नमो विष्णवे सुरपतये महाबलाय स्वाहा।' इस मन्त्रके ऋषि इन्द्र हैं, विराट् छन्द है और देवता स्वयं वामनभगवान् हैं। इसका ध्यान इस प्रकार कहा गया है
ज्वलन्मयूखकनकच्छत्राधः पुण्डरीकगम् l
पूर्णचन्द्रनिभं ध्यायेच्छ्रीभूम्याश्लिष्टपार्श्वकम् ॥
चमकते हुए स्वर्णमय छत्रके नीचे पूर्ण चन्द्रमाके समान प्रकाशमान भगवान् वामन बड़े ही सुन्दर कमलपर विराजमान हैं, लक्ष्मी और पृथ्वी बगलमें खड़ी होकर उनकी सेवा कर रही हैं। जो साधक इस प्रकार भगवान् वामनका ध्यान करके विधिपूर्वक मन्त्रका जप करता है, उसकी सब अभिलाषाएँ पूर्ण होती है।
॥ बोलो श्रीवामनभगवान्की जय ॥