भगवान्की महिमा अनन्त है, उनका स्वरूप अनिर्वचनीय है। निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार सब। उन्हींका स्वरूप है। फिर भी वे इतनेके ही अंदर बँधे नहीं हैं। बुद्धि जितना सोच सकती है, जितना आकलन कर सकती है और जितना बड़ा काल्पनिक मानचित्र बना सकती है, उसके भी परे, बहुत परे भगवान् विराजमान हैं। मन वहाँ पहुँच नहीं सकता, वाणी उनका वर्णन नहीं कर सकती। सारांश यह कि हमारे पास देखने और जाननेके जितने साधन हैं, केवल उनके ही बलपर हम अनन्त कालमें भी भगवान्को नहीं प्राप्त कर सकते। वे कृपा करके जिसपर अपनेको प्रकट कर दें, जिसे अपने दर्शन और अनुभवका अधिकारी चुन लें, वहीं उनके पास पहुँच सकता है। वेद-शास्त्र और संतोंने प्रायः यही कहकर भगवान्का वर्णन किया है।
परंतु परम दयालु भगवान् और उनके भक्त संत कोई-न-कोई ऐसी लीला किया ही करते हैं, जिनके कारण अधिक-से-अधिक लोग भगवान्को जानें और उन्हें प्राप्त करें। इसके लिये स्वयं भगवान् भी कई बार अवतार ग्रहण करते हैं और संत तो निरन्तर इसी प्रयत्नमें रहते ही हैं। उनके लिये भगवान्के ज्ञान, चिन्तन, स्मरण और दर्शन आदिके अतिरिक्त और कोई काम रहता ही नहीं। वे स्वयं भगवान्का स्मरण करते रहते हैं और उनकी प्रत्येक चेष्टा ऐसी होती है, जिससे लोग आनन्दस्वरूप भगवान्के स्मरण-चिन्तन आदिमें लगकर इस दुःखमय संसारसे मुक्त हो जायँ ब्रह्माके मानसपुत्र सनक, सनन्दन, सनत्कुमार आदि चारों भाई भी इसी श्रेणीके संत हैं। जब ब्रह्माकी मोह-महामोह आदि पाँच पर्वोंवाली अविद्या दूर हो गयी, तब उन्होंने निर्मल अन्तःकरणसे इनकी सृष्टि की थी। ये जन्मसे ही परम विरक्त, भगवान्के स्मरणमें मत्त |और परम ज्ञाननिष्ठ हैं। इनकी अवस्था सर्वदा पाँच वर्षकी ही रहती है। ब्राह्मी शक्ति अर्थात् सरस्वतीने इन्हें स्वयं सम्पूर्ण विद्या, उपासना पद्धति एवं तत्त्वज्ञानका उपदेश किया है। इन सबके अध्ययन, तपस्या, शीलस्वभाव एक-से ही हैं। इनमें शत्रु-मित्र तथा उदासीनोंके लिये भेद-भावका स्थान नहीं। संसारके सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि इनका स्पर्श नहीं कर पाते। इनके मुखसे निरन्तर भगवन्नामका और इनके श्वास- श्वासमें 'हरिः शरणम्' मन्त्रका उच्चारण होता रहता है। इनके संकल्पसे, इनकी संनिधिसे और इनकी उपस्थितिसे जगत् में सुख-शान्ति एवं आनन्दका संचार होता रहता है।
इन लोगोंकी लीला भी भगवान्को ही लीलाकी भाँति जगत्के हितके लिये ही होती है, या यों कह सकते हैं कि भगवान् से अभिन्न होनेके कारण इनकी लीला भी भगवान्की ही लीला है। एक दिन इन्होंने सोचा कि 'आज वैकुण्ठमें चलें और वहाँ भगवान्का दर्शन करें! यही तो इस जीवनका फल है कि अन्तःकरणमें भगवान्के अनन्त स्वरूप और अनन्त कृपाका अनुभव करके विह्वल होते रहें, वाणीसे उनके मधुरातिमधुर मङ्गलमय नामोंका गायन होता रहे और आँखें उनकी अनूप रूप-माधुरीको पी-पीकर मदमाती रहें।' बस, सोचनेभरकी तो देर थी, संकल्प करते ही वे वैकुण्ठमें पहुँच गये। उनके शरीर साधारण मनुष्य शरीर तो थे नहीं, दिव्य शरीर थे, सिद्ध शरीर थे; उन्हें कहीं पहुँचनेमें रुकावट नहीं थी ।
भगवान्का लोक परम दिव्य है। भक्तोंका कहना है कि वह प्रकृतिसे परे, अप्राकृत सामग्रियोंसे बना हुआ है। त्रिगुणमयी मायाके दोष-गुण वहाँ पहुँच नहीं सकते। वहाँके वृक्ष, लता, भवन, कुएँ आदि भी यहाँकी अपेक्षा चिन्मय हैं। वहाँ अमृतकी नदियाँ बहती हैं।प्रेमके बादल अमृतकी बूँदें बरसाते हैं। वहांके निःश्रेयस वनमें आनन्दके ही फल-फूल लगते हैं। सत्य, दया, क्षमा आदि मूर्तिमान् होकर वहाँके निवासियोंकी सेवा करते हैं वहाँके सभी निवासी श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, चतुर्बाहु और शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले होते हैं। वहाँ भूख प्यास, ईर्ष्या, द्वेष जा नहीं सकते। जन्म और मृत्युका प्रवेश नहीं। उसके कभी प्रलय, महाप्रलय होते नहीं, वह भगवान्का नित्य धाम है, भगवान्का लीलालोक है। वहाँ एक ही स्थानमें सब स्थान, एक ही कालमें सब काल और एक ही वस्तुमें सब वस्तुएँ विद्यमान रहती हैं। किसी वस्तुके लिये प्रयत्न नहीं करना पड़ता। उसे लानेके लिये कहीं जाना नहीं पड़ता। संकल्प करते ही वह उपस्थित हो जाती है। ज्ञानका लोप कभी नहीं होता। सभी वस्तुओंमें वहाँ भगवान्के दर्शन होते रहते हैं। वहाँ भगवान् व्यापक होनेपर भी एक स्थानमें रहते हैं और एक स्थानमें रहनेपर भी व्यापक रहते हैं।
जिन्होंने निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक भगवान्की आराधना की है, उन्हीं लोगोंका वहाँ प्रवेश हो सकता है। वहाँके लोग अपनी धर्मपत्रियोंके साथ दिव्य विमानोंपर विचरण करते हुए भगवान्की मधुर लोलाओंका गायन करते रहते हैं। कभी सुन्दर सुन्दर उपवनोंमें, हरी-भरी लताओंके मण्डपोंमें और अमृतसे भरी हुई बावलियोंमें विहार करते हुए भगवान्के पवित्र स्मरणके आनन्दोल्लास में समय व्यतीत करते हैं। परंतु वहाँ समय बीतने-न बीतनेका प्रश्न ही नहीं होता; क्योंकि समय बीतने की समस्या वहीं है, जहाँ मृत्यु है। सारस, चकोर, हंस, शुक, मयूर आदि सुन्दर सुन्दर पक्षी तालाबोंमें विहार करते-करते जब भरेको भगवान्को लीलाओंका गायन करते देखते हैं, तब आँख बंद करके कान लगाकर बड़ी एकाग्रतासे उसे सुननेमें तल्लीन हो जाते हैं। मन्दार, कुन्द, कमल, चम्पा, नागकेसर, मौलसिरी आदि दिव्य पुष्पोंके गन्ध-सौन्दर्यसे भरे रहते हैं वहाँकी भूमि मणिमय है, परंतु कठोर नहीं, कोमल है। वहाँका भीतें स्फटिक मणिकी बनी हुई हैं। वहाँके लोगोंकी परछाई उनमें पड़ती है तो यह पहचानना कठिन हो जाता है कि कौन-सा पुरुष है और कौन-सी परछाई है। भगवान् के प्रासादकी सात कक्षाएँ हैं। सभी एक से एक सुन्दर और सुसज्जित हैं। उनमें वे लोग नहीं| जा सकते, जिन्होंने कभी भगवान्की लीला नहीं सुनी है, नहीं देखी है। जो मनुष्य जीवनमें अपने धर्म कर्मका पालन करते हुए बिना किसी वासना के भगवान्की प्रेमाभक्ति करते हैं, वे ही उस लोकके अधिकारी होते हैं।
हाँ, तो सनक सनन्दनादि भगवान्के उस लोकमें पहुँच गये। छः कक्षा पार करके वे सातवीं कक्षा में पहुंचे ही थे कि सातवीं कक्षाके द्वारपालोंने उन्हें साधारण बालक समझकर रोक दिया। भगवान् के लोकमें उनके खास द्वारपाल यह अज्ञानपूर्ण व्यवहार करें, इसे भगवान्की लीलाके अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। भगवान् कुछ ऐसी लीला रचनेवाले थे कि वे अपने इन भक्तोंको सम्मिलित किये बिना अपनी उस लीलाको अपूर्ण समझ रहे थे। उन्हें संसारमें आना था, सबके लिये अपनेको सुलभ कर देना था तो यह काम भक्तोंको निमित्त बनाकर ही करना चाहिये। भगवान्की इच्छा भी भक्तोंकी इच्छाके अधीन है। इधर तो जय-विजय नामक द्वारपालोंके मनमें भेद-बुद्धि हुई, बिना आज्ञाके जानेकी चेष्टा करने के कारण सनकादिकोंके द्वारा उन्हें अपने अपमानका अनुभव हुआ और उन दोनोंने ही डाँटकर कहा 'भगवान्के धाममें ऐसी धाँधली कर रहे हो? हमसे पूछकर जाना चाहिये था। हमारी इच्छा होती तो हम तुम्हारे जैसे नंगे बालकोंको जानेकी आज्ञा देते या नहीं देते।' उन्होंने उन्हें केवल डाँटा ही नहीं, बेंत लेकर रोक भी दिया।
दूसरी ओर उन परमर्षियोंके चित्तमें, जिसमें सारे संसारका प्रलय हो जानेपर भी क्षोभ या विकार नहीं होता और न तो होनेकी सम्भावना है, द्वारपालोंके इस व्यवहारसे क्षोभ हो गया। कहा नहीं जा सकता कि यह अपने प्रकट होनेके लिये लीलाप्रिय भगवान्की ही एक लीला थी अथवा भगवान्को प्रकट करानेके उन लोकोपकारी संतोंकी लीला थी। परंतु इतनी बात निस्संदेह कही जा सकती है कि यह एक लीला थी और वह चाहे जिसकी रही हो, संत और भगवन्तमें भेद न होनेके कारण एक ही बात थी।
ऋषियोंने द्वारपालोंको फटकारते हुए कहा-'अरे, तुमलोग कौन हो? भगवान्की आराधनासे इतने ऊँचे स्थानपर आ गये हो फिर भी तुम्हारे स्वभावकीविषमता नहीं मिटी, तुम्हारी भेद-बुद्धि बनी हुई है। जहाँ परम शान्त, भेदरहित, सम भगवान्का निवास स्थान है, वहाँ भी तुम्हारे मनमें कपट-बुद्धि पैदा हो गयी! जैसे आकाशके द्वारा ही आकाशमें भेद नहीं हो सकता, वैसे ही सबको अपने अंदर रखनेवाले आत्मस्वरूप भगवान्में भेद नहीं हो सकता। तुम्हारा शरीर भगवान्के शरीर जैसा है। तुमने अपनी वेश-भूषा उनके जैसी बना रखी है और पेटके कारण होनेवाले छल-कपटको अपने अंदर छिपा रखा है, ऐसे दम्भियोंको धिक्कार है! तुम भगवान् के इस पवित्र धाममें रहनेयोग्य नहीं हो जाओ, यहाँसे जाओ। तीन जन्मोंतक पाप-योनिमें रहकर इन छल-कपट, भेद, क्रोध आदिसे प्रेम करो उनसे तुम्हारा बहुत प्रेम है न तो उन्हींसे प्रेम करो तुम भगवान् प्रेम करनेके अधिकारी नहीं हो।'
ऋषियोंकी यह बात सुनते सुनते जय-विजयकी बुद्धि ठिकाने आ गयी थी। उन्होंने समझ लिया था कि यह ब्राह्मणोंकी वाणी कभी व्यर्थ नहीं हो सकती। अब इसका फल हमें भोगना ही पड़ेगा। वे अपने अपराधपर लज्जित भी थे। उन ऋषियोंके चरणोंपर अत्यन्त कातर होकर वे गिर पड़े और कम्पित स्वरसे प्रार्थना करने लगे। उन्होंने कहा- 'भगवन्! हमसे महान् अपराध हुआ। प्रमादवश हमने महात्माओंका अपमान किया। इसका फल भी हमें मिलना ही चाहिये। आपलोगोंने हमें समुचित दण्ड दिया है। आपलोगोंका अपमान करके हमने केवल आपका ही अपराध नहीं किया है, सम्पूर्ण देवलोक और भगवान्का अपराध किया है। हम दण्ड भोगनेके लिये तैयार हैं। परंतु एक बातकी प्रार्थना है। ऐसी कृपा करें कि हमें भगवान्का विस्मरण न हो; यदि हमें भगवान्की स्मृति बनी रहेगी तो नीच से नीच योनिमें जाकर भी हम प्रसन्न रहेंगे।'
वे बोल ही रहे थे कि भगवान्के चरणोंकी ध्वनि कानों में पड़ी।