प्रकृति शान्त थी। सायंकालीन सूर्यकी लाल-लाल किरणें समुद्रके नीले जलके साथ खेल रही थीं। तरंगें बहुत कम उठती थीं। वायु मन्द हो गया था। दिन और रातकी सन्धिका समय होनेके कारण चारों ओर शान्ति - ही - शान्ति विराज रही थी। चारा चुग लेनेके बाद पक्षी अपने-अपने नीड़ोंपर बैठकर भगवान्के मधुर नामोंका संगीत गा रहे थे। यह वही समय है, जब भगवान् श्रीकृष्ण जंगलसे गौओंको चराकर लौटते थे और उनके गोधूलि - धूसरित मुख-मण्डलको देखनेके लिये व्रजके सभी प्राणी उत्सुक रहते थे। दिनभर काम करनेवाले इसी समय अपने घर आते हैं। यह प्रतीक्षाका समय है। इस समय हृदयमें एक मधुर लालसा जाग्रत् होती है। प्रकृतिके शान्त होनेके कारण इस समय मन अधिक पवित्रता और वेगके साथ परमात्माकी ओर बढ़ता है। हाँ, तो उस दिन प्रकृति शान्त थी और महर्षि कश्यप अपने आश्रमके पास बैठकर संध्या कर रहे थे।
प्रातःकालकी संध्या सूर्योदयके पूर्व हो जानी चाहिये और सायंकालकी संध्या सूर्यास्तसे पूर्व हो जानी चाहिये। यह द्विजातियोंका नित्य कर्तव्य है। इसके उल्लङ्घनसे पाप लगता । वर्णाश्रमके अंदर रहकर संध्याकी अवहेलना नहीं की जा सकती। महर्षि कश्यप नित्य संध्या करते थे और आज भी समयपर वे संध्या करने बैठे थे। विधिपूर्वक ध्यान करते हुए उन्होंने प्राणायाम किया; आचमन, मार्जन, अघमर्षण आदिकरके अभी जप करने जा ही रहे थे कि दिति वहाँ आ पहुँची। दितिको असमय आयी हुई देखकर महर्षि कश्यपको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा, यह नयी बात कैसे हो गयी। यद्यपि दिति मेरी धर्मपत्नी है, मेरी बड़ी सेवा करती है; तथापि आजतक संध्याके समय यह कभी नहीं आयी थी। उन्होंने जपमें विघ्न न हो, इसलिये यह सोचा कि इसे पूरा हो जानेके बाद बात कर लूंगा। वे फिर पूर्ववत् एकाग्र होकर सविता देवताका ध्यान करने लगे।
दितिका मन उस समय वशमें नहीं था। वह संतान प्राप्तिके लिये अत्यन्त उत्सुक थी। उसने कश्यपके पास जाकर बड़े दीनभावसे कहा- 'आर्यपुत्र। मैं आपकी दासी हूँ। इस समय मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। आप मेरी रक्षा कीजिये। यह देखिये कामदेव अपना धनुष-बाण चढ़ाकर प्रबल वेगसे मुझपर आक्रमण कर रहा है। जैसे मदमत्त हाथी अपनी सूँड़से केलेके वृक्षको धुन डालता है, वैसे ही मेरा अन्तःकरण मेरे वशमें नहीं है। मेरा शरीर टूट रहा है। आप कृपा करके मुझे बचाइये। इसे शान्त कीजिये। भगवन् मेरी कई सौतें हैं। उनकी संतान और सम्पत्तिको देखकर मेरे कलेजे में जलन होती है। आपके द्वारा जो संतान मुझे प्राप्त होगी, वह आप जैसी ही होगी और उससे सारे संसारमें हमारा यश छा जायगा।'
'नाथ! जब मेरे पिता दक्षने बड़े प्यारसे मुझसे कि तुम किसे पतिके रूपमें वरण करना चाहती पूछा हो, तब यद्यपि लज्जाके मारे मैंने मुँहसे कुछ नहीं कहा, फिर भी वे मेरा भाव समझ गये और आपके साथ उन्होंने मेरा विवाह कर दिया। इस समय कामकी यन्त्रणासे व्याकुल होकर मैं आपकी शरणमें आयी हूँ। आपके सिवा और कौन मेरी रक्षा कर सकता है। आप महान् पुरुष हैं। जो कोई आपकी शरणमें आता है, उसकी आप रक्षा करते हैं। आपकी शरण अमोघ है। मेरा दुःख मिटाइये।'
कश्यपने देखा कि आज दिति बहुत बोल रही है। एक तो कामके बाणोंसे व्यथित है, दूसरे सौतोंकी सम्पत्ति भी इसे सता रही है इसकी कामना तो अनुचित नहीं है। उन्होंने बड़े प्रेमसे समझाया- 'देवि ! तुम मेरी अर्धाङ्गिनी हो। तुम्हारे सहारे मेरे अर्थ, धर्म,काम तीनों ही सकते हैं। गृहस्थजीवनमें वास्तवमें तुम्हारी जैसी धर्मपत्नीकी बड़ी आवश्यकता है। जीवनका समस्त भार तुम्हें सौंपकर मैं निश्चिन्त धर्मपालनमें समर्थ होता हूँ। तुम्हारी सङ्गति और आश्रयसे ही मैं अपने शत्रु इन्द्रियोंको वशमें रखता है मानो नारी एक ऐसा किला है, जिसके आश्रयसे शत्रुओंकी ओरसे निर्भय होकर रहा जा सकता है।'
मैं तुम्हारी सेवाका ऋणी हूँ। यदि जीवनभर तुम्हारी सेवा करनी पड़े तो भी मैं उऋण नहीं हो सकता। मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूँगा। परंतु प्रिये ! तुम दो घड़ी और ठहर जाओ। यह संध्याका समय है । देवाधिदेव महादेवके अनुचर इस समय संसारमें घूमा करते हैं। स्वयं भगवान् शङ्कर श्मशानकी राख शरीरमें लपेटे जटाओंको खोले हुए यह देखते फिरते हैं कि कौन इस समय अपने कर्तव्य संध्या आदिमें न लगकर प्रमाद एवं पापकर्ममें लगा हुआ है। यद्यपि उनका कोई शत्रु-मित्र अथवा निन्दनीय प्रशंसनीय नहीं है; फिर भी पापियोंपर उनकी तीसरी आँख पड़ ही जाती है। उनका चरित्र बड़ा निर्मल है। संसार सागरसे पार होनेवाले उनके चरित्रका गायन करते रहते हैं। फिर भी वे उन्मत्तकी भाँति विचरण करते रहते हैं। इस समय गर्भाधान गर्हित बतलाया गया है, इसलिये थोड़ी देर धैर्य धारण करो नहीं तो उनके क्रोधको सम्भावना है।'
कश्यपके इतना समझानेपर भी दितिको संतोष नहीं हुआ। उसने निर्लज्ज होकर कश्यप ऋषिका वस्त्र पकड़ लिया। महर्षि कश्यपने सोचा कि मेरे इस शान्त आश्रममें, जहाँ निरन्तर भगवान्का ही स्मरण, चिन्तन, वर्णन होता रहता है, इस प्रकारकी मनोवृत्तिका होना बड़ा आश्चर्यजनक है। यहाँ हिंसक जन्तु अहिंसक हो जाते हैं, कामी, क्रोधी यहाँ आते ही शान्त हो जाते हैं। मेरी अर्धाङ्गिनी ही आज इस प्रकार कामपीड़ित और निर्लज्ज हो जाय, इसका कारण समझमें नहीं आता। मेरे अग्निहोत्र के समीप असमयमें ऐसी भावनाका उदय होना विधि-विधानका ही द्योतक है। अस्तु भगवान्की इच्छा पूर्ण हो ।
गर्भाधान होनेके पश्चात् दितिका आवेश शान्त हुआ। वह सोचने लगी कि यह मैंने क्या किया? पतिदेव, स्वयं भगवान् शङ्कर और शास्त्रोंको आज्ञाके विपरीतमैं ऐसा काम कर बैठी, जिससे निन्दनीय और कुछ हो ही नहीं सकता। उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह तुरंत महर्षि कश्यपकी शरणमें गयी। अबतक महर्षि कश्यप स्थान करके प्राणायामपूर्वक ध्यान करते हुए भगवान्के नामका जप करने लगे थे। दितिने जाकर लज्जावश अपना मुँह नीचे करके कहा- 'भगवन् ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ। भगवान् रुद्र क्रुद्ध होकर कहीं मेरे गर्भका अनिष्ट न कर दें। मैं उनकी शरण में हूँ। आप उनसे प्रार्थना कीजिये। मैं देवाधिदेव महादेवको नमस्कार करती हूँ। वे आशुतोष हैं, सम हैं और मेरे सगे-सम्बन्धी हैं। आपके नाते मेरे देवर हैं और पिताके नाते मेरे बहनोई हैं। मेरी बहिन सती उनकी धर्मपत्नी है। मेरा बच्चा उन्हींका बच्चा है। वे मेरे बच्चेका अनिष्ट कदापि नहीं करेंगे भगवन्! आप दया करके मेरी रक्षा कीजिये।'
इस प्रकार दितिको अपने कृत्यपर लज्जित एवं संतानके कल्याणके लिये उत्सुक देखकर नियम पूरा हो जानेके बाद महर्षि कश्यपने कहा- 'तुम्हारे इस पश्चात्ताप और शङ्करकी प्रार्थनाको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भगवान् रुद्र तुम्हारे बालकोंका अनिष्ट नहीं करेंगे। परंतु असमयमें ही गर्भाधान करनेके कारण | मेरी आज्ञाका न पालन करने तथा अपनी सौतके पुत्र देवताओंके प्रति द्रोहभाव रखनेके कारण तुम्हारे गर्भसे होनेवाले पुत्र देव-द्रोही एवं अमङ्गलरूप होंगे। गर्भाधानके समयकी तुम्हारी ईयां उनके हृदयमें ऐसे भाव भर देगी कि वे तीनों लोकोंको कम्पित कर देंगे। उस समय मेरे मनमें भगवान् शङ्करका ध्यान था, अतः तुम्हारे दोनों पुत्र शङ्करके भक्त होंगे। जब उनके द्वारा निरपराध दीन प्राणियोंकी हिंसा होगी, स्त्रियाँ दुःख पायेंगी, उनपर महात्मालोग क्रोधित हो जायँगे तब स्वयं भगवान् अवतार लेकर उनका वध करेंगे। तुम्हारे मनमें पश्चात्ताप हुआ है, तुम्हें अपने कृत्यपर खेद हुआ है, इसलिये तुम्हारा पौत्र हिरण्यकशिपुका एक लड़का बड़ा ही भक्त होगा उसकी भकिसे तुम्हारे वंशका उद्धार हो जायगा।'
मेरे पुत्रोंका वध स्वयं भगवान् करेंगे, यह सुनकर दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई; क्योंकि उसका विश्वास था कि वधके नाते ही सही, हमारे पुत्रोंका भगवान् | सम्बन्ध तो होगा ? चाहे जिस भावसे, जिस नातेसे उनसेसम्बन्ध हो जाय, केवल सम्बन्ध होना चाहिये। बस, कल्याण-हा-कल्याण है। दिति बड़ी सावधानीके साथ। अपने गर्भकी रक्षा करने लगी।
जब दितिकै गर्भमें पहले के भगवान् के द्वारपाल किंतु अब असुर आ गये, तब तीनों लोकोंकी दशा ही बदल गयी। सूर्यका तेज कम हो गया, अग्नि निर्धूम होकर प्रसन्नतासे हविष्य नहीं ग्रहण करती, दिशाओंमें कुहरा छाया रहता है, वायुका स्पर्श बड़ा ही तीखा मालूम होता है, कहीं प्रसन्नता नहीं, कहाँ मङ्गल नहीं, सब-के-सब देवता घबरा गये। वे आपसमें सलाह करके ब्रह्माके पास गये। सबने ब्रह्मासे सम्मिलित प्रार्थना की कि 'पितामह! आज संसारमें यह क्या अनर्थ हो रहा है? चारों ओर भय छाया हुआ है। सबके हृदयों में एक उद्वेग समाया हुआ है। बाहर-भीतर सर्वत्र अशान्ति है। इसका कारण क्या है? दितिका गर्भ बहुत वर्षसे बढ़ रहा है। यह क्या है? क्या इसीके कारण जगत्की यह दशा है? भगवन्! हमें कोई उपाय बतलाइये, इस संकटसे उबारिये। हम सब आपकी शरणमें हैं। आपके चरणोंमें बारम्बार नमस्कार करते हैं।'
ब्रह्माने मधुर वाणीसे सान्त्वना देते हुए जय विजयके शापसे लेकर उनके गर्भ में आनेतककी बात कह सुनायी और अन्तमें कहा कि वे ही दोनों दितिके गर्भ में आये हुए हैं। उनके ही भीषण तेजसे त्रिलोकी त्रस्त है। भगवान् इसके सम्बन्धमें स्वयं विधान करनेवाले हैं। देवताओ! उन्हींके संकल्पसे सृष्टि होती है, उन्होंकी शक्तिसे स्थिति है और उन्हींके भ्रूभंगसे इसका प्रलय हो जाता है। बड़े-बड़े ऋषीश्वर, योगीश्वर उनकी योगमायाका रहस्य नहीं समझ पाते। वे कब किस प्रकार किसका कल्याण करना चाहते हैं, यह भगवान् और भगवान्के भक्तोंके अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकता। परंतु इतना निश्चित है कि उनके प्रत्येक विधानमें जीवोंका हित ही निहित रहता है। वे । ही हमारे स्वामी हैं, वे ही हमारे सहायक हैं, उन्हींका | हमें भरोसा है, वे ही हमारा कल्याण करेंगे। हम अपनी | तुच्छ बुद्धिसे क्या सोच-विचार सकते हैं? हम उनकी । सरण हैं। उनके कर-कमलोंको सुकोमल छत्रछायामें | है। बस, यही भाव निरन्तर बना रहना चाहिये।' ब्रह्माकी यह विश्वास और प्रेमसे परिपूर्ण वाणीसुनकर देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे संतुष्ट होकर भगवान्का स्मरण करते हुए अपने-अपने धामको चले गये और वहाँ शान्तिके साथ भगवान्की प्रतीक्षा करने लगे।
इधर दितिके प्रसवका अवसर आया। साधारण प्रसव समयकी अपेक्षा बहुत अधिक समय बीत जानेके पश्चात् संतान होनेका समय उपस्थित हुआ । उस समय संसारमें बड़े-बड़े उत्पात होने लगे सौंपकी भाँति फुफकारता हुआ वायु चलने लगा। उल्का और वज्र गिर-गिरकर लोकोंको भयभीत करने लगे। आकाशमें पुच्छल तारे उग आये। नक्षत्रोंकी प्रभा नष्ट हो गयी। भीषण बादलोंके दलने प्रकाश आनेका मार्ग बंद करके अन्धकारका राज्य स्थापित कर दिया। समुद्र उदासीके साथ चिल्लाने लगा मानो सारी प्रकृति क्षुब्ध होकर कहने लगी हमें तुम्हारे जैसे लोगोंकी आवश्यकता नहीं, ब्रह्मा और ब्रह्माके कुछ पुत्रोंको छोड़कर सारी प्रजाको ऐसा अनुभव हुआ कि असमयमें ही प्रलय होने जा रहा है। अथवा यह एक महान् विश्व-विप्लवका सूत्रपात है।
पैदा होनेके थोड़ी ही देर बाद दोनों असुरोंमें महान् बलका संचार हो गया। उनका शरीर फौलादकी तरह कठोर और पर्वतके समान बड़ा था। कश्यपने दोनोंका नामकरण किया। गर्भाधानके हिसाबसे जो बड़ा था, किंतु उत्पत्ति क्रमसे छोटा था उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो गर्भाधान के क्रमसे छोटा किंतु उत्पत्ति क्रमसे बड़ा था, उसका नाम हिरण्याक्ष रखा। हिरण्यकशिपुने घोर तपस्या करके ब्रह्मासे वर प्राप्त किया और त्रिलोकीपर शासन किया। उसकी कथा श्रीनृसिंहावतार कथामें देखनी चाहिये। उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष बड़ा ही वीर था। वह हिरण्यकशिपुको बहुत मानता था तथा वह भी इसपर बड़ा प्रेम करता था।
हिरण्याक्ष हाथमें गदा देकर अपनेसे लड़नेवालेको ढूँढ़नेके लिये स्वर्गमें गया। उसके असह्य वेग, महान् गदा, उत्साह, शक्ति और वरसे प्राप्त पौरुषको देखकर सभी देवता भयभीत हो गये। जब उसने देखा कि इन्द्र आदि सभी देवता मेरे सामनेसे भग गये, तब वह उन्हें नपुंसक समझने लगा। इसके बाद अपने बाँहोंकी खुमारी मिटानेके लिये वह समुद्रमें कूद पड़ा औरभयंकर गर्जना करते हुए अपार एवं अगाध समुद्रमें मत्त होकर विहार करने लगा। उसके समुद्रमें प्रवेश करते। ही प्रहार न करनेपर भी उसके प्रभावसे भयभीत होकर वरुणके सैनिक भाग गये। वह वर्षोंतक समुद्रमें क्रीडा करता रहा। वह अपनी गदासे समुद्रके जलको पीट पीटकर इतना उछालता था कि जलके छींटोंसे ऊपरके लोकमें रहनेवाले घबरा जाते थे।
अब वह वरुणकी राजधानीमें गया। वहाँ वरुणसे नीचकी भाँति उसने प्रार्थना की कि आप लोकपाल हैं, जलके अधिपति हैं, आपकी कीर्ति सारे संसार में फैली हुई है, आपने बड़े-बड़े वीरोंका घमंड चूर कर दिया है, समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर आपने राजसूय यज्ञ किया है, मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करके एक भीख माँगता हूँ। आशा है, आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे। मैं आपसे यही भीख माँगता हूँ कि आप मुझसे युद्ध करें।
वरुणने देखा कि इस समय इसका बल बढ़ा हुआ है। इससे लड़ाई करना अपनेको संकटमें डालना है। अतः क्रोधको अपनी बुद्धिसे दबाकर उन्होंने बड़ी नम्रतासे कहा- 'भैया ! हम तो अब बुड्ढे हो गये हैं। अब युद्ध करनेकी ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है और वास्तवमें भगवान् विष्णुके अतिरिक्त तुमसे युद्ध करनेवाला कोई दीखता भी नहीं। तुम्हारे जैसे वीर पुरुषोंको उन्हींसे युद्ध करना चाहिये। जाओ, तुम उनके पास जाओ। तुम्हारा घमंड चूर होगा और कुछ क्षणोंमें ही कुत्ते तुम्हारे शरीरको नोचकर खा जायेंगे।'
हिरण्याक्ष तो अपने जोड़का योद्धा ढूँढ़ ही रहा था, वह भगवान् विष्णुको ढूँढ़नेके लिये चल पड़ा।