सृष्टिके आदिकालकी बात है। ब्रह्मा भगवत्प्रेरणासे सृष्टि कर रहे थे; परंतु उनकी इच्छाके अनुरूप सृष्टि नहीं हो रही थी। उनकी अभिलाषा थी कि सृष्टि सुन्दर से- सुन्दर हो, बढ़े और प्रवृत्ति-धर्मका पालन करे। परंतु उनकी यह अभिलाषा दरिद्रोंके मनोरथकी भाँति पूरी नहीं होती थी। कुछ अज्ञानी हुए, कुछ भोगी हुए, कुछ क्रोधी हुए और कुछ निवृत्तिपरायण हो गये। उनके शोककी सीमा न रही। वास्तवमें जब कुछ करनेकी इच्छा की जाती है और वह पूरी नहीं होती, तब शोक होता ही है। ब्रह्मा भी शोकग्रस्त हो गये।परंतु भगवान्की लीलाको कौन जानता है। इस उशोकके अवसरपर ही उनमें रजोगुण और तमोगुणका . वाञ्छनीय मिश्रण हो गया और एक सुन्दर दम्पति उनके सामने प्रकट हो गये। यही दम्पति मनु और शतरूपा थे। इन्हें देखकर ब्रह्माको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि बस अब मेरी अभिलाषा पूर्ण हो गयी। मैं जैसी चाहता था, वैसी सृष्टि हो गयी। मनु और शतरूपाने हाथ जोड़कर पूछा-'भगवन्! हमें क्या आज्ञा है ? हम आपकी आज्ञाकारी संतान हैं। जो आज्ञा हो, वही करें।' ब्रह्माने बड़ी प्रसन्नतासे समझाया
'हम सब परम पिता परमात्माके यन्त्र हैं। हमारा एकमात्र धर्म है उनकी आज्ञाका पालन करना। वे हमारे स्वामी हैं, हमारे सखा हैं और हमारे आत्मा हैं। वे कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता सब कुछ हैं और सबसे परे हैं। यह सृष्टिका समय है। हमें यह आज्ञा है कि तमोगुणमें सोते हुए जीवोंको उठाकर ऐसी स्थितिमें लायें कि वे अपने पुरुषार्थद्वारा इस दुःखमय संसारसे मुक्त हो जायें। भगवान् के पास पहुँच जायें। यह काम तुमसे होगा।'
परंतु इसके लिये तपकी आवश्यकता है। तुम दोनों तपस्या करके शक्ति प्राप्त करो। आदिशक्तिकी आराधना करो और उनसे निर्विघ्न सृष्टि सम्पादनको योग्यता लाभ करो। मनुने ब्रह्माकी बात शिरोधार्य की और दोनों तपस्याके लिये चल पड़े।
इस सृष्टिके अंदर और बाहर एक शक्ति है। ऐसी कोई वस्तु नहीं, जिसमें कोई-न-कोई शक्ति न हो। शक्तिहीनका अस्तित्व ही नहीं है। सत्ता स्वयं एक शक्ति हैं। हम जो उपासना करते हैं, हमारी उपासनाका जहाँतक सम्बन्ध हैं, वहाँतक शक्ति ही शक्ति हैं। स्वयं ईश्वर शक्तिरूप है। ऐश्वर्य-शक्तिके बिना ईश्वरका ईश्वरत्व ही सिद्ध नहीं होता। इसलिये शक्तिकी आराधना ही आराधना है और हम सभी शक्तिकी आराधना करते हैं।
मनु और शतरूपा दोनों ही प्रेमसे शक्तिकी आराधना करने लगे। उन्होंने मन-ही-मन भगवती आदिशक्तिकी प्रार्थना की कि 'देवि! जगत्के समस्त कारणोंकी कारणभूता महाशक्ति! हम तुम्हें शतशः प्रणाम करते हैं। वेदों के रूपमें तुम्हीं प्रकट हो। सम्पूर्ण मङ्गलोंकी तुम्हीं मूल हो। ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी तुम्हारे शिशु हैं। तुम्हारे हो | बलपर जगत् टिका हुआ है। पालन, पोषण, सर्जन,विसर्जन सब तुम्हारी ही शक्तिसे होता है। तुम्हारी | शक्तिके बिना कोई कार्य हो ही नहीं सकता।'
'हमें अपने पिता की आज्ञा प्राप्त हुई है और उसमें भगवत्प्रेरणा भी है कि हमलोग सृष्टि करें। परंतु हममें क्या शक्ति है कि उनकी आज्ञा का पालन कर सकें। हम तुम्हारी कृपके भिखारी है। तुम्हारे ही शिशु हैं। तुम्हारे दरवाजेपर पड़े हैं। माँ! प्यारी माँ! आकर हमें गोद में उठा लो। हमें दुलारो, पुचकारो। हमपर वात्सल्य स्नेह प्रकट करो।'
मनु और शतरूपा एक ही साथ एक ही प्रकारकी प्रार्थना कर रहे थे। पति पत्नीका हृदय एक ही भावमें विभोर था। वह एक ही हो गया था। उनकी सच्ची प्रार्थना और दर्शनकी परम लालसा देखकर दयामयी माँ प्रकट हुई। उन्हें देखते ही उनके चरणोंपर गिरकर दोनोंने साष्टाङ्ग प्रणाम किया। माँकी करुणासे उनका हृदय विह्वल हो गया। शरीर पुलकित और आँखों में आँसू । दोनों ही अञ्जलि बाँधे खड़े थे।
माँने पुचकारते हुए कहा- 'बेटा! तुम तो मेरे अपने हो तुम इसीलिये प्रकट हुए हो कि परमार्थ-साधन करने योग्य मानवी सृष्टि हो। मेरी प्रसन्नताके लिये तपस्या करनेकी क्या आवश्यकता है। मैं अपने बच्चेको कष्ट उठाते नहीं देखना चाहती। जब मैं देखती हूँ कि मेरा कोई शिशु सचमुच मेरे लिये रो रहा है, तब दौड़कर उसे अपने आँचलमें छिपा लेती हूँ। मेरा हृदय उसके पीनेके लिये दूध बनकर बाहर निकल आता है। मैं एक क्षणके लिये भी उसे नहीं छोड़ना चाहती।'
'जो मुझे न चाहकर कोई और वस्तु चाहते हैं, उन्हें यदि उस वस्तुसे उनकी हानि होनेकी सम्भावना नहीं रहती तो वह वस्तु भी दे देती हूँ और आड़में खड़ी रहकर अपने बच्चेका खेलना देखकर प्रसन्न होती हूँ। यदि अनिष्ट होनेकी सम्भावना देखती हूँ तो झपटकर वह वस्तु छीन लेती हूँ और उसे उससे भी उत्तम वस्तु देती हूँ अथवा उसे अपनी गोदमें ले लेती हूँ।'
'प्यारे मनु और शतरूपा ! मुझे और कोई काम नहीं है। मैं दूसरा कोई काम करती ही नहीं। निरन्तर अपने नन्हे नन्हे शिशुओंकी देखभाल किया करती हूँ। छोड़नेकी कल्पना भी उठ जाय तो मुझे कितना कष्ट होगा, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। मैं कभी छोड़ ही नहीं सकती।'तुम पिताकी आज्ञासे सृष्टि कार्य करना चाहते हो, यह बड़ी प्रसन्नताकी बात है। मैं तुम्हारी सहायता करूंगी। स्वयं भगवान् विष्णु वाराहावतार धारण करके तुम्हारे सृष्टि कार्यमें सहयोग देंगे और आगे चलकर वे तुम्हारी संतानके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे। बेटा। जाओ। सावधानी से अपना काम करो। तुम्हारा कल्याण होगा।'
माँ अन्तर्धान हो गयीं और मनु लोकपितामह ब्रह्माके पास आये।
मनु और शतरूपाको प्रसन्नताके साथ आते देखकर ब्रह्माने अनुमान कर लिया कि इनका कार्य सिद्ध हो गया है। प्रणाम करते ही उन्होंने उठाकर हृदयसे लगा लिया और आनन्दातिरेकसे उनका सिर सूंघने लगे। माँकी कृपा और वरदानकी बात सुनकर ब्रह्माको बड़ा हर्ष हुआ। सब-के-सब माँकी दयालुताका स्मरण करके मुग्ध हो गये। उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हम उनकी गोदमें ही बैठे हुए हैं।
तन्मयता भंग होनेपर मनुने प्रार्थना की कि 'पिताजी! सृष्टि करनेके लिये विशाल भूमिकी आवश्यकता है। पृथ्वीके बिना सृष्टि कहाँ की जाय ? सारा संसार जलमग्र हो रहा है। इसके सम्बन्धमें कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये।'
उसी समय ब्रह्माके दूसरे पुत्र मरीचि आदि भी उपस्थित हो गये। ब्रह्माने चिन्ता करते हुए कहा कि इस बात के लिये तो मुझे स्वयं बड़ी चिन्ता हो रही है। प्रलयके समय दैत्योंने पृथ्वीको चुराकर रसातलमें रख दिया, अब उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं दीखता भगवान् की कृपाके बिना यह कार्य असम्भव है। आओ, हम सब उन्होंकी प्रार्थना करें। वे ही हमलोगोंका कल्याण-विधान करेंगे।
अभी प्रार्थना शुरू भी नहीं हुई थी कि ब्रह्माकी नाकसे एक अंगुलका एक अद्भुत शूकर-सावक निकल पड़ा। उसे देखकर लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे, यह क्या वस्तु है? देखते-ही-देखते क्षणभरमें वह बढ़कर हाथीके बराबर हो गया। सनक, सनन्दन, मनु, मरीचि सब-के-सब आश्चर्यचकित हो गये। तर्कना करने लगे कि यह क्या है ? अभी-अभी नाकसे यह निकला है और इतना बड़ा हो गया। इतने में ही शूकर भगवान्ने घोर गर्जना की। उनकी गर्जना सुनकर इन लोगोंके मनमें भय नहीं हुआ, आनन्द ही हुआ। ब्रह्माकी समझमें बात आ गयी। उन्होंने कहा कि 'अवश्यमेव पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये भगवान् ही शूकररूपसे अवतीर्ण हुए हैं।'