जिस वस्तुके लिये चिन्तित हों, जिसकी प्रतीक्षा में दूसरा काम अच्छा न लगता हो, जिसके बिना हमारे कर्तव्यमें ही बाधा पड़ जाती हो, यदि वही वस्तु सहसा बिना किसी प्रयत्नके सामने आ जाय, हमारी अभिलाषा पूर्ण कर दे तो इससे बढ़कर प्रसन्नताकी बात और क्या होगी? ऐसे अवसरोंपर ही हम अपने जीवनको धन्य मानते हैं।
यहाँ तो कोई दूसरी वस्तु नहीं, स्वयं भक्तवाञ्छा कल्पतरु भगवान् ही यज्ञवाराह रूप धारण करके प्रकट हुए हैं। उनके सुकोमल दन्तद्वयविराजित श्याम शरीरको सुन्दरता और फरफराती हुई रोमावली देखकर ब्रह्मा आदिके आनन्दको सीमा न रही सब के सब उठ खड़े हुए और उनके पास जाकर षोडशोपचारसे पूजा की। अन्तमें सबने बड़े प्रेमसे प्रार्थना की कि 'भगवन्! आप ही इस सृष्टिके आधार हैं। आप ही इसके अधिशान हैं। आपकी ही सत्तासे यह सृष्टि और हम सब सत्तावान् बने हुए हैं। आपकी ही कृपासे, आपकी ही प्रेरणासे सब कुछ हो रहा है और जब आवश्यकता होती है तब इसकी रक्षा-दीक्षाके लिये आप प्रकट होते हैं। आप सर्वज्ञ हैं, आप ज्ञानस्वरूप हैं, आपका श्रीविग्रह आनन्दमय है, एकमात्र आप ही सत्य हैं। आपके ही पावन नामोंका उच्चारण करके आपकी ही पावन स्मृतिमें तल्लीन होकर हमारा जीवन व्यतीत होता रहे, सर्वदा हम आपके ही ध्यानमें मग्न रहें, एक क्षणके लिये भी आपको न भूलें, ऐसी कृपा कीजिये।
'प्रभो! पृथ्वी आपकी सेविका है आपने उसे अपनी स्वीकार किया है। प्रलयके समय असुरोंके द्वारा यह हरण कर ली गयी है आपको अपनी होनेके पश्चात् वह असुरोंके हाथमें गयी, यह आश्चर्यकी बात अवश्य है। परंतु आपकी लीला आप ही जान सकते हैं। और कोई क्या जाने ? भगवन्! अब उसका उद्धार कीजिये। हमलोग आपकी प्रेरणासे सृष्टिके कार्यमें लगे हैं, बिना पृथ्वीके हम सृष्टि कहाँ करें? पृथ्वी भी घबरायी हुई है, वह आपके दर्शन और स्पर्शके लिये बहुत हीउत्सुक है। उसे आश्वासन दीजिये, अपनाइये।' ब्रह्मादिकी प्रार्थना सुनकर भगवान् बड़े जोरसे हँसे और गरजते हुए समुद्रमें कूद पड़े उनके कूदनेसे समुद्रका जल उछल उछलकर जनलोक, महर्लोकसे बातें करने लगा। मानो 'भगवान् मेरे जलमें क्रीड़ा कर रहे हैं। आज मेरी इतने दिनोंकी तपस्या सफल हुई। मैं भगवान्का दिव्य स्पर्श प्राप्त कर रहा हूँ।' अपनी गम्भीर ध्वनिके द्वारा इस बातकी डंके की चोट घोषणा करता हुआ समुद्र तीनों लोकोंको अपने आनन्दका संदेश सुना रहा था।
भगवान् मंथरगतिसे रसातलकी ओर जा रहे थे। जी भगवान् अपने भक्तोंकी पुकार सुनकर गरुडको भी छोड़कर पाँच-पया दौड़ते हैं, वही भगवान् आज मंथरगति से क्यों चल रहे हैं! अवश्य सर्वदा क्षीरसागरमें उनके रहनेके कारण नीर-सागरको बड़ी स्पर्धा रही होगी कि क्षीर-सागर कितना भाग्यवान् है। काश, एक दिन भगवान् मेरे अंदर भी आ जाते! वह बड़ा उत्सुक था। इतने दिनोंसे गम्भीर एवं शान्तचित्तसे जिसकी उपासना करता था, वही भगवान् उसके पास आये हैं। और धीरे-धीरे उसे स्मर्श-सुखका अनुभव कराते हुए रसातलकी ओर जा रहे हैं।
भगवान् धीरे-धीरे बढ़ते हुए रसातलमें पहुँच गये। भगवान्को देखकर पृथ्वी प्रसन्नता के मारे खिल उठी। उसने भगवान्का चरणामृत लिया। सुन्दर आसनपर बैठाकर भगवान की पूजा को उसे ऐसा मालूम हुआ कि आज मेरे सौभाग्यका सूर्य चमक उठा। अबतक भगवान् लक्ष्मीके पास रहते थे, आज मेरे घर आ गये। मेरा असुरोंके हाथमें पढ़ना अच्छा ही हुआ, क्योंकि इसीलिये भगवान् मेरे घर आये हैं। पृथ्वी देवी षोडशोपचार पूजा करनेके पश्चात् आरती लेकर भगवान्के सामने नाचने लगी। उस समय उसके प्रेम और आनन्दका क्या कहना! स्वयं प्रेम और आनन्दस्वरूप भगवान् उसके सामने विराजमान थे।
पूजा समाप्त होनेपर पृथ्वीको जब ज्ञान हुआ तब वह अञ्जलि बाँधकर भक्ति करने लगी। उसने कहा- 'कमलनयन ! शङ्ख-चक्र - चित्तसे प्रार्थना गदाधारी! श्यामसुन्दर तुम्हीं हमारा उद्धार करनेवाले हो। तुम्हीं हमारे स्वामी हो, तुम्हीं हमारे पतिदेव हो। प्रभो। तुम्ही अक्षरसे परे पुरुषोत्तम हो। तुम्हींपञ्चभूतोंका उद्धार करते हो। केवल उद्धार करनेवाले ही नहीं, तुम्हीं सबके जन्मदाता भी हो। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तुम्हारे ही स्वरूप है। बड़े-बड़े योगीश्वर तुम्हारा ही ध्यान करते हैं। बड़े-बड़े उपासक तुम्हारी ही उपासना करते हैं। तुम्हीं यज्ञभोक्ता यज्ञपुरुष हो भगवन्! तुम्हारे वास्तविक स्वरूपको कोई नहीं जानता देवी प्रकृतिके लोग तुम्हारे अवतारोंकी ही उपासना करते हैं। तुम्हारी आराधनाके बिना आत्म-साक्षात्कार, ब्रह्मकी अनुभूति अथवा मुक्ति नहीं हो सकती। जो कुछ मनसे सोचा जा सकता है, नेत्र-वाणी आदि इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ देखा जा सकता है और बुद्धिके द्वारा जितने पदार्थोंका बोध किया जा सकता है, वह सब तुम्हीं हो। जो कुछ मैंने कहा है वह तुम हो। जो कुछ नहीं कहा है, वह भी तुम्हीं हो। आत्मा-अनात्मा सब तुम्हारे ही रूप हैं। भगवन्। अब मुझे एक क्षणके लिये भी मत छोड़िये मुझे अपने साथ ले चलिये।'
प्रार्थना करते करते पृथ्वी उनके चरणोंपर गिर पड़ी और प्रेमगद्गद होकर रोने लगी। भगवान् वराहने बड़े प्रेमसे उसे अपने बायें दाँतपर उठा लिया। उस समय वाष्कलि आदि दैत्योंने बाधा डालनी चाही, पर भगवान्के गदाप्रहारसे भयभीत होकर उनसे कई भग गये और शेष दैत्योंने भगवान्के हाथों मृत्यु प्राप्त करके दुर्लभ गति प्राप्त की। जब भगवान् अपने दाँतोंपर पृथ्वीको लेकर वेगसे चलने लगे, तब समुद्रका पानी उछल उछलकर फिर महर्लोकतक जाने लगा। उनके वासके वेगसे जो जलधाराएँ उठती थीं, उनसे जनलोकके निवासी तो सराबोर हो गये। उस समय सनक सनन्दनादि यहाँ उपस्थित थे। उन्होंने बड़े प्रेमसे भगवान्की स्तुति की। महावाराह भगवान् जब अपने वेदमय शरीरको बड़ी स्फूर्तिक साथ कँपाते हुए चलने लगे, तब उनके रोमकूपोंमें स्थित ऋषिगण बड़े प्रेमसे उनकी स्तुति करने लगे। उन्होंने यज्ञरूप वराह भगवान्का वर्णन करते हुए कहा—'भगवन्! आप सबके कारण हैं। सबके मूल स्वरूप हैं और आप ही यज्ञपुरुष हैं। आपके चरणोंमें चारों वेद हैं। मुखमें श्येन थित आदि चितियाँ हैं, बजको अनि आपकी जीभ है, रात-दिन आपके नेत्र हैं। आपका थूथन सुवा है, आपकी धीर गम्भीर ध्वनि सामस्वर है, आपके अवयवोंमें सम्पूर्ण यज्ञकी सामग्री है। आपकी दाढ़ोंपर रखी हुई पृथ्वी |ऐसी मालूम होती है, मानो विशाल गजेन्द्र के बड़े दतिपर कमलकी एक नन्ही-सी पंखुड़ी रखी हो। आप ही एक परमार्थ सत्य हैं। आपके अतिरिक्त और कोई नहीं है। आपके अनन्त ज्ञानस्वरूपमें जड-जगत्को देखनेवाले भ्रान्त हैं। वास्तवमें सब कुछ ज्ञान ही है, सब कुछ आनन्द ही है, सब कुछ आत्मा ही हैं और सब कुछ आपका स्वरूप ही है। भगवन्! आप पृथ्वीका उद्धार करके जीवोंका महान् कल्याण कर रहे हैं। प्रभो ! आपकी जय हो! आपकी जय हो! हम आपके चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करते हैं!'
एक ओर तो सारे ऋषीश्वर, योगीश्वर भगवान्की स्तुति कर रहे थे, दूसरी ओर नारदजी और ही भुनमें थे। उन्हें जब मालूम हुआ कि भगवान् पृथ्वीका उद्धार करके लौट रहे हैं, तब वे हिरण्याक्षके पास पहुँचे। हिरण्याक्ष तो पहलेसे ही भगवान्को ढूँढ़ रहा था। जब देवर्षि नारदने बतलाया कि भगवान् पृथ्वीको रसातलसे लिये आ रहे हैं, तब वह उसी ओर चल पड़ा।
नारद भगवान् के अत्यन्त प्रिय हैं। पुराणोंमें, इतिहासोंमें ऐसा उदाहरण बड़ी कठिनतासे मिलेगा कि किसीको नारदजी मिल गये हों और उसे भगवान् न मिले हों। नारदका यही काम है। वे सबको भगवान्की ओर बढ़ाते हैं जो प्रेमका अधिकारी होता है, उसे प्रेमसे और जो द्वेषका अधिकारी होता है, उसे द्वेषसे। वे भगवान्का स्वभाव जानते हैं कि उनके पास द्वेषसे भी जानेपर कल्याण ही होता है। केवल उनके पास जाना चाहिये। वे भगवान्के अन्तरङ्ग प्रेमी हैं, वे भगवत्प्रेमियोंकी अभिवृद्धि करनेमें ही लगे रहते हैं। यदि वे हिरण्याक्षके पास अभी नहीं आते तो सम्भव है, उसके उद्धारमें विलम्ब हो जाता। उन्हें यह बात असह्य थी, आखिर उसे उन्होंने भेज ही दिया।
हिरण्याक्षने थोड़ी ही दूर चलनेके बाद देखा कि समुद्रमें उथल-पुथल मचाते हुए वराह भगवान् आ रहे हैं। उनकी आँखोंसे एक ऐसी ज्योति निकल रही है, जिससे दाँतपर रखी हुई पृथ्वी पुष्ट हो रही है। उसने डाँटते हुए कहा- 'रे शूकर । तू अपनेको बड़ा चतुर समझता है ? यह पृथ्वी हमारी है, हम रसातलवासियोंकी सम्पत्ति है। मेरे देखते-देखते तू इसे ले जाना चाहता है, यह नहीं हो सकता। हमारे शत्रुओंने तुझपर यह भार सौंपा है; परंतु न तुझमें बल है, न शक्ति तू योंही टट्टीकी ओट शिकार किया करता है। तुझे केवल अपनी मायाका बल है। अभी तुझे समाप्त करके मैं अपने मित्रोंको सुखी करता हूँ। जब मेरी गदासे तेरा सिर फट जायगा और तू मर जायगा तब तेरे बलपर जीनेवाले ऋषि और देवता स्वयं ही मर जायँगे। आ, मैदानमें उतर आ। अभी मैं तुझे इसका मजा चखाता हूँ।'
भगवान् ने देखा कि पृथ्वी भयभीत हो रही है। उसकी बात सुनकर भी उन्होंने उसपर ध्यान नहीं दिया। वे मस्तीके साथ चलते रहे। हिरण्याक्ष उनके पीछे-पीछे चलता हुआ कह रहा था कि 'जो निर्लज्ज हैं, असज्जन हैं, उनके लिये निन्दनीय क्या है ? ललकारते हुए शत्रुको छोड़कर इस प्रकार भागना कायरता है।' परंतु भगवान्ने तनिक भी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने जलके ऊपर आकर पृथ्वीको रखा और उसमें अपनी शक्ति स्थापित करके उसे स्थिर कर दिया। हिरण्याक्षके देखते-देखते देवताओंने भगवान्पर पुष्पवर्षा की । ब्रह्माने स्तुति की। सर्वत्र आनन्दोत्सव मनाया जाने लगा।
अब भगवान्ने हिरण्याक्षपर अपनी कठोर दृष्टि डाली l