भगवान् दयापरवश हैं। उनका स्वभाव इतना दयालु है कि जिसको उन्होंने अपने लिये छटपटाते देखा, उसीके हो गये। वे अपने लिये किसीको दुखी देख ही नहीं सकते। संसारके जीव पुत्रके लिये, धनके लिये जितना व्याकुल होते हैं, यदि उसका शतांश भी भगवान्के लिये व्याकुल हों तो भगवान् मिले बिना न रहें। एक दिन समयपर पुत्रके न खानेपर जितनी बेचैनी होती है, दस-पाँच दिन पतिका समाचार न मिलनेपर जितना कष्ट होता है और अपनी पूँजी खो जानेपर जितना शोक होता है, यदि भगवान्के लिये भी उतना ही हो तो वे अवश्य मिल जायँ । उनकी नीति ही है। कि जो जितने प्रेमसे उनका भजन करता है, वे भी उतने ही प्रेमसे उसका भजन करते हैं। हम बाहर-बाहर चाहे जितना चिल्लायें, चाहे जितने आँसू गिरायें, वे तो हृदय ही देखते हैं और सच्ची उत्सुकता होते ही रीझ जाते हैं।
आज वे पृथ्वीके हैं। पृथ्वीके स्वामी हैं, पृथ्वीके जीवन-सखा हैं, पृथ्वीके प्राण हैं और पृथ्वीके सर्वस्व हैं। पृथ्वी उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। पृथ्वी उन्हें देखे बिना एक क्षणको कल्प समझती है। प्रेमसे, सचाईसे उनकी सेवा करती है, उनके चरणोंकी दासी है। पृथ्वीको छोड़कर भगवान् भला और कहीं कैसेरह सकते हैं! नित्य नयी-नयी लीला होती है, नयी नयी बातें होती हैं। प्रेमचर्चामें ही बड़े-बड़े आध्यात्मिक रहस्य समझा दिये जाते हैं। भगवान्की एक-एक क्रिया अपने प्रेमीको प्रसन्न करनेवाली होनेके साथ ही जगत्के हितकी भी होती है। प्रतिदिन ऐसी ही बातें होती रहीं और बहुत दिनोंतक होती रहीं, वे सब अवर्णनीय है।
एक दिन पृथ्वीने भगवान्के चरण पकड़कर प्रार्थना की कि 'भगवन्! आप इसी प्रकार अनेकों बार मेरा उद्धार करते हैं। मुझे अपनाते हैं और समय समयपर जब मैं पापियोंके, दुराचारियोंके भारसे दबने लगती हूँ तब आप अवतार धारण करके मेरी रक्षा करते हैं। राम, कृष्ण, मत्स्य, कूर्म आदि अवतार आपने मेरे ही लिये धारण किये हैं। मुझपर आपकी अनन्त कृपा है मैं आपको कृपासे दबी हुई हूँ। आप त्रिलोकीनाथ होकर भी मेरे साथ प्रियजनोंकी भाँति व्यवहार करते हैं। यह आपकी कृपा नहीं तो और क्या है ? परंतु प्रभो ! आपकी इतनी कृपा होनेपर भी मैं आपके स्वरूपते अनभिज्ञ ही हूँ। आपका वास्तविक स्वरूप क्या है, मुझे यह जाननेकी बड़ी इच्छा है।'
पृथ्वीको बात सुनकर भगवान् बड़े जोरसे हँसे, उनके हँसते ही पृथ्वीने देखा कि उनके अंदर ही ब्रह्मा, रुद्र इन्द्रादि देवता, लोकपाल, दिक्पाल, ग्रह, नक्ष तारा, पञ्चभूत, ऋषि, मुनि, मनुष्य आदि सभी स्थावर जङ्गम स्थित हैं। चतुर्दश भुवन, तीनों लोक, अष्टधा और एकथा प्रकृतिको उनके अंदर ही देखकर पृथ् आश्चर्यचकित हो गयी। उसका सारा शरीर काँपने लगा। आँखें बंद हो गय
आँखें खुलने पर पृथ्वीने देखा कि भगवान्का आश्चर्यमय रूप अब नहीं है। वे क्षीरसागरमें शेष शय्यापर शयन कर रहे हैं। लक्ष्मी उनकी सेवा कर रहो। हैं, शत्रु-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुए हैं, शीतल मन्द-सुगन्ध दिव्य वायु धीरे-धीरे पंखा झल रहा है, जिससे पीताम्बर हिल रहा है। उस क्षीरसाग धवलता समुद्रम भगवान्का श्यामसुन्दर अद्भुत शोभा पा रहा है। वास्तवमें श्याम वस्तुका दर्शन अन्धकारमें नहीं होता, प्रकाशमें ही होता है। उनके इस |रूपको देखकर और मन्द मुसकान तथा प्रेमभरीचितवनको देखकर पृथ्वी विल हो गयी। वह प्रेमपूर्वक भगवान्की स्तुति करने लगी। अभी स्तुति पूरी भी नहीं हो पायी थी कि भगवान् पुनः वाराहरूपमें हो गये और भगवान्को यह लीला देखकर पृथ्वी चकित-सी हो रही थी। भगवान्ने कहा- 'पृथ्वी! तुम मेरा वास्तविक स्वरूप जानना चाहती हो, यह बड़ी अच्छी बात है। मेरे स्वरूपका ज्ञान बड़ा ही दुर्लभ है। जिसका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, जिसने मेरी भक्ति नहीं की है, वह मेरे स्वरूप ज्ञानका अधिकारी नहीं। परंतु तुम तो मेरी प्रिय भक्त हो, तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध है, तुम्हें मैं संक्षेपमें ही बताता हूँ।' भगवान्ने कहा-
'देवि! मेरा वास्तविक स्वरूप अनिर्वचनीय है। तुम उसे कैसे जानना चाहती हो। कानोंसे सुनकर उसका एक काल्पनिक चित्र बनाना चाहती हो ! यह असम्भव है। न मैं स्वयं वाणीसे उसका वर्णन कर सकता हूँ, न तो तुम अपनी बुद्धिसे उसे सोच ही सकती हो। जहाँतक सोचनेका सम्बन्ध है, संसार ही है। मैं विषय नहीं हूँ कि मुझे देखा जा सके। सारे विषयोंको सोच डालो। उनका निषेध कर दो तो निषेध करनेवालेके मूलमें मेरा पता चल सकता है। यह भी एक संकेतमात्र है। वास्तवमें मेरा पता मैं ही हूँ।' "जाग्रत, स्वप्र, सुषुप्ति; स्थूल, सूक्ष्म, कारण; विश्व, तैजस, प्रातः विराट, सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भः अकार, उकार, मकार आदि-आदि जितने भी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य हैं, उनके परे बहुत परे में अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्दके रूपमें स्थित हूँ। यह भी तुम्हें समझानेके लिये कह रहा हूँ, मेरा यह वास्तविक वर्णन नहीं है। इस रूपमें तुम और मैं भिन्न-भिन्न नहीं, केवल मैं ही मैं हूँ। यह जगत् भी मुझसे भिन्न नहीं और इसके संचालक भी मुझसे भिन्न नहीं।'
"यह जो विराट्रूप तुमने देखा है, मेरा स्थूल रूप है। मैं विश्वके रूपमें प्रकट हूँ। आकाश मेरे शरीरका अवकाश है। वायु मेरी प्राणवायु है, चन्द्रमा सूर्य मेरी आँखें हैं, अग्नि मेरी जठराग्नि है, जल मेरे शरीरके रम हैं, नदियाँ नसें हैं, वृक्ष रोम हैं, पर्वत ह हैं और वे प्राणी मेरे शरीरके कीटाणु हैं। स्थावर जंगम सम्पूर्ण पदार्थ मेरे शरीर के अंदर हैं। जैसे जीवका एक छोटा-सा शरीर होता है, वैसे ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड मेरा शरीर है। जैसे जीवके शरीरमें मन, बुद्धि आदि होते हैं, वैसे ही मेरे शरीरमें ब्रह्मा, विष्णु आदि हैं।
मैं सबका संचालक हूँ। वे मेरे एकरूप हैं।' 'मैं इस जगत्से परे है, इसका यह अर्थ है कि जो लोग इस स्थूल जगत्में ही लगे हैं, जो मुझे नहीं जानते, मुझे भूले हुए हैं, उन्हें इस जगत्से परे रहनेवाले मुझतक पहुँचनेकी अभिलाषा हो वे स्थूलमें ही न बंधे रहें सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म और उससे भी परे पहुँच सकें। मैं विषयोंसे और जगत्से परे हैं, किंतु विषय और जगत् मुझसे परे नहीं हैं। मैं उनके भीतर ही नहीं हूँ, बाहर भी हूँ; परंतु वे मेरे बाहर नहीं हैं। मैं उनसे पृथक् हूँ, परंतु वे मुझसे पृथक् नहीं हैं। विषयोंकी दृष्टिसे द्वैत है, परंतु मेरी दृष्टिसे द्वैत नहीं है। वास्तवमें तो यह सब मेरा स्वरूप समझनेके लिये संकेतमात्र है। मैं अनिर्वचनीय हूँ। मैं अनिर्वचनीय हूँ।'
भगवान् ने बहुत से उपदेश दिये। जैसे-जैसे पृथ्वी माता प्रश्न करती जाती थीं, वैसे-वैसे भगवान् उत्तर देते जाते थे। वे प्रश्नोत्तर ही वाराह महापुराणके नामसे प्रसिद्ध हैं।
जब बहुत दिन बीत गये, तब शंकर आदिने भगवान् से लीला-संवरणके लिये प्रार्थना की। भगवान्ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके विलक्षण ढंगसे अपना शरीर परित्याग किया, जिसके अवयवोंसे सम्पूर्ण यज्ञोंकी सृष्टि हुई है। आज भी वाराह भगवान् यज्ञोंके रूपमें पृथ्वीपर ही स्थित हैं।
विभिन्न अवतारोंकी उपासना पद्धतिकी भाँति भगवान् वाराहकी भी एक उपासना पद्धति है। इनके मन्त्रका जप, इनकी मूर्तिका ध्यान करके साधक अपना अभीष्ट लाभ करता है। इनके बहुत-से मन्त्र हैं, जिनमें यहाँ केवल एक मन्त्रकी चर्चा की जाती है। वह है 'ॐ भूः वराहाय नमः।' इस षष्ठाक्षर मन्त्रके ऋषि ब्रह्मा हैं, छन्द जगती है और वराह देवता हैं। अपनी अभीष्ट सिद्धिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। इनके ध्यानका वर्णन इस प्रकार आता है
कृष्णाङ्गं नीलवस्त्रं च मलिनं पद्मसंस्थितम् ।
पृथ्वीशक्तियुतं ध्यायेच्छङ्खचकाम्बुजं गदाम् ॥
'भगवान् वाराहका शरीर श्यामवर्णका है, वे नीले रंगका वस्त्र धारण किये हुए हैं, उनके शरीरमें कीचड़लग रहा है, पृथ्वी देवतासे युक्त हैं, चारों हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म हैं और वे अपार जलराशिमें एक पद्मपर खड़े हैं।' जो साधक भगवान् वाराहका इस प्रकार ध्यानकरके विधिपूर्वक मन्त्रोंका जप करता है, उसकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं।
बोलो श्रीवाराह भगवान्की जय !