सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तुमुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी। कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्शको उसका अध्ययन कराया ॥ 1 ॥ वेददर्शके चार शिष्य हुए— शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो ॥ 2 ॥ शौनकजी ! पथ्यके तीन शिष्य थे— कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अङ्गिरा गोत्रोत्पन्न शुनकके दो शिष्य थे- बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया। अथर्ववेदके आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प,शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ ।। 3-4 ॥
शौनकजी पुराणोंके छः आचार्य प्रसिद्ध है त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ॥ 5 ॥ इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान् व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ॥ 6 ॥ उन छः संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएं थीं उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजी के शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ॥ 7 ॥
शौनकजी ! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो ॥ 8 ॥ शौनकजी । पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय) हेतु (अति) और अपाश्रय । कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच विस्तार करके दस बतलाते है और संक्षेप करके पाँच ॥ 9-10 ॥ (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक) तीन प्रकारके अहङ्कार बनते हैं। त्रिविध अहङ्कारसे ही पक्ष तन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्तिक्रमका नाम 'सर्ग' है ॥ 11 ॥ परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकमकि अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं ।। 12 ।। चर प्राणियोंकी अचर - पदार्थ 'वृत्ति' अर्थात् जीवननिर्वाहकी सामग्री है चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ शाखके आज्ञानुसार ।। 13 ।।भगवान् युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य ऋषि देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम 'रक्षा' है ॥ 14 ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र साप्तर्षि और भगवान के अंशावतार इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको 'मन्वन्तर' कहते हैं॥ 15 ॥ ब्रह्माजीसे जितने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्पराको 'वंश' कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम 'वंशानुचरित' है ॥ 16 ॥ इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं— नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको 'संस्था' कहा है॥ 17 ॥ पुराणोके लक्षणमे 'हेतु' नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमे वही सर्ग-विसर्ग आदिकर हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते है, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ॥ 18 ॥ जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं- जाग्रत्, स्वप्र और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैस और प्राशके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन |अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ 'अपाश्रय' शब्दसे कहा गया है ।। 19 नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है | 20 | जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्वगुण रजोगुण तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जामत्-स्वप्र आदि स्वाभाविक वृत्तियोका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमे 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस | समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना औरकर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ॥ 21 ॥ शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ 22 ॥ उनके नाम ये हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ।। 23-24 ॥ शौनकजी ! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसङ्ग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ॥ 25 ॥