श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और यहाँ आनन्दोत्सव की धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थीं ॥ 1 ॥ वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था ॥ 2 ॥ बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था आंखें फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित्। उसके जोरसे हॅकड़नेसे- -निष्ठुर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच छ महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुदको पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे ।। 3-4 परीक्षित् उस तीखे सींगवाले बैलकी देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहनेका स्थान छोड़कर भाग ही गये ॥ 5 ॥ | उस समय सभी व्रजवासी 'श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण हमें इस भयसे बचाओ' इस प्रकार पुकारते हुए भगवान् श्रीकृष्णकी शरण में आये। भगवान्ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है ॥ 6 ॥ तब उन्होंने 'डरने की कोई बात नहीं है यह कहकर सबको दाइस बंधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, 'अरे मूर्ख । महादुष्ट तू इन गौओ और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है ? इससे क्या होगा ॥ 7 ॥ देख, तुझ जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।' इस प्रकार ललकारकर भगवानूने ताल ठोकी और उसे क्रोधित | करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान् श्रीकृष्णको इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने सुरोसे बड़ेजोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उम समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे ॥ 8-9 ॥ उसने अपने तीखे सांग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो ॥ 10 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके | दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे | भिड़नेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंन उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया ॥ 11 ॥ भगवान् के इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही ट | खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था ॥ 12 ॥ भगवान्ने जब | देखा कि वह अब मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका सींग उखाड़कर उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया ॥ 13 ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं | और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान्पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 14 ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आनेवाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये ॥ 15 ॥
परीक्षित्! भगवान्की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र से शीघ्र भगवान्का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा ॥ 16 ॥ कंस जो कन्या तुम्हारे हाथसे चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो छूटकर आकाशमें श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।' यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ।। 17-18 ।।उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको | यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लड़के ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही | पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकड़कर फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने | केशीको बुलाया 1 और कहा- 'तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।' वह चला गया। इसके बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतोंको बुलाकर कहा 'वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ॥ 19-22 ॥ वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्होंके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती | है || 23 || अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति-भाँति के मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें ।। 24 ।। महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई। तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ॥ 25 ॥ इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलता के लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत से पवित्र पशुओंकी बलि बहुत-से चढ़ाओ ।। 26 ।।
परीक्षित् कंस तो केवल स्वार्थ साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला ॥ 27 ॥ 'अक्रूरजी आप तो बड़े उदार दानी है। सब तरहसे मेरे आदरणीय है। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढ़कर मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ।। 28 ।। यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ।। 29 ।।आप नन्दराय के व्रजमें जाइये। यहाँ वसुदेव जीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये ॥ 30 ॥ सुनते हैं, विष्णु के भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनों को मेरी मृत्युका कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपोको भी बड़ी-बड़ी भेटोके साथ ले आइये || 31 ॥ यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यदि वे कदाचित् उस हाथीसे बच गये, तो मैं अपने वज्रके सामन मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक चाणूर आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा ।। 32 ।। उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशाहवंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायेंगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा || 33 || मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्यका लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको, उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैं - उन सबको तलवारके घाट उतार दूँगा ।। 34 ।। मेरे मित्र अक्रूरजी ! फिर तो मैं होऊंगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं ॥ 35 ॥ शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर थे तो मुझसे मित्रता करते ही है, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीका अकण्टक राज्य भोगूँगा || 36 || यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालनेमें क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराको शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायें ॥ 37 ॥
अकूरजीने कहा- महाराज आप अपनी मृत्यु अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं ॥ 38 ॥ मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथों के पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारम्भके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह हर्षसे फूल उठता है और प्रतिकूल हो जाता है तो शक हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ।। 39 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं— कंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अरजी अपने घर लौट आये ॥ 40 ॥