राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्! कालिय नागने नागोंके निवासस्थान रमणक द्वीपको क्यों छोड़ा था ? और उस अकेले ही गरुडजीका कौन-सा अपराध किया था ? 1 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! पूर्वकालमें गरुडजीको उपहारस्वरूप प्राप्त होनेवाले सपने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मासमें निर्दिष्ट वृक्षके नीचे गरुडको एक सर्पको भेंट दी जाय ॥ 2 ॥इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्याको सारे स अपनी रक्षाके लिये महात्मा गरुडजीको अपना-अपना भाग देते रहते थे* ॥ 3 ॥ उन सर्पोंमें कद्रूका पुत्र कालिय नाग दूर अपने विष और बलके घमंडसे मतवाला हो रहा था। उसने गरुडका तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना रहा दूसरे साँप जो गरुडको बलि देते, उसे भी खा लेता ॥ 4 ॥ परीक्षित्! यह सुनकर भगवान्के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुडको बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नागको मार डालनेके विचारसे बड़े वेगसे उसपर आक्रमण किया ॥ 5 ॥ विषधर कालिय नागने जब देखा कि गरुड बड़े वेगसे मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसनेके लिये उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये उसने दाँतोंसे गरुडको डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभ लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं ॥ 6 ॥ तार्क्ष्यनन्दन गरुडजी विष्णुभगवान् के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नागकी यह दिलाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने उसे अपने शरीरसे झटककर फेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंखसे कालिय नागपर बड़े जोरसे प्रहार किया ॥ 7 ॥ उनके पंखकी चोटसे कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कुण्डमें चला आया यमुनाजीका यह कुण्ड गरुडके लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे ॥ 8 ॥ इसी स्थानपर एक दिन क्षुधातुर गरुडने तपस्वी सौभरिके मना करनेपर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्यको बलपूर्वक पकड़कर खा लिया ॥ 9 ॥ अपने मुखिया मत्स्यराजके मारे जानेके कारण मछलियोंको बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरिको बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्डमें रहनेवाले सब जीवोंकी भलाई के लिये गरुडको यह शाप दे दिया ॥ 10 ॥ यदि | गरुड फिर कभी इस कुण्डमें घुसकर मछलियोंको खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य सत्य कहता हूँ ॥ 11 ॥परीक्षित्। महर्षि सौभरिके इस शापकी बात कालिय नागके सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुडके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान् श्रीकृष्णने उसे निर्भय करके वहाँसे रमणक द्वीपमें भेज दिया ।। 12 ।। परीक्षित् इधर भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य माला गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो उस कुण्डसे बाहर निकले ॥ 13 ॥ उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपोका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपने कन्हैयाको हृदयसे लगाने लगे ॥ 14 ॥ परीक्षित् यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोप— सभी श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया ।। 15 ।। बलरामजी तो भगवान्का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े- सब-के-सब आनन्दमन हो गये ॥ 16 ॥ गोपोंके कुलगुरु ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके साथ नन्दबाबाके पास आकर कहा -'नन्दजी! तुम्हारे बालकको कालिय नागने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्यकी बात है ! ।। 17 ।। श्रीकृष्णके मृत्युके मुखसे लौट आनेके उपलक्ष्यमें तुम ब्राह्मणोंको दान करो।' परीक्षित् ब्राह्मणोंकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणोंको दान दीं ॥ 18 ॥ परमसौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं ॥ 19 ll
राजेन्द्र । व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रजमें नहीं गये, वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे ॥ 20 ॥ गर्मी के दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासिको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी ।। 21 आगकी आंच लगनेपर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी शरण में गये ॥ 22 ॥उन्होंने कहा – 'प्यारे श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! महाभाग्यवान् बलराम ! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयङ्कर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको जलाना ही चाहती है ॥ 23 ॥ तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आगसे हमें बचाओ प्रभो ! हम मृत्युसे नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़नेमें हम असमर्थ हैं ॥ 24 ॥ भगवान् अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयङ्कर आगको पी गये * ॥ 25 ॥