श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् । जाम्बवती नन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरोंपर विजय प्राप्त करनेवाले थे। वे स्वयंवरमें स्थित दुर्योधनकी कन्या | लक्ष्मणाको हर लाये || 1 | इससे कौरवोंको बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले-'यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हमलोगोंको नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्याका अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी ॥ 2 ॥ अतः इस ढीठको पकड़कर बाँध लो । यदि यदुवंशीलोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे ? वे लोग हमारी ही कृपासे हमारी ही दी हुई धन-धान्यसे परिपूर्ण पृथ्वीका उपभोग कर रहे हैं ॥ 3 ॥ यदि वे लोग अपने इस लड़केके बंदी होनेका समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हमलोग उनका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगोंके मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायेंगे, जैसे संयमी पुरुषके द्वारा प्राणायाम आदि उपायोंसे वशमें की हुई इन्द्रियाँ || 4 || ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरोंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ोंकी अनुमति ली तथा साम्बको पकड़ लेनेकी तैयारी की ll 5 ll
जब महारथी साम्बने देखा कि धृतराष्ट्रके पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंहके समान अकेले ही रणभूमिमें डट गये ॥ 6 ॥ इधर कर्णको मुखिया बनाकर कौरववीर धनुष चढ़ाये हुए साम्बके पास आ पहुँचे और क्रोधमें भरकर उनको पकड़ लेनेकी इच्छासे 'खड़ा रह ! खड़ा रह!' इस प्रकार ललकारते हुए | बाणोकी वर्षा करने लगे ॥ 7 ॥ परीक्षित्! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णके पुत्र थे। कौरवों के प्रहारसे वे उनपर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनोंका | पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है ॥ 8 ॥ साम्बने अपने सुन्दर धनुषका टंकार करके कर्ण आदि छः वीरोंपर, जो अलग अलग छः रथोपर सवार थे, छः-छः बाणोंसे एक साथ अलग-अलग प्रहार किया ॥ 9 ॥उनमें से चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ोंपर, एक-एक उनके सारथियोंपर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरोंपर छोड़ा। साम्बके इस अद्भुत हस्तलाघवको देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठसे उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 10 इसके बाद उन छहों वीरोंने एक साथ मिलकर साम्बको रथहीन कर दिया। चार वीरोंने एक-एक बाणसे उनके चार घोड़ोंको मारा, एकने सारथिको और एकने साम्बका धनुष काट डाला ।। 11 ।। इस प्रकार कौरवोंने युद्धमें बड़ी कठिनाई और कष्टसे साम्बको रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणाको लेकर जय मनाते हुए हस्तिनापुर लौट आये ॥ 12 ॥
परीक्षित् नारदजीसे यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेनकी आज्ञासे कौरवोंपर चढ़ाई करनेकी तैयारी करने लगे ॥ 13 ॥ बलरामजी कलहप्रधान कलियुगके सारे पाप तापको मिटानेवाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियोंके लड़ाई | झगड़ेको ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्यके समान तेजस्वी रथपर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंशके बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीचमें बलरामजी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहों से घिरे हुए हों ।। 14-15 हस्तिनापुर पहुँचकर बलरामजी नगरके बाहर एक उपवनमें ठहर गये और कौरवलोग क्या करना चाहते हैं, इस बातका पता लगानेके लिये उन्होंने उद्धवजीको धृतराष्ट्रके पास भेजा ।। 16 ।।
उद्भव कौरवोंक सभामे जाकर भूतराष्ट्र, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, बाह्रीक और दुर्योधनकी विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि 'बलरामजी पधारे हैं' ॥ 17 ॥ अपने परम हितैषी और प्रियतम बलरामजीका आगमन सुनकर कौरवोंकी प्रसन्नताकी सीमा न रही। ये उद्धवजीका विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथोंमें माङ्गलिक सामग्री लेकर बलरामजीकी अगवानी करने चले ।। 18 ।। फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्धके अनुसार सब लोग बलरामजी से मिले तथा उनके सत्कार के लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्घ्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान् बलरामजीका प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ।। 19 ।। तदनन्तर उन लोगोने परस्पर एक-दूसरेका कुशल-मङ्गल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलरामजीने बड़ी धीरता और गम्भीरताके साथ यह बात कही ॥ 20 ॥'सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेनने तुमलोगोंको एक आज्ञा दी है। उसे तुमलोग एकाग्रता और सावधानीके साथ सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो ॥ 21 ॥ उग्रसेनजीने कहा है- हम जानते हैं कि तुमलोगोंने कइयोंने मिलकर अधर्मसे अकेले धर्मात्मा साम्बको ह्या दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियोंमें परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्बको उसकी नववधूके साथ हमारे पास भेज दो ) ॥ 22 ॥
परीक्षित्। बलरामजीको वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुष के उत्कर्षसे परिपूर्ण और उनकी शक्तिके अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोधसे तिलमिला उठे। वे कहने लगे- ॥ 23 ॥ 'अहो, यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! सचमुच कालकी चालको कोई टाल नहीं सकता। तभी तो आज पैरोंकी जूती उस सिरपर चढ़ना चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुटसे सुशोभित है ।। 24 ।। इन यदुवंशियोंके साथ किसी प्रकार हमलोगोंने विवाह सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पतिमें खाने लगे। हमलोग ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना श्वेतछत्र, लिया ॥ 25 ॥ ये यदुवंशी चैव पेश छत्र, मुकुट, चंवर, पंखा, शङ्ख, राजसिंहासन और राजोचित शय्याका उपयोग उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जान-बूझकर इस विषय में उपेक्षा कर रखी है । 26 ॥ बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियोंके पास अब राजचिह्न रहनेकी आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँपको दूध पिलाना पिलानेवालेके लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नों को लेकर ये यदुवंशी हमसे ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा प्रसादसे तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज होकर हमपर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है शोक है ! ॥ 27 ।। जैसे सिंहका ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तुका उपभोग कैसे कर सकते हैं ? ॥ 28 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवारवालों (भीष्मादि) के बल और धनसम्पत्तिके धर्मडमें चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचार की भी परवा नहीं की और वे भगवान् बलरामजीको इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये ॥ 29 ॥ बलरामजीने कौरवोंकी दुष्टता अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोधसे तमतमा उठा।उस समय उनकी ओर देखातक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हँसकर कहने लगे- ॥ 30 ॥ सच है, जिन दुष्टोंको अपनी कुलीनता, बलवौरव और धनका घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करनेका, रास्तेपर लानेका उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है-ठीक वैसे ही जैसे पशुओंको ठीक करनेके लिये | डंडेका प्रयोग आवश्यक होता है ॥ 31 ॥ भला, देखो तो सही घारे यदुवंशी और श्रीकृष्णण भी क्रोधसे भरकर लड़ाईके लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनैः-शनैः समझा बुझाकर इन लोगोंको शान्त करनेके लिये, सुलह करनेके लिये यहाँ आया ॥ 32 ॥ फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं! इन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है। ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गालियाँ बक गये हैं ।। 33 ।। ठीक है, भाई ! ठीक है। पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, त्रिलोकीके स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके ही स्वामी है ॥ 34 ॥ क्यों ? जो युधसभाको अधिकारमें करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओंके वृक्ष पारिजातको उखाड़कर ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान् श्रीकृष्ण भीराजसिंहासनके अधिकारी नहीं है अच्छी बात है ! ॥ 35 ॥ सारे जगत्की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरणकमलोंकी उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चैंवर आदि राजोचित सामग्रियोंको नहीं रख सकते ।। 36 ।। ठीक है भाई! जिनके चरणकमलोंको धूल संत पुरुषोंके द्वारा सेवित गङ्गा आदि तीथोको भी तीर्थ बनानेवाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुटपर जिनके चरणकमलोंकी धूल धारण करते हैं; ब्रह्मा, शङ्कर, मैं और लक्ष्मीजी जिनकी कलाकी भी कला है और जिनके चरणोंकी धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान् श्रीकृष्णके लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है ! | 37 ॥ बेचारे यदुवंशी तो कौरवोंका दिया हुआ पृथ्वीका एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब ! हमलोग जूती हैं. और ये कुरुवंशी स्वयं सिर है ।। 38 ।। ये लोग ऐश्वर्यसे उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल सरीखे हो रहे हैं। इनकी एक-एक बात कटुता भरी और बेसिर-पैरवी है। मेरे जैसा पुरुष - जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है-भला इनकी बातोंको कैसे सहन कर सकता है ? ॥ 39 ॥ आज मैं सारी पृथ्वीको कौरवहीन कर डालूंगा, इस प्रकार कहते कहते बलरामजी क्रोधसे ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकीको भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये ॥ 40 ॥उन्होंने उसकी नोकसे बार-बार चोट करके हस्तिनापुरको उखाड़ लिया और उसे डुबानेके लिये बड़े क्रोध गङ्गाजीकी ओर खींचने लगे ।। 41 ।।
हलसे खींचने पर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा, मानो जलमें कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवोंने देखा कि हमारा नगर तो गङ्गाजीमें गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे ॥ 42 ॥ फिर उन लोगोंने लक्ष्मणाके साथ साम्बको आगे किया और अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कुटुम्बके साथ हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान् बलरामजीकी शरणमें गये ॥ 43 ॥ और कहने लगे- 'लोकाभिराम बलरामजी आप सारे जगत्के आधार शेषजी है। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो! हमलोग मूढ़ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हमलोगोंका अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ 44 ॥ आप जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं ॥ 45 ॥ अनन्त ! आपके सहस्र सहस्र सिर हैं। और आप खेल खेलमें ही इस भूमण्डलको अपने सिरपर रखे रहते हैं। जब प्रलयका समय आता है, तब आप सारे जगत्को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूपसे शयन करते हैं ॥ 46 ॥ भगवन् ! आप जगत् की स्थिति और पालनके लिये विशुद्ध सत्त्वमय है शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सरके कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियोंको शिक्षा देनेके लिये है ।। 47 ।। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन्! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्वके रचयिता देव हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरणमें हैं। आप | कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये ' ll 48 ll
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् कौरवोंका नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहटमें पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान् बलरामजीकी शरण में आये और उनकी स्तुति प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और 'डरो मत' ऐसा कहकर उन्हें | अभयदान दिया ॥ 49 परीक्षित्! दुर्योधन अपनी पुत्री | लक्ष्मणासे बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेजमें साठ-साठ | वर्षके बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्यके समानचमकते हुए सोनेके छः हजार रथ और सोनेके हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं ॥ 50-51 ॥ यदुवंशशिरोमणि भगवान् बलरामजीने यह सब दहेज स्वीकार किया और नवदम्पति लक्ष्मणा तथा साम्बके साथ कौरवोंका अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारकाकी यात्रा की ॥ 52 ॥ | अब बलरामजी द्वारकापुरीमें पहुँचे और अपने प्रेमी तथा | समाचार जाननेके लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवोंसे मिले । उन्होंने यदुवंशियोंकी भरी सभामें अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुरमें उन्होंने कौरवोंके साथ किया था ॥ 53 ॥ परीक्षित् ! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिणकी ओर ऊँचा और गङ्गाजीकी ओर कुछ झुका हुआ है और | इस प्रकार यह भगवान् बलरामजीके पराक्रमकी सूचना दे रहा है ॥ 54 ॥