श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! जब राजा बलिको पालामे साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु त्रिलोकीको नापनेके लिये अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें पैर के अंगूठेके नखसे ब्रह्माण्डकटाहका ऊपरका भाग फट गया। उस छिद्रमें होकर जो ब्रह्माण्डसे बाहरके जलकी धारा आयो, वह उस चरणकमलको धोनेसे उसमें लगी हुई केसरके मिलनेसे लाल हो गयी। उस निर्मल धाराका स्पर्श होते ही संसारके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नामसे न पुकारकर उसे 'भगवत्पदी' ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतनेपर स्वर्गके शिरोभागमें स्थित लोकमे उतरी, जिसे 'विष्णुपद' भी कहते हैं॥ 1 ॥ वीरव्रत परीक्षित्! उस ध्रुवलोकमे उत्तानपादके पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभावसे 'यह हमारे कुलदेवताकर चरणोदक है' ऐसा मानकर आज भी उस जलको बड़े आदरसे सिरपर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमावेशके कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्रद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों | नयन-कमलोंसे निर्मल आँसुओंकी धारा बहने लगती है। और शरीरमें रोमाञ्च हो आता है॥ 2 ॥
इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जाननेके कारण 'यही तपस्याकी आत्यन्तिक सिद्धि है' ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूटपर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्तिको। यों ये बड़े ही निष्काम हैं, सर्वात्मा भगवान् वासुदेवकी निश्चल भक्तिको ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओंको त्याग दिया है, यहाँतक कि आत्मज्ञानको भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते 3 । वहाँसे गाजी करोड़ों विमानोंसे घिरे हुए आकाशमें होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डलको आप्लावित करती मेरुके शिखरपर ब्रह्मपुरीमे गिरती है ll 4 ll वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामसे
चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग
चारों दिशाओंमें बहती हुई अन्तमें नद-नदियोंके अधीश्वर
समुद्रमें गिर जाती हैं ॥ 5 ॥इनमें सीता ब्रह्मपुरीसे गिरकर केसराचलोंके सर्वोच्च शिखरोंमें होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरोंपर गिरती है और भद्राश्ववर्षको प्लावित कर पूर्वकी ओर खारे समुद्रमे मिल जाती है ।। 6 ।। इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखरपर पहुंचकर वहाँसे बेरोक-टोक केतुमालवर्षमें बहती पश्चिमकी ओर क्षारसमुद्रमें जा मिलती है ॥ 7 ॥ भद्रा मेरुपर्वतके शिखरसे उत्तरकी ओर गिरती है तथा एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर जाती अन्तमें शृङ्गवान्के शिखरसे गिरकर उत्तरकुरु देशमें होकर उत्तरकी ओर बहती हुई समुद्रमे मिल जाती है ॥ 8 ॥ अलकनन्दा ब्रह्मपुरीसे दक्षिणकी ओर गिरकर अनेकों गिरि-शिखरोंको लाँघती हेमकूट पर्वतपर पहुँचती है, वहाँसे अत्यन्त तीन वेगसे हिमालय के शिखरोंको चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिणकी ओर समुद्रमें जा मिलती है। इसमें स्नान करनेके लिये आनेवाले पुरुषी को पद-पदपर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञोंका फल भी दुर्लभ नहीं है ॥ 9 ॥ प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतोंसे निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ है॥ 10 ॥
इन सब वर्षो भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषोंके स्वर्गभोगसे बचे हुए पुण्यों को भोगनेके स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोकके स्वर्ग भी कहते हैं ॥ 11 ॥ वहाँके देवतुल्य मनुष्योंकी मानवी गणनाके अनुसार दस हजार वर्षकी आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियोंका बल होता है तथा उनके वज्रसदृश मुद्द शरीरमें जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं उनके कारण वे बहुत समयतक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्तमें जब भोग समाप्त होनेपर उनकी आयुका केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती है। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुगके समान समय बना रहता है ।। 12 ।। वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतोकी घाटियाँ हैं जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओंके फूलोंके गुच्छे फल और नूतन पल्लवोंकी शोभाके भारसे झुकी हुई डालियों और लताओंवाले वृक्षोंसे सुशोभित है; वहाँ निर्मल जलसे भरे हुए ऐसे जलाशय भी है; जिनमे तरह-तरहके नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलोंकी सुगन्धसे प्रमुदित होकरराजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी तरह-तरहकी बोली बोलते तथा विभिन्न जातिके मतवाले और मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं। इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँकै देवेश्वर- गण परम सुन्दरी देवाङ्गना अंक साथ उनके कामोन्मादसूचक हास-विलास और लीला कटाक्षोंसे मन और नेत्रोंके आकृष्ट हो जानेके कारण जलक्रीडादि नाना प्रकारके खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकारकी सामग्रियोंसे उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं ।। 13 ।।
इन नवों वर्षो में परमपुरुष भगवान् नारायण वहाँके पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियोंसे विराजमान रहते हैं ॥ 14 ॥ इलावृतवर्षमें एकमात्र भगवान् शङ्कर पुरुष हैं। श्रीपार्वतीजीके शापको जाननेवाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसङ्गका हम आगे (नवम स्कन्धमें) वर्णन करेंगे ॥ 15 ॥ वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियोंसे | सेवित भगवान् शङ्कर परम पुरुष परमात्माकी वासुदेव, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध और सङ्कर्षणसंज्ञक चतुर्व्यूह मूर्तियोंमेंसे अपनी कारणरूपा सङ्कर्षण नामकी तमः प्रधान चौथी मूर्तिका ध्यानस्थित मनोमय विग्रहके रूपमें चिन्तन करते हैं और इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं* ll 16 ll
भगवान् शङ्कर कहते हैं— 'ॐ जिनसे सभी गुणोंकी अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओङ्कारस्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान्को नमस्कार है। 'भजनीय प्रभो। आपके चरणकमल भक्तोंको आश्रय देनेवाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वयक परम आश्रय हैं। भक्तोंके सामने आप अपना भूतभावन स्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धनसे भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तोंको उस बन्धनमें डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ ।। 17-18 ॥ प्रभो । हमलोग क्रोधके आवेगको नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पापसे लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसारका नियमन करनेके लिये निरन्तर साक्षीरूपसे उसके सारे व्यापारोंको देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरफ आपकी दृष्टिपर उन मायिक विषयों तथा चित्तकी वृत्तियोंका नाममात्रको भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थितिमें अपने मनको वशमें करनेकी इच्छावाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा ? ।। 19 ।। आप जिन पुरुषोंको मधु-आसवादि पानके कारण अरुणनयन और मतवाले जान । पढ़ते हैं, वे मायाके वशीभूत होकर ही ऐसा मिथ्या दर्शन करते हैंतथा आपके चरणस्पर्शसे ही चित्त चञ्चल हो जानेके कारण नागपत्त्रियाँ लज्जावश आपकी पूजा करनेमें असमर्थ हो जाती हैं ॥ 20 ॥ वेदमन्त्र आपको जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयका कारण बताते हैं; परन्तु आप स्वयं इन तीनों विकारोंसे रहित हैं; इसलिये आपको 'अनन्त' कहते हैं। आपके सहस्र मस्तकोंपर यह भूमण्डल सरसोंके दानेके समान रखा हुआ है, आपको तो यह भी नहीं मालूम होता कि वह कहाँ स्थित है ॥ 21 ॥ जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहङ्काररूप अपने त्रिगुणमय तेजसे देवता, इन्द्रिय और भूतोंकी रचना करता हूँ—वे विज्ञानके आश्रय भगवान् ब्रह्माजी भी आपके ही महत्तत्त्वसंज्ञक प्रथम गुणमय स्वरूप हैं ॥ 22 ॥ महात्मन् ! महत्तत्त्व, अहङ्कार इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पञ्चभूत आदि हम सभी डोरीमें बँधे हुए पक्षीके समान आपकी क्रियाशक्तिके वशीभूत रहकर आपकी ही कृपासे इस जगत्की रचना करते हैं ॥ 23 ॥ सत्त्वादि गुणोंकी सृष्टि | मोहित हुआ यह जीव आपकी ही रची हुई तथा कर्म-बन्धनमें बाँधनेवाली मायाको तो कदाचित् जान भी लेता है, किन्तु उससे मुक्त होनेका उपाय उसे सुगमतासे नहीं मालूम होता । इस जगत्की उत्पत्ति और प्रलय भी आपके ही रूप हैं। | ऐसे आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ' ॥ 24 ॥