श्रीशुकदेवजी कहते हैं - परीक्षित् ! उस समय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान् के इस कर्मकी प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ 1 ॥ स्वर्गमें दुन्दुभियाँ वजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करने लगे ॥ 2 ॥ इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीरसे सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले 'हुहू' नामका एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवलके शापसे उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान्की कृपासे वह मुक्त हो गया ॥ 3 ॥ उसने सर्वेश्वर भगवान्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान्के सुयशका गान करने लगा। वास्तवमें अविनाशी भगवान् ही सर्वश्रेष्ठ कोर्तिसे सम्पन्न हैं। उन्होंके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने योग्य हैं ॥ 4 ॥ भगवान्के कृपापूर्ण स्पर्शसे उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान्की परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोककी यात्रा की ।। 5 ।।गजेन्द्र भी भगवान्का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञानके बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान्का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया ॥ 6 ॥ गजेन्द्र पूर्वजन्ममें द्रविड देशका पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान्का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था ॥ 7 ॥ एक बार राजा इन्द्र राजपाट छोड़कर मलयपर्वतपर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वीका वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नानके बाद पूजाके समय मनको एकाग्र करके एवं मौन होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान्की आराधना कर रहे थे ॥ 8 ॥ उसी समय दैवयोगसे परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्मका परित्याग करके तपस्वियोंकी तरह एकान्तमें चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्नपर क्रुद्ध हो गये ॥ 9 ॥ उन्होंने राजाको यह शाप दिया - इस राजाने गुरुजनोंसे शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकारसे निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला यह हाथोंके समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथीकी योनि प्राप्त हो' ॥ 10 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शाप एवं वरदान देनेमें समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँसे चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्नने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध दी था ॥ 11 इसके बाद आत्माको विस्मृति करा | देनेवाली हाथीकी योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान्की आराधनाका ऐसा प्रभाव है कि हाथी होनेपर भी उन्हें भगवान्की स्मृति हो ही गयी ॥ 12 ॥ भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार गजेन्द्रका उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीलाका गान करने लगे और वे पार्थरूप गजेन्द्रको साथ ले गरुड़परसवार होकर अपने अलौकिक धामको चले गये ॥ 13 ॥ कुरुवंश-शिरोमणि परीक्षित् मैंने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा तथा गजेन्द्रके उद्धारको कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसङ्ग सुननेवालोंके कलिमल और दुःखमको मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है ।। 14 । इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दुःस्वप्र आदिकी शान्तिके लिये प्रातःकाल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं ॥ 15 ॥ परीक्षित् ! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान्ने सब लोगों के सामने ही उसे यह बात कही थी ॥ 16 ॥
श्रीभगवान् ने कहा- जो लोग रातके पिछले पहरमें उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्तसे मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शङ्करजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अमि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्त शिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैवे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ।। 17-24 ॥ प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा ॥ 25 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शङ्ख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये ॥ 26 ॥