नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणोंकी निष्ठा कर्ममें, कुछकी तपस्यामें, कुछकी वेदोंके स्वाध्याय और प्रवचनमें कुछकी आत्मज्ञानके सम्पादनमें तथा | कुछकी योगमें होती है ॥ 1 ॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्मका अक्षय फल प्राप्त करनेके लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुषको ही ह कव्यका दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदिको यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ 2 ॥देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये || 3 || क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनोंको | देनेसे और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ 4 ॥ देश और कालके प्राप्त होनेपर ऋषि-मुनियों के भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान्को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ 5 ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने आपको भी अन्नका विभाजन करनेके समय परमात्म स्वरूप ही देखे || 6 ll
धर्मका मर्म जाननेवाला पुरुष श्राद्धमें मांसका अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरोंको ऋषि-मुनियोंके योग्य हविष्यान्नसे जैसी प्रसन्नता होती है, पशु-हिंसा नहीं होती ॥ 7 ॥ जो लोग सद्धर्मपालनको अभिलाषा रखते है, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणीको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाय ॥ 8 ॥ इसीसे कोई-कोई यज्ञ-तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी ज्ञानके द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्निमें इन कर्ममय यज्ञोका हवन कर देते है और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं ॥ 9 ॥ जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञोंसे यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणोंका पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ 10 ॥ इसलिये धर्मज्ञ मनुष्यको यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्धके द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्नसे ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसीसे सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥ 11 ॥ अधर्मकी पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल । धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ 12 ॥ जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह "विधर्म' है। किसी अन्यके द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हुआ धर्म 'परधर्म' है। पाखण्ड या दम्भका नाम 'उपधर्म' अथवा 'उपमा' है। शास्त्रके वचनोंका दूसरे प्रकारका अर्थ कर देना 'छल' है ॥ 13 ॥मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छासे जिसे धर्म मान लेता है, वह 'आभास' है। अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ।। 14 ।। धर्मात्मा पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकारकी चेष्टा किये अजगरकी जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृतिपरायण पुरुषको निवृत्ति ही उसकी जीविकाका निर्वाह कर देती है ।। 15 ।। जो सुख अपनी आत्मामें रमण करनेवाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुषको मिलता है, वह उस मनुष्यको भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभसे धनके लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ॥ 16 ॥ जैसे पैरोंमें जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटोंसे कोई डर नहीं होता वैसे ही जिसके मन सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख ही सुख है, दुःख है ही नहीं ॥ 17 ॥ युधिष्ठिर न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु | रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके फेरमें पड़कर यह बेचारा घरकी | चौकसी करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है ॥ 18 ॥ जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते है और यह विवेक भी खो बैठता है ।। 19 ।। भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता || 20 || अनेक विषयोंके ज्ञाता, शङ्काओंका समाधान करके चितमें शास्त्रोक्त अर्थको बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओंके सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर जाते हैं ।। 21 ।।
धर्मराज! सङ्कल्पोंके परित्यागसे कामको, कामनाओंके त्यागसे क्रोधको, संसारी लोग जिसे 'अर्थ' , कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भवको जीत लेना चाहिये ॥ 22 ॥ अध्यात्म विद्यासे शोक और मोहपर, संतोंकी उपासनासे दम्भपर, मौनके द्वारा योगके विनोपर और शरीर प्राण आदिको निशेष्ट करके हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ 23 ॥ आधिभौतिक दुःखको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक, दुःखको योगबलसे एवं निद्राको सात्त्विकभोजन, स्थान, सङ्ग आदिके सेवनसे जीत लेना चाहिये ॥ 24 ॥ सत्वगुणके द्वारा रजोगुण एवं तमोगुणपर और उपरतिके द्वारा सत्त्वगुणपर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेवकी भक्तिके द्वारा साधक इन सभी दोषोंपर सुगमतासे विजय प्राप्त कर सकता है ॥ 25 ॥ हृदयमें ज्ञानका दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही है जो दुर्बु पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र श्रवण हाथीके स्नानके समान व्यर्थ है ।। 26 ।। बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरण कमलोंका अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेवके रूपमें प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं ॥ 27 ॥
शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर — इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन ये छः वशमें हो जायें। ऐसा होनेपर भी यदि उन नियमोंके द्वारा भगवान्के ध्यान-चित्तन आदिकी प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ 28 ॥ जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग साधनाके फल भगवत्प्राप्ति या मुक्तिको नहीं दे सकते वैसे ही दुष्ट पुरुषके औत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं ।। 29 ।।
जो पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रहका त्याग करके संन्यास ग्रहण करे एकान्तमें अकेला ही रहे और भिक्षावृत्तिसे शरीर निर्वाहमात्रके लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ।। 30 ।। युधिष्ठिर पवित्र और समान भूमिपर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर भावसे समान और सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐ कारका जप करे 31 ॥ जबतक मन सङ्कल्प-विकल्पोंको छोड़ न दे, तबतक नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचकद्वारा प्राण तथा अपानकी गतिको रोके ॥ 32 ॥ कामकी चोटसे घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह वहाँ-वहाँसे उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदयमें रोके ॥ 33 ॥ जब साधक निरन्तर इस प्रकारका अभ्यास करता है, तब ईंधनके बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समयमें उसका चित्त शान्त हो जाता है ।। 34 ।। इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्दके संस्पर्शमें मग्न हो जाता है और फिरउसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ 35 ॥
जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और कामके मूल कारण गृहस्थाश्रमका परित्याग कर देता है और फिर उन्हींका सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुएको खानेवाला कुत्ता ही है ।। 36 ।। जिन्होंने अपने शरीरको अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था -वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं 37 ॥ कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँवमें रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी—ये चारों आश्रमके कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमोका ढोंग करते हैं। भगवान्की मायासे विमोहित उन मूढ़ोंपर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ।। 38-39 ।। आत्मज्ञानके द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी है और जिसने अपने आत्माको परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषयकी इच्छा और किस भोक्ताकी तृप्तिके लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीरका पोषण करेगा ? ll 40 ll
उपनिषदोंमें कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियोंका स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान्के द्वारा निर्मित बाँधनेकी विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐ कार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कारके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लीन कर देना चाहिये) 41-42 राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरेके गुणोंमें दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरेकी उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक है, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्वगुणप्रधान ही होती हैं ।। 43-44 यह मनुष्य शरीररूप रथ जबतक अपने वशमें है और इसके इन्द्रिय मन आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान है, तभीतक श्रीगुरुदेवके चरणकमलोकी सेवा-पूजासे शान धरावी हुई ज्ञानको तीखी तलवार लेकर भगवान्के आश्रयसे इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वाराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जायऔर फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दे ॥ 45 ॥ नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूप दृष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथके स्वामी जीवको उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरोंके हाथोंमें डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ोंके सहित इस जीवको मृत्युसे अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसारके कुएँ में गिरा देंगे || 46 ।।
वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं—एक तो थे जो वृत्तियोंको उनके विषयों की ओर ले जाते हैं-प्रवृत्तिपरक, और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कारके योग्य बना देते हैं— निवृत्तिपरक प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्म-मृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृतिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ 47 ॥ श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म 'इष्ट' कहलाते है और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना 'पूर्तकर्म' हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभावसे युक्त होनेपर अशान्तिके ही कारण बनते हैं ।। 48-49 ।। प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरनेपर चरु पुरोडाशदि यज्ञसम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओंके पास जाता है। फिर क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके अभिमानी देवताओंके पास जाकर चन्द्रलोकमें पहुँचता है। वहाँसे भोग समाप्त होनेपर अमावस्याके चन्द्रमाके समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान मार्ग से पुनः संसारमें हो लेता है ॥ 50-51 ॥ युधिष्ठिर। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यत सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको 'दिन' कहते हैं। उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्गका अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्गका) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट पूर्त आदि कर्मोंसे होनेवाले समस्त यज्ञोंको विषयोंका ज्ञान करानेवाले इन्द्रियोंमें हवन कर देता है ।। 52 ।। इन्द्रियोंको दर्शनादि सङ्कल्परूप मनमें, वैकारिक मनको परा वाणीमें और परा वाणीको वर्णसमुदायमें, वर्णसमुदायको 'अ उ म्' इन तीन स्वरोंके रूपमें रहनेवाले 33 कारमें, ॐ कारको विन्दु | बिन्दुको नादमें, नादको सूत्रात्मारूप प्राणमें तथाप्राणको ब्रहामें लीन कर देता है ॥ 53 ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और वहाँके भोग समाप्त होनेपर वह स्थूलोपाधिक 'विश्व' अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक 'तेजस' हो जाता है फिर सूक्ष्म उपाधिको कारणमें लय करके कारणोपाधिक 'प्राज्ञ' रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूपसे सर्वत्र अनुगत होनेके कारण साक्षीके ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके 'तुरीय' रूपसे स्थित होता है। इस प्रकार दृश्योंका लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ 54 ॥ इसे 'देवयान' मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसारकी ओरसे निवृत्त होकर क्रमशः एकसे दूसरे देवताके पास होता हुआ ब्रह्मलोकमें जाकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गकि समान फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता ।। 55 ।।
ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग है। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वतः जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ 56 ॥ पैदा होनेवाले | शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है तथा ऊँच और नीच जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ 57 ॥ दर्पण आदिमें दीख पड़नेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव असम्भव होनेके कारण वस्तुतः न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ 58 ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे | देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतोंका सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ 59 ॥ इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवों-सूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलतावह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भीअसत्य ही हैं ॥ 60 ॥ जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्रमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्र आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र रहते हैं—वैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ॥ 61 ॥
जो विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैं वे जाग्रत, स्वप्र सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकारके है-भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्या द्वैत ॥ 62 ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार 'भावाद्वैत' है ॥ 63 ॥ युधिष्ठिर । मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे है, उसीमें अध्यस्त है— इस भावसे समस्त कमको समर्पित कर देना 'क्रियाद्वैत' है ॥ 64 ॥ स्त्री पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंकि तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही है, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं है इस प्रकारका विचार 'द्रव्याद्वैत' है॥ 65 ॥
युधिष्ठिर! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना शाखाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपतिकालको छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ 66 ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कमक तथा अन्यान्य सकर्मक अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त करता है ॥ 67 युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्होंके चरणकमलोकी सेवा समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं॥ 68 ॥
पूर्वजन्ममें इसके पहलेके महाकल्पमें मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था। 69 मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व ॥ थी मेरे शरीरमे सुगन्धिनिकला करती और देखनेमें में बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करती और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ॥ 70 ॥ एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्को लोलाका गान करनेके लियेउन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ॥ 71 ॥ मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्की लौलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हम लोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि 'तुमने हमलोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ' ॥ 72 ॥ उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र- जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ॥ 73 ॥ संतोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत सेवासे ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ।। 74 ।।
युधिष्ठिर! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।। 75 ।। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूंढते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—ये ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं । 76 ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर 'वे यह हैं' – इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 77 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ 78 देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है, यह सुनकर युधिष्ठिरके आर्यको सीमा न रही ।। 79 ।। परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष पुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्होंके वंशमें देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि हुई है ll 80 ll