श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अब मैं तुम्हें चन्द्रमाके पावन वंशका वर्णन सुनाता हूँ। इस वंशमें पुरूरवा आदि बड़े-बड़े पवित्रकीर्ति राजाओंका कीर्तन किया जाता है ॥ 1 ॥सहस्त्रों वाले विराट् पुरुष नारायणके नाभिसर काजीकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजीक पुत्र हुए। वे अपने गुणांक कारण ब्रह्माजीके समान ही थे॥ 2 ॥ उन्हें अत्रिके नेत्रोंसे अमृतमय चन्द्रमाका जन्म हुआ। ब्रह्माजीने चन्द्रमाको ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रोंका अधिपति दिया ॥ 3 ॥ उन्होंने तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पतिकी पत्नी ताराको हर लिया ॥ 4 ॥ देवगुरु बृहस्पतिने अपनी पत्नीको लौटा देनेके लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नीको नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थितिमें उसके लिये देवता और दानवमें घोर संग्राम छिड़ गया ॥ 5 ॥ शुक्राचार्यजीने बृहस्पतिजीके द्वेषसे असुरोके साथ चन्द्रमाका पक्ष ले लिया और महादेवजीने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अङ्गिराजीके पुत्र बृहस्पतिका पक्ष लिया || 6 || देवराज इन्द्रने भी सम देवताओंके साथ अपने गुरु बृहस्पतिजीका ही पक्ष लिया। इस प्रकार ताराके निमित्तसे देवता और असुरोंका संहार करनेवाला घोर संग्राम हुआ ।। 7 ।।
तदनन्तर अङ्गिरा ऋषिने ब्रह्माजीके पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इसपर ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बहुत डाँटा-फटकारा और ताराको उसके पति बृहस्पतिजीके हवाले कर दिया। जब बृहस्पतिजीको यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ॥ 8 ॥ दुष्टे ! मेरे क्षेत्रमें यह तो किसी दूसरेका गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तानकी कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही ।। 9 ।। अपने पतिकी बात सुनकर तथ अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोनेके समान चमकता हुआ एक बालक अपने गर्भसे अलग कर दिया। उस बालकको देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाय ॥ 10 ॥ अब वे एक दूसरेसे इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।' ऋषियों और देवताओंने तारासे पूछा कि 'यह किसका लड़का है।' परन्तु ताराने लज्जावश कोई उत्तर न दिया ॥ 11 ॥ बालकने अपनी माताको झूठी लजासे क्रोधित होकर कहा-'दुष्टे तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र से शीघ्र बतला दे ॥ 12 ॥उसी समय ब्रह्माजीने ताराको एकान्तमें बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब ताराने धीरेसे कहा कि 'चन्द्रमाका।' इसलिये चन्द्रमाने उस बालकको ले लिया ॥ 13 ॥ परीक्षित् ! ब्रह्माजीने उस बालकका नाम रखा 'बुध', क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमाको बहुत आनन्द हुआ ll 14 ll
परीक्षित्! बुधके द्वारा इलाके गर्भसे पुरूरवाका जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ। एक दिन इन्द्रकी सभा में देवर्षि नारदजी पुरूरवाके रूप, गुण, उदारता, शील स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रमका गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशीके हृदयमें कामभावका उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवाङ्गना पुरूरवाके पास चली आयी ।। 15-16 ॥ यद्यपि उर्वशीको मित्रावरुणके शापसे ही मृत्युलोकमें आना पड़ा था, फिर भी पुरुषशिरोमणि पुरूरवा मूर्तिमान् कामदेवके समान सुन्दर हैं—यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशीने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी ॥ 17 ॥ देवाङ्गना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवाके नेत्र हर्षसे खिल उठे। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणीसे कहा ।। 18 ।।
राजा पुरूरवाने कहा - सुन्दरी ! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनोंका यह विहार अनन्त कालतक चलता रहे ॥ 19 ॥
उर्वशीने कहा- 'राजन्! आप सौन्दर्यके मूर्तिमान् स्वरूप है भला ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आपमें आसक्त न हो जाय ? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमणकी इच्छासे अपना धैर्य खो बैठा है ॥ 20 ॥ राजन् ! जो पुरुष रूप गुण आदिके कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज मेरी एक शर्त है मैं आपको धरोहरके रूपमें भेड़के दो बच्चे सौंपती हूँ आप इनकी रक्षा करना ॥ 21 ॥वीरशिरोमणे । मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुनके अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूंगी।' परम मनस्वी पुरुरवाने ठीक है—ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली ।। 22 ।। और फिर उर्वशीसे कहा- तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो साम | मनुष्यसृष्टिको मोहित करनेवाला है। और देवि । कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो सेवन न करेगा ? ॥ 23 ॥ तुम्हारा परीक्षित् | तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धतिसे पुरुषश्रेष्ठ पुरूरवाके साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओंकी विहार स्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनोंमें उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे ॥ 24 ॥ देवी उर्वशीके शरीरसे कमलकेसरकी-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरूरवाने बहुत वर्षतक आनन्द विहार किया। वे उसके मुखकी सुरभिसे अपनी सुध-बुध खो बैठते थे ॥ 25 ॥ इधर जब इन्द्रने उर्वशीको नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वोको उसे लानेके लिये भेजा और कहा- 'उर्वशीके बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है' ॥ 26 ॥ वे गन्धर्व आधी रातके समय घोर अन्धकारमें वहाँ गये और उर्वशीके दोनों भेड़ोंको, जिन्हें उसने राजाके पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने || 27 || उर्वशीने जब गन्धर्वोंक द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्रके समान प्यारे भेड़ोंकी 'बें-बें' सुनी, तब वह कह उठी कि 'अरे, इस कायरको अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपुंसक अपनेको बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ोंको भी न बचा सका ।। 28 । इसीपर विश्वास करनेके कारण लुटेरे मेरे बच्चोंको लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिनमें तो मर्द बनता है और रातमें स्त्रियोंकी तरह डरकर सोया रहता है' ॥ 29 ॥ परीक्षित् ! जैसे कोई हाथीको अंकुशसे बेध डाले, वैसे ही उर्वशीने अपने वचन-बाणोंसे राजाको बींध दिया। राजा पुरूरवाको बड़ा क्रोध आया और हाथमें तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्थामें ही वे उस | ओर दौड़ पड़े ॥ 30 ॥ गन्धवनेि उनके झपटते ही भेड़ोंको तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजलीकी तरह चमकने लगे। जब | राजा पुरूरवा भेड़ोंको लेकर लौटे, तब उर्वशीने उस प्रकाशमें उन्हें वस्त्रहीन अवस्थामें देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी ॥ 31 ॥ परीक्षित् राजा पुरूरवाने जब अपने शयनागारमें अपनी | प्रियतमा उर्वशीको नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका | चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोकसे विह्वल । हो गये और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वीमें इधर-उधर भटकनेलगे ॥ 32 ॥ एक दिन कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियोंको | देखा और बड़ी मीठी वाणीसे कहा- ॥ 33 ॥ 'प्रिये ! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो । निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ 34 ॥ देवि! अब इस शरीरपर तुम्हारा कृपा प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध रखा जायेंगे ॥ 35 ॥
उर्वशीने कहा- राजन् ! तुम पुरुष हो । इस प्रकार मत मरो देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जाये ! स्त्रियोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियाँका हृदय और भेड़ियोंका हृदय बिलकुल एक जैसा होता है ॥ 36 ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक सी बातमें चिढ़ जाती है और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थके लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाईतकको मार डालती हैं ॥ 37 ॥ इनके हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं भोले-भाले लोगोंको झूठ-मूठका विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुषकी चाटसे कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ 38 ॥ तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो । घबराओ मत। प्रति एक वर्षके बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ 39 ॥
राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानीमें लौट आये एक वर्षके बाद फिर वहाँ गये। तबतक उर्वशी एक वीर पुत्रकी माता हो चुकी थी ॥ 40 ॥ उर्वशीके मिलनेसे पुरूरवाको बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसीके साथ रहे। प्रातः काल जब वे विदा होने लगे, तब विरहके दुःखसे वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशीने उनसे कहा- ॥ 41 ॥ तुम इन गन्धवकी स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवाने गन्धर्वोकी स्तुति की। परीक्षित् ! राजा पुरूरवाकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर गन्धवनि उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करनेका पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदयसे लगाकर वे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते रहे ॥ 42 ॥जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थालीको वनमें छोड़कर अपने महलमें लौट आये एवं रातके समय उर्वशीका ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुगका प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदयमें तीनों वेद प्रकट हुए ॥ 43 ॥ फिर वे उस स्थानपर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थानपर शमीवृक्षके गर्भ में एक पीपलका वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोककी कामनासे नीचेकी अरणिको उर्वशी, ऊपरकी अरणिको पुरूरवा और बीचके काष्ठको पुत्ररूपसे चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रोंसे मन्थन किया ।। 44-45 ॥ उनके मन्थनसे 'जातवेदा' नामका अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निदेवताको त्रयीविद्याके द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि – इन तीन भागों में विभक्त करके पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ॥ 46 ॥ फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियोंद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान् श्रीहरिका यजन किया ॥ 47 ॥
परीक्षित्! त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भूत थे। थे देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक 'हंस' ही था ॥ 48 ॥ परीक्षित् ! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयीका आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निको सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोककी प्राप्ति की ।। 49 ।।