श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् तदनन्तर देवा नारदने मृत राजकुमारके जीवात्माको शोकाकुल स्वजनोंके सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा ॥ 1 ॥
देवर्षि नारदने कहा- जीवात्मन्! तुम्हारा कल्याण हो। देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुहृद् सम्बन्धी तुम्हारे वियोगसे अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं ॥ 2॥ इसलिये तुम अपने शरीरमें आ जाओ और शेष आयु अपने सगे सम्बन्धियोंके साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राजसिंहासनपर बैठो ॥ 3 ॥
जीवात्माने कहा- देवर्षिजी मैं अपने कर्मोकि अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियोंमें न जाने कितने जन्मोंसे भटक रहा हूँ। उनमेंसे ये लोग किस जन्ममे मेरे माता-पिता हुए ? ॥ 4 ॥ विभिन्न जन्मोंमें सभी एक-दूसरेके भाई-बन्धु, नाती-गोती, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन और द्वेषी होते रहते है ॥ 5 ॥ जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रयकी वस्तुएँ एक व्यापारीसे दूसरेके पास जाती आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियोंमें उत्पन्न होता रहता है ।। 6 ।। इस प्रकार विचार करनेसे पता लगता है कि मनुष्योंकी अपेक्षा अधिक दिन ठहरनेवाले सुवर्ण आदि पदार्थोंका सम्बन्ध भी मनुष्योंके साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता है; और जबतक जिसका जिस 'वस्तुसे सम्बन्ध रहता है, तभीतक उसकी उस वस्तुसे ममता भी रहती है ॥ 7 ॥ जीव नित्य और अहङ्काररहित है। वह गर्भमें आकर जबतक जिस शरीरमें रहता है, तभीतक उस शरीरको अपना समझता है ॥ 8 ॥ यह जीव नित्य अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं है। फिर भी यह ईश्वररूप होनेके कारण अपनी मायाके गुणोंसे ही अपने-आपको विश्वके रूपमेंप्रकट कर देता है ।। 9 ।। इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया क्योंकि गुण-दोष (हित अहित) करनेवाले मित्र शत्रु आदिको भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्तियों का यह अकेला ही साक्षी है; वास्तवमें यह अद्वितीय है ॥ 10 ॥ यह आत्मा कार्य-कारणका साक्षी और स्वतन्त्र है। इसलिये यह शरीर आदिके गुण-दोष अथवा कर्मफलको ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भावसे स्थित रहता है ॥ 11 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया। उसके सगे सम्बन्धी उसकी बात सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका स्नेह बन्धन कट गया और उसके मरनेका शोक भी जाता रहा ।। 12 ।। इसके बाद जातिवालोंने बालककी मृत देहको ले जाकर | तत्कालोचित संस्कार और और्ध्वदेहिक क्रियाएँ पूर्ण को और उस दुस्त्यज स्नेहको छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और दुःखकी प्राप्ति होती है ॥ 13 ॥ परीक्षित्! जिन रानियोंने बच्चेको विष दिया था, वे बालहत्याके कारण श्रीहीन हो गयी थीं और लज्जाके मारे आँखतक नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने अङ्गिरा ऋषिके उपदेशको याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुनाजीके तटपर ब्राह्मणोंके आदेशानुसार बालहत्याका प्रायश्चित्त किया ॥ 14 परीक्षित्! इस प्रकार अङ्गिरा और नारदजीके उपदेशसे विवेकबुद्धि जाग्रत् हो जानेके कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थीके अँधेरे कुएँसे उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, | जैसे कोई हाथी तालाबके कीचड़से निकल आये 15 ॥ उन्होंने यमुनाजीमें विधिपूर्वक स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ कीं। तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिराके चरणोंकी वन्दना की ॥ 16 भगवान् नारदने देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और शरणागत हैं। अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्याका उपदेश किया ॥ 17 ॥
(देवर्षि नारदने यो उपदेश किया) 'ॐकार स्वरूप भगवन्! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और सङ्कर्षणके रूपमें क्रमशः चित्त, बुद्धि, मन और अहङ्कारके अधिष्ठाता है। मैं आपके इस चतुर्व्यूहरूपका बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ ॥ 18 आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप है। आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है। आप अपने स्वरूपभूत आनन्दमें ही मन और परम शान्त हैं।द्वैतदृष्टि आपको छूतक नहीं सकती। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 19 ॥ अपने स्वरूपभूत आनन्दकी अनुभूतिसे ही आपने मायाजनित राग-द्वेष आदि दोषोंका तिरस्कार कर रखा है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबकी समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 20 ॥ मनसहित वाणी आपतक न पहुँचकर बीचसे ही लौट आती है। उसके उपरत हो जानेपर जो अद्वितीय, नाम रूपरहित, चेतनमात्र और कार्य-कारणसे परेकी वस्तु रह जाती है-वह हमारी रक्षा करे ।। 21 ।। यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित है और जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टीकी वस्तुओंमें व्याप्त मृत्तिकाके समान सबमें ओत-प्रोत हैं—उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 22 ॥ यद्यपि आप आकाशके समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति नहीं जान सकती और प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्तिसे स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। 23 ।। शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओंमें आपके चैतन्यांशसे युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छाकी अवस्थाओंमें आपके चैतन्यांशसे युक्त न होनेके कारण अपना-अपना काम करनेमें असमर्थ हो जाते हैं-ठीक वैसे ही जैसे लोहा अग्निसे तप्त होनेपर जला सकता है, अन्यथा नहीं। जिसे 'द्रष्टा' कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओंमें आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तवमें आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है ॥ 24 ॥ ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुषको नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तोंका समुदाय अपने करकमलोकी कलियोंसे आपके युगल चरणकमलोंकी सेवामें सेल रहता है। प्रभो। आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ' ।। 25 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतुको इस विद्याका उपदेश करके महर्षि अङ्गिराके साथ ब्रह्मलोकको चले गये ।। 26 ।। राजा चित्रकेतुने देवर्षि नारदके द्वारा उपदिष्ट विद्याका उनके आज्ञानुसार सात दिनतक केवल जलपीकर बड़ी एकाग्रताके साथ अनुष्ठान किया ॥ 27 ॥ तदनन्तर उस विद्याके अनुष्ठानसे सात रातके पश्चात् राजा चित्रकेतुको विद्याधरोका अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ ॥ 28 ॥ इसके बाद कुछ ही दिनोंमें इस विद्याके प्रभावसे उनका मन और भी शुद्ध हो गया। अब वे देवाधिदेव भगवान् शेषजीके चरणोंके समीप पहुँच गये ॥ 29 ॥। उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी सिद्धेश्वरोंके मण्डलमें विराजमान हैं। उनका शरीर कमलनालके समान गौरवर्ण है। उसपर नीले रंगका वस्त्र फहरा रहा है। सिरपर किरीट, बाहोंमें बाजूबंद, कमरमें करधनी और कलाईमें कंगन आदि आभूषण चमक रहे हैं। नेत्र रतनारे हैं और मुखपर प्रसन्नता छा रही है ॥ 30 ॥ भगवान् शेषका दर्शन करते ही राजर्षि चित्रकेतुके सारे पाप नष्ट हो गये। उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो गया। हृदयमें भक्तिभावको बाढ़ आ गयी। नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। शरीरका एक-एक रोम खिल उठा। उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेषको नमस्कार किया ॥ 31 ॥ उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे। इससे भगवान् शेषके चरण रखनेकी चौकी भीग गयी। प्रेमोद्रेकके कारण उनके मुँहसे एक अक्षर भी न निकल सका। वे बहुत देरतक शेषभगवान्को कुछ भी स्तुति न कर सके ।। 32 ।। थोड़ी देर बाद उन्हें बोलनेकी कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने विवेकबुद्धिसे मनको समाहित किया और सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी बाह्यवृत्तिको रोका। फिर उन जगद्गुरुकी, जिनके स्वरूपका पाश्चरात्र आदि भक्तिशास्त्रों में वर्णन किया गया है, इस प्रकार स्तुति की ।। 33 ।।
चित्रकेतुने कहा- अजित जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओंने आपको जीत लिया है। आपने भी अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि गुणोंसे उनको | अपने वशमें कर लिया है। अहो, आप धन्य है। क्योंकि जो निष्कामभावसे आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं ।। 34 ।। भगवन् । जगत्को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास है। विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदिआपके अंशके भी अंश है। फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपनेको जगत्कर्त्ता मानकर झूठमूठ एक-दूसरेसे स्पर्धा करते हैं ॥ 35 ॥ नन्हे-से-नन्हे परमाणुसे लेकर बड़े-से-बड़े महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण वस्तुओंके आदि, अन्त और मध्यमें आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्यसे रहित हैं। क्योंकि किसी भी पदार्थके आदि और अन्तमें जो वस्तु रहती है, वही मध्यमें भी रहती है ॥ 36 ॥ यह ब्रह्माण्डकोष, जो पृथ्वी आदि एक-से-एक दसगुने सात आवरणोंसे घिरा हुआ है, अपने ही समान दूसरे करोड़ों ब्रह्माण्डोंके सहित आपमें एक परमाणुके समान घूमता रहता है और फिर भी उसे आपकी हैं सीमाका पता नहीं है। इसलिये आप अनन्त हैं ॥ 37 ॥ जो नरपशु केवल विषयभोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। प्रभो ! जैसे राजकुलका नाश होने के पश्चात् उसके अनुयायियोंकी जीविका भी जाती रहती है, | वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवोंका नाश होनेपर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो जाते हैं ॥ 38 ॥ परमात्मन्! आप ज्ञानस्वरूप और निर्गुण हैं। इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मकि समान जन्म-मृत्युरूप | फल देनेवाली नहीं होती, जैसे भुने हुए बीजोंसे अङ्कुर नहीं उगते। क्योंकि जीवको जो सुख-दुःख आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणोंसे ही होते हैं, निर्गुणसे नहीं ।। 39 ।। हे अजित! जिस समय आपने विशुद्ध भागवत धर्मका उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया। क्योंकि अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखनेवाले, किसी भी वस्तुमें अहंता-ममता न करनेवाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परम साम्य और मोक्ष प्राप्त करनेके | लिये उसी भागवतधर्मका आश्रय लेते हैं 40 ॥ वह भागवतधर्म इतना शुद्ध है कि उसमें सकाम धर्मोके समान मनुष्योंकी वह विबुद्धि नहीं होती कि 'यह मैं हूँ यह मेरा है, यह तू है और यह तेरा है।' इसके विपरीत जिस धर्मके मूलमें ही विषमताका बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्मबहुल होता है ।। 41 ।। सकाम धर्म अपना और दूसरेका भी अहित करनेवाला है। उससे अपना या पराया—किसीका कोई भी प्रयोजन और | हित सिद्ध नहीं होता। प्रत्युत सकाम धर्मसे जब अनुष्ठान करनेवालेका चित्त दुखता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरेका चित्त दुखता है, तब वह धर्म नहीं रहताअधर्म हो जाता है ॥ 42 ॥ भगवन्! आपने जिस दृष्टिसे भागवतधर्मका निरूपण किया है, वह कभी परमार्थसे विचलित नहीं होती। इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियोंमें समदृष्टि रखते हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं । 43 ॥ भगवन्! आपके दर्शनमात्र से ही मनुष्योंके सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है; क्योंकि आपका नाम एक बार सुननेसे ही नीच चाण्डाल भी संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ 44 ॥ भगवन्! इस समय आपके दर्शनमात्रसे ही मेरे अन्तःकरणका सारा मल धुल गया है, सो ठीक ही है क्योंकि आपके अनन्यप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने जो कुछ कहा है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है ।। 45 ।। है अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत्के आत्मा हैं। अतएव संसारमें प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं। इसलिये जैसे जुगनू सूर्यको प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही परमगुरु आपसे मैं क्या निवेदन करू ॥ 46 भगवन् आपकी ही अध्यक्षतामें सारे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं। कुयोगीजन भेददृष्टिके कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते। आपका स्वरूप वास्तवमें अत्यन्त शुद्ध है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 47 ॥ आपकी चेष्टासे शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करनेमें समर्थ होते हैं आपकी दृष्टिसे जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होती हैं। यह भूमण्डल आपके सिरपर सरसोके दानेके समान जान पड़ता है। मैं आप सहस्रशीर्षा भगवान्को | बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 48 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब विद्याधरोके अधिपति चित्रकेतुने अनन्तभगवान्को इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा ।। 49 ।।
श्रीभगवान् ने कहा- चित्रकेतो। देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिराने तुम्हें मेरे सम्बन्धमे जिस विद्याका उपदेश दिया है, उससे और मेरे दर्शनसे तुम भलीभाँति | सिद्ध हो चुके हो ॥ 50 ॥ मैं ही समस्त प्राणियोंके रूपमें हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ। शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं ।। 51 ।। आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत्में व्याप्त है। और कार्य कारणात्मक जगत् आत्मामें स्थित है तथा इन दोनोंमें मैं अधिष्ठानरूपसे व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों | कल्पित हैं ॥ 52 ॥ जैसे स्वप्नमें सोया हुआ पुरुष स्वप्रान्तर होनेपर सम्पूर्ण जगत्को अपनेमें ही देखता है और स्वप्रान्तर टूट जानेपर स्वप्रमें ही जागता है तथा अपनेको संसारके एक कोने में स्थित देखता है, परन्तु वास्तवमें वह भी स्वप्न ही है, वैसे ही जीवकी जाग्रत् आदि अवस्थाएँ परमेश्वरकी ही माया हैं—यों जानकर सबके साक्षी मायातीत परमात्माका ही स्मरण करना चाहिये ।। 53-54 ।। सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायतासे अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ; उसे तुम अपनी आत्मा समझो || 55 ॥ पुरुष निद्रा और जागृति- इन दोनों अवस्थाओंका अनुभव करनेवाला है। वह उन अवस्थाओंमें अनुगत होनेपर भी | वास्तवमे उनसे पृथक् है। वह सब अवस्थाओंमें रहनेवाला अखण्ड एकरस ज्ञान ही ब्रह्म है, वही परब्रह्म | है ॥ 56 ॥ जब जीव मेरे स्वरूपको भूल जाता है, तब वह | अपनेको अलग मान बैठता है; इसीसे उसे संसारके चकरमें पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है ॥ 57 ॥ यह मनुष्ययोनि ज्ञान और विज्ञानका मूल स्रोत है जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्माको नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनिमें शान्ति नहीं मिल सकती ।। 58 ।।राजन्! सांसारिक सुखके लिये जो पेश की जाती है, उनमें श्रम है, फ्रेश है, और जिस परम सुखके उद्देश्यसे वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परम दुःख देती हैं; किन्तु कर्मोंसे निवृत्त हो जानेमें किसी प्रकारका भय नहीं है- यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि किसी प्रकारके कर्म अथवा उनके फलोंका सङ्कल्प न करे 59 ॥ जगत्के सभी स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखोंसे पिण्ड छूटे; परन्तु उन कर्मोंसे न तो उनका दुःख दूर होता है और न उन्हें सुखकी ही प्राप्ति होती है 60 जो मनुष्य अपनेको बहुत बड़ा बुद्धिमान् मानकर कर्मके पचड़ोंमें पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है—यह बात समझ लेनी चाहिये; साथ ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्माका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत् स्वप्र, सुषुप्ति – इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियोंसे विलक्षण है ।। 61 ।। यह जानकर इस लोकमें देखे और परलोकके सुने हुए विषय-भोगोंसे विवेकबुद्धिके द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और ज्ञान तथा विज्ञानमें ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाय ।। 62 । जो लोग योगमार्गका तत्त्व समझने में निपुण हैं, उनको भलीभांति समझ लेना चाहिये कि जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर ले ॥ 63 ॥ राजन् ! यदि तुम मेरे इस उपदेशको सावधान होकर श्रद्धाभावसे धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे ॥ 64 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतुको इस प्रकार समझा बुझाकर उनके सामने ही वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ 65 ॥