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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 15 - Skand 6, Adhyay 15

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चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर मुर्देके समान अपने मृत पुत्रके पास ही पड़े हुए थे। अब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद उन्हें सुन्दर-सुन्दर उक्तियोंसे समझाने लगे ॥ 1 ॥ उन्होंने कहा- राजेन्द्र ! जिसके लिये तुम इतना शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म और पहलेके जन्मोंमें तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? और अगले जन्मोंमें भी | उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा ? ॥ 2 ॥जैसे जलके वेगसे बालूके कण एक-दूसरे से जुड़ते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहमें प्राणियोंका भी मिलन और विछोह होता रहता है ॥ 3 ॥ राजन् ! जैसे कुछ बीजोंसे दूसरे बीज उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही भगवान्‌की मायासे प्रेरित होकर प्राणियोंसे अन्य प्राणी उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं ॥ 4 ॥ राजन् ! हम, तुम और हमलोगोंके साथ इस जगत्में जितने भी चराचर प्राणी वर्तमान है—वे सब अपने जन्मके पहले नहीं थे और मृत्युके पश्चात् नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक सी रहती है ॥ 5 ॥ भगवान् ही समस्त प्राणियोंके अधिपति हैं। उनमें जन्म-मृत्यु आदि विकार बिलकुल नहीं है। उन्हें न किसीको इच्छा है और न अपेक्षा। वे अपने आप परतन्त्र प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं और उनके द्वारा अन्य प्राणियोंकी रचना, पालन तथा संहार करते हैं-ठीक वैसे ही जैसे बच्चे घर-घरौदे, खेल-खिलौने बना-बनाकर बिगाड़ते रहते हैं ॥ 6 ॥ राजन् ! जैसे एक बीजसे दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिताकी देहद्वारा माताकी देहसे पुत्रकी देह उत्पन्न होती है। पिता-माता और पुत्र जीवके रूपमें देही हैं और केवल शरीर उनमें देही जीव घट आदि | कार्योंमें पृथ्वीके समान नित्य है ॥ 7 ॥ राजन् ! जैसे एक ही मृत्तिकारूप वस्तुमें घटत्व आदि जाति और घट आदि व्यक्तियोंका विभाग केवल कल्पनामात्र है, उसी प्रकार यह देही और देहका विभाग भी अनादि एवं अविद्या कल्पित है * ॥ 8 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! जब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारदने इस प्रकार राजा चित्रकेतुको समझाया बुझाया, तब उन्होंने कुछ धीरज धारण करके शोकसे मुरझाये हुए मुखको हमसे पोछा और उनसे कहा ॥ 9 ॥

राजा चित्रकेतु बोले- आप दोनों परम ज्ञानवान् और महानसे भी महान् जान पड़ते हैं तथा अपनेको अवभूतये छिपकर यहाँ आये है। कृपा करके बतलाइये, आपलोग हैं कौन ? ॥ 10 ॥ मैं जानता हूँ कि बहुत-से भगवान् के प्यारे ब्रह्मवेत्ता मेरे जैसे विषयासक्तप्राणियोको उपदेश करनेके लिये उन्मत्तका-सा वेष बनाकर पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते हैं॥ 11 ॥ सनत्कुमार, नारद, ऋभु, अङ्गिरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान् परशुराम, कपिलदेव, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतञ्जलि, वेदशिरा, बोध्यमुनि, पञ्चशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव और ऋतब ये सब तथा दूसरे सिद्धेश्वर ऋषि-मुनि ज्ञानदान करनेके लिये पृथ्वीपर विचरते रहते हैं ।। 12-15 ।। स्वामियो ! मैं विषयभोगों में फँसा हुआ, मृदबुद्धि ग्राम्य पशु हूँ और अज्ञानके धोर अन्धकारमें डूब रहा हूँ। आपलोग मुझे ज्ञानकी ज्योतिसे प्रकाशके केन्द्रमें लाइये ।। 16 ।।

महर्षि अङ्गिराने कहा- राजन् ! जिस समय तुम पुत्रके लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अङ्गिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्माजीके पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं ॥ 17 ॥ जब हमलोगोंने देखा कि तुम पुत्रशोकके कारण बहुत ही प अज्ञानान्धकारमें डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान् के भक्त हो, शोक करनेयोग्य नहीं हो। अतः तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं राजन् । सो बात तो यह है कि जो भगवान् और ब्राह्मणोका भक्त है, उसे किसी अवस्थामें शोक नहीं करना चाहिये ॥ 18-19 ।।

जिस समय पहले-पहल में तुम्हारे घर आया था. उसी समय मैं तुम्हें परम ज्ञानका उपदेश देता, परन्तु मैंने देखा कि अभी तो तुम्हारे हृदयमें पुत्रकी उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया ॥ 20 ॥ अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुनको कितना दुःख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकारके ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ,शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सबके लिये है; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं 21-22 ।। शूरसेन अतएव ये सभी शोक, मोह, भव और दुःखके कारण है, मनके खेल-खिलौने है, सर्वथा कल्पित और मिथ्या है, क्योंकि ये न होनेपर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखनेपर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं ये गन्धर्वनगर, स्वञ जादू और मनोरथकी वस्तुओंके समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओंसे प्रेरित होकर विषयोंका चिन्तन करते रहते हैं उन्हींका मन अनेक प्रकारके कर्मोकी सृष्टि करता है । 23-24 ॥ जीवात्माका यह देह जो पञ्चभूत ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंका संघात है— जीवको विविध प्रकारके फ्रेश और सन्ताप देनेवाली कही जाती है ॥ 25 ॥ इसलिये तुम अपने मनको विषयों में भटकनेसे रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मनके द्वारा अपने वास्तविक स्वरूपका विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रम नित्यत्वकी बुद्धि छोड़कर परम शान्तिस्वरूप परमात्मामें स्थित हो जाओ ॥ 26 ॥

देवर्षि नारदने कहा- राजन् ! तुम एकाग्रचित्तसे मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करनेसे सात रातमें ही तुम्हें भगवान् सङ्कर्षणका दर्शन होगा ।। 27 ।। नरेन्द्र! प्राचीन कालमें भगवान् शङ्कर आदिने श्रीसङ्कर्षणदेवके ही चरणकमलोका आश्रय लिया था। इससे उन्होंने द्वैतमका परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमाको प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान्‌के उसी परमपदको प्राप्त कर लोगे ॥ 28 ॥

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि