श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ॥ 1 ॥ राजन्! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ॥ 2-3 ॥ साथ ही 'हे कात्यायनी ! हे महामाये! हे महायोगिनी ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये । देवि ! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।' इस मन्त्रका जप करती हुए वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ॥ 4 ॥ इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस सङ्कल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की कि 'नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों' ॥ 5 ॥ वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेर्ती और परस्पर हाथ में हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान् श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ।। 6 ।।एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान् | श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं ॥ 7 ॥ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना तटपर गये ॥ 8 ॥ उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी | फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वालबाल ठठा-उठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे ॥ 9 ॥ 'अरी कुमारियो ! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच सच कहता हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ॥ 10 ॥ ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो ! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है' ॥ 11 ॥
भगवान्की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक दूसरीको ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकली ॥ 12 ॥ जब भगवान्ने हँसी-हँसीमें यह बात कही, तब उनके विनोद कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर सिंच गया। वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा- ॥ 13 ॥ - 'प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो। हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबाके लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं। देखो, हम जाड़के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ॥ 14 ॥ प्यारे | श्यामसुन्दर! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबासे कह देंगी' ॥ 15 ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—कुमारियो ! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है। देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका | पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ॥ 16 ॥ परीक्षित् । वे कुमारियाँ ठंडसे ठिठुर रही थीं काँप रही थीं। भगवान्की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अङ्गको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं। | उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी ॥ 17 ॥उनके इस शुद्ध भावसे भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंथेपर रख लिये और बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले ।। 18 ।। 'अरी गोपियो ! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है— इसमें सन्देह नहीं। परन्तु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अतः अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर | अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ॥ 19 ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन जजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी। अतः उसकी निर्वित्र पूर्ति लिये उन्होंने समस्त कर्मकि साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है ॥ 20 ॥ जब यशोदानन्दन भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि सब की सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये ॥ 21 ॥ प्रिय परीक्षित्! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे उलभरी बातें की उनका लज्जा हंसी की और उन्हें कठपुतलियोंके समान नचाया यहाँतक कि उनके वस्त्रतक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुई, उनकी इन चेष्टाओको दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके सहसे वे और भी प्रसन्न हुई ॥ 22 ॥ परीक्षित्! गोपियोंने अपने | अपने वस्त्र पहन लिये। परन्तु श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न चल सकीं। अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्होंकी ओर लजीली चितवनसे निहारती रहीं ॥ 23 ॥
भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उन कुमारियोंने उनके चरणकमलोंके स्पर्शकी कामनासे ही व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र सङ्कल्प है। तब गोपियोंके प्रेमके | अधीन होकर ऊखलतकमे बँध जानेवाले भगवान्ने उनसे कहा ॥ 24 'मेरी परम प्रेयसी कुमारियो ! मैं तुम्हारा यह सङ्कल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका अनुमोदन करता हूँ तुम्हारा यह सङ्कल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी ॥ 25 ॥ जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है, उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगोंकी ओर ले जानेमें समर्थ नहीं होती; ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अङ्कुरके रूपमें उगने के योग्य नहीं रह जाते ll26 llइसलिये कुमारियो ! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतुकी रात्रियोंमें मेरे साथ विहार करोगी। सतियो ! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगोंने यह व्रत और कात्यायनी देवीकी पूजा की थी' * ॥ 27 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान्की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान् श्रीकृष्णके चरण कमलोंका ध्यान करती जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े कष्टसे व्रजमें गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ॥ 28 ॥
प्रिय परीक्षित्! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये ॥ 29 ॥ ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा- ॥ 30-31 ॥ 'मेरे प्यारे मित्रो ! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सहते हैं, परन्तु हम लोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ।। 32 ।।मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ॥ 33 ॥ ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अङ्कुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं ॥ 34 ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ॥ 35 ॥ परीक्षित् ! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे। | उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये || 36 || राजन् ! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था । उन लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया ।। 37 ।। | परीक्षित्! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यहबात कही - ॥ 38॥