विदुरजीने कहा- मुनिवर ! भगवान् नारायणके अन्तर्धान हो जानेपर सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने अपने देह और मनसे कितने प्रकारकी सृष्टि उत्पन्न की ? ॥ 1 ॥ भगवन् । इनके सिवा मैंने आपसे और जो-जो बातें पूछी हैं, उन सबका भी क्रमशः वर्णन कीजिये और मेरे सब संशयोंको दूर कीजिये क्योंकि आप सभी बहुज्ञों में श्रेष्ठ हैं ॥ 2 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकजी! विदुरजीके इस प्रकार पूछनेपर मुनिवर मैत्रेयजी बड़े प्रसन्न हुए और अपने हृदयमें स्थित उन प्रश्नोंका इस प्रकार उत्तर देने लगे ॥ 3 ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा -अजन्मा भगवान् श्रीहरिने जैसा कहा था, ब्रह्माजीने भी उसी प्रकार चित्तको अपने आत्मा श्रीनारायणमें लगाकर सौ दिव्य वर्षोंतक तप किया ॥ 4 ॥ ब्रह्माजीने देखा कि प्रलयकालीन प्रबल वायुके झकोरोंसे, जिससे वे उत्पन्न हुए हैं तथा जिसपर वे बैठे हुए हैं वह कमल तथा जल काँप रहे हैं ।। 5 ।। प्रबल तपस्या एवं हृदयमें स्थित आत्मज्ञानसे उनका विज्ञानबल बढ़ गया और उन्होंने जलके साथ वायुको पी लिया ॥ 6 ॥ फिर जिसपर स्वयं बैठे हुए थे, उस आकाशव्यापी कमलको देखकर उन्होंने विचार किया कि 'पूर्वकल्पमें लीन हुए लोकोंको मैं इसीसे रचूँगा' ॥ 7 ॥ तब भगवान् के द्वारा सृष्टिकार्यमें नियुक्त ब्रह्माजीने उस कमलकोशमें प्रवेश किया और उस एकके ही भूः, भुवः स्वः- ये तीन भाग किये, यद्यपि वह कमल इतना बड़ा था कि उसके चौदह भुवन या इससे भी अधिक लोकोंके रूपमें विभाग किये जा सकते थे ॥ 8 ॥जीवोंके भोगस्थानके रूपमें इन्हीं तीन लोकोंका शास्त्रोंमें वर्णन हुआ है, जो निष्काम कर्म करनेवाले हैं, उन्हें महः, तपः, जनः और • सत्यलोकरूप ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है ॥ 9 ॥
विदुरजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपने अद्भुतकर्मा विश्वरूप श्रीहरिकी जिस काल नामक शक्तिकी बात कही थी, प्रभो! उसका कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ 10 ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा- विषयोंका रूपान्तर (बदलना) ही कालका आकार है। स्वयं तो वह निर्विशेष, अनादि और अनन्त है। उसीको निमित्त बनाकर भगवान् खेल-खेलमें अपने-आपको ही | सृष्टिके रूपमें प्रकट कर देते हैं ।। 11 ।। पहले यह सारा विश्व भगवान्की मायासे लीन होकर ब्रह्मरूपसे स्थित था। उसीको अव्यक्तमूर्ति कालके द्वारा भगवान्ने पुनः पृथक् रूपसे प्रकट किया है ॥ 12 ॥ यह जगत् जैसा अब है वैसा ही पहले था और भविष्यमें भी वैसा ही रहेगा। इसकी सृष्टि नौ प्रकारकी होती है तथा प्राकृत- वैकृत- भेदसे एक दसवीं सृष्टि और भी है ॥ 13 ॥ और इसका प्रलय काल, द्रव्य तथा गुणोंके द्वारा तीन प्रकारसे होता है। (अब पहले मैं दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन करता हूँ) पहली सृष्टि महत्तत्त्वकी है। भगवान्की प्रेरणासे सत्त्वादि गुणोंमें विषमता होना ही इसका स्वरूप है ।। 14 । दूसरी सृष्टि अहङ्कारकी है, जिससे पृथ्वी आदि पञ्चभूत एवं ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है, जिसमें पञ्चमहाभूतोंको उत्पन्न करनेवाला तन्मात्रवर्ग रहता ॥ 15 ॥ चौथी सृष्टि इन्द्रियोंकी है, यह ज्ञान और क्रियाशक्तिसे सम्पन्न होती है। पाँचवीं सृष्टि सात्त्विक अहङ्कारसे उत्पन्न हुए इन्द्रियाधिष्ठाता देवताओंकी है, मन भी इसी सृष्टिके अन्तर्गत है ।। 16 ।। छठी सृष्टि अविद्याकी है। इसमें तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह – ये पाँच गाँठे हैं। यह जीवोंकी बुद्धिका आवरण और विक्षेप करनेवाली है। ये छः प्राकृत सृष्टियाँ हैं, अब वैकृत सृष्टियोंका भी विवरण सुनो ॥ 17 ॥
जो भगवान् अपना चिन्तन करनेवालोंके समस्त दुःखोंको हर लेते हैं, यह सारी लीला उन्हीं श्रीहरिकी है। वे ही ब्रह्माके रूपमें रजोगुणको स्वीकार करके जगत्की रचना करते हैं। छः प्रकारकी प्राकृत सृष्टियोके बाद सातवीं प्रधान वैकृत सृष्टि इन छः प्रकारके स्थावर वृक्षोंकी होती है ॥ 18 ॥ वनस्पति, ओषधि, (जड़) से 2 लता, 'त्ववसार, 'वीरुधू' और द्रुम' इनका संचार नीचे ऊपरकी ओर होता है, इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती, येभीतर ही भीतर केवल स्पर्शका अनुभव करते हैं तथा इनमेंसे प्रत्येकमें कोई विशेष गुण रहता है ॥ 19 ॥ आठवीं सृष्टि तिर्यग्योनियों (पशु-पक्षियों) की है। वह अट्ठाईस प्रकारकी मानी जाती है। इन्हें कालका ज्ञान नहीं होता, तमोगुणकी | अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं, इन्हें घनेमात्र से वस्तुओंका ज्ञान हो जाता है। | इनके हृदयमें विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती ॥ 20 ॥ साधुश्रेष्ठ इन तिर्थकों में गौ, बकरा, भैसा, कृष्ण मृग, सूअर, नील गाय, रुरु नामका मृग, भेड़ और ऊँट - ये द्विशफ (दो) खुरोंवाले) पशु कहलाते हैं, ॥ 21 ॥ गधा, घोड़ा, खच्चर, गौरमृग, शरफ और चमरी-ये एकशफ (एक खुरवाले) हैं। अब पांच नखवाले पशु-पक्षियोंके नाम सुनो ॥ 22 ॥ कुत्ता, गोदड़, भेड़िया, बाघ, बिलाव, खरगोश, साही, सिंह, बंदर, हाथी, कछुआ, गोह और मगर आदि (पशु) हैं ॥ 23 ॥ कंक (बगुला, गिद्ध, बटेर, बाज, भास, भल्लूक, मोर, हंस, सारस, चकवा, कौआ और उल्लू आदि उड़नेवाले जीव पक्षी कहला है॥ 24 ॥ विदुरजी नव सृष्टि मनुष्योंकी है। यह एक ही प्रकारकी है। इसके आहारका प्रवाह ऊपर (मुँह) से नीचेकी ओर होता है। मनुष्य रजोगुणप्रधान, कर्मपरायण और दुःखरूप विषयोंमें ही सुख माननेवाले होते हैं 25 ॥ स्थावर पशु-पक्षी और मनुष्य — ये तोनों प्रकारकी सृष्टियाँ तथा आगे कहा जानेवाला देवसर्ग वैकृत सृष्टि हैं तथा जो महत्तत्त्वादिरूप वैकारिक देवसर्ग है, उसकी गणना पहले प्राकृत सृष्टिमें की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त सनत्कुमार आदि ऋषियोंका जो कौमारसर्ग है वह प्राकृत- वैकृत दोनों प्रकारका है ॥ 26 ॥
देवता, पितर, असुर, गन्धर्व-अप्सरा, यक्ष-राक्षस, सिद्धचारण-विद्याधर, भूत-प्रेत-पिशाच और किन्नर-किम्पुरुष अश्वमुख आदि भेदसे देवसृष्टि आठ प्रकारकी है। विदुरजी ! इस प्रकार जगत्कर्त्ता श्रीब्रह्माजीकी रची हुई यह दस प्रकारकी सृष्टि मैंने तुमसे कही ।। 27-28 । अब आगे मैं वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करूंगा। इस प्रकार सृष्टि करनेवाले सत्यसङ्कल्प भगवान् हरि ही ब्रह्माके रूपसे प्रत्येक कल्पके आदिमें रजोगुणसे व्याप्त होकर स्वयं ही जगत्के रूपमें अपनी ही रचना करते है ।। 29 ।।