श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जय भगवान्ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक | ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजाके पैर पकड़ | लिये ॥ 1 ॥ दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़नेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था ॥ 2 ॥
अम्बरीषने कहा – प्रभो सुदर्शन! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समत नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पञ्चतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं ॥ 3 ॥ भगवान्के प्यारे हजार दाँतवाले चक्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक ! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये ॥ 4 आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञोंके अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकोंके रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष | परमात्माके श्रेष्ठ तेज हैं ॥ 5 ॥ सुनाभ ! आप समस्त धर्मोकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले अमुरोको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अप्रि है। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय है। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत है।मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ॥ 6 ॥ वेदवाणीके अधीश्वर ! आपके धर्ममय तेजसे अन्धकारका नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषोंके प्रकाशकी रक्षा होती है। आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़ेके भेदभावसे युक्त यह समस्त कार्यकारणात्मक संसार | आपका ही स्वरूप है ॥ 7 ॥ सुदर्शन चक्र ! आपपर | कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरञ्जन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ 8 ॥ विश्वके रक्षक ! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने दुष्टोंके नाशके लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये दुर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा ॥ 9 ॥ यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्मका पालन किया हो, यदि हमारे वंशके लोग ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय ॥ 10 ॥ भगवान् समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन मिट जाय ॥ 11 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीषने दुर्वासाजीको सब ओरसे जलानेवाले भगवान्के सुदर्शन चक्रकी इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थनासे चक्र शान्त हो गया ॥ 12 ॥ जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 13 ॥दुर्वासाजीने कहा - धन्य है ! आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मङ्गल कामना ही कर रहे हैं ॥ 14 ॥ जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिकेचरणकमलीको दृढ प्रेमभावसे पकड़ लिया है उन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते ? ॥ 15 ॥ जिनके मङ्गलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है— उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोके जो दास है, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ? ॥ 16 ॥ महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है ! ॥ 17 ॥
परीक्षित् । जबसे दुर्वासाजी भागे थे, तबसे अबतक | राजा अम्बरीषने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटनेकी बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासाजीके चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। ॥ 18 ॥ राजा अम्बरीष बड़े आदरसे अतिथिके योग्य सब प्रकारको भोजन सामग्री ले आये दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदरसे कहा- 'राजन् ! अब आप भी भोजन कीजिये ।। 19 ।। अम्बरीष ! आप भगवान् के परम प्रेमी भक्त है आपके दर्शन, स्पर्श, 1 बातचीत और मनको भगवान्की ओर प्रवृत्त करनेवाले आतिथ्यसे मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ ।। 20 ।। स्वर्गकी देवाङ्गनाएँ बार-बार आपके इस | उज्ज्वल चरित्रका गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परम पुण्यमयी कीर्तिका संकीर्तन करती रहेगी' ॥ 21 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—दुर्वासाजीने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीषके गुणोंकी प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्गसे उस महालोककी यात्रा की, जो केवल निष्काम कर्मसे ही प्राप्त होता है ॥ 22 ॥ परीक्षित् जब सुदर्शन चक्रसे भयभीत होकर दुर्वासाजी भगे थे, तबसे लेकर उनके लौटनेतक एक वर्षका समय बीत गया। इतने दिनोंतक राजा अम्बरीष उनके दर्शनकी आकाङ्क्षासे केवल जल पीकर ही रहे ll 23 ll जब दुर्वासाजी चले गये, तब उनके भोजनसे बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्नका उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासाजीका दुःखमें पड़ना और फिर अपनी ही प्रार्थनासे उनका छूटना -इन दोनों बातोंको उन्होंने अपनेद्वारा होनेपर भी भगवान्की ही महिमा समझा ॥ 24 ॥ राजा अम्बरीषमें ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मोंक द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्में भक्तिभावकी अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्तिके प्रभावसे उन्होंने ब्रह्मलोकतकके समस्त भोगोंको नरकके समान समझा ll 25 ll
तदनन्तर राजा अम्बरीषने अपने ही समान भक्त पुत्रोंपर राज्यका भार छोड़ दिया और स्वयं वे वनमें चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरताके साथ आत्मस्वरूप भगवान् में अपना मन लगाकर गुणोंके प्रवाहरूप संसारसे मुक्त हो गये ॥ 26 ॥ परीक्षित्! महाराज अम्बरीषका यह परम पवित्र आख्यान है। जो इसका सङ्कीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान्का भक्त हो जाता है ||27||