सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! पिताके वन चले जानेपर
एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको बहुत पीटा और कहा- 'बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी) से खबर लूँगा ॥ 1 ॥ उसकी इस धमकीसे | डरकर और पुत्रके उपद्रवोंसे दुःखी होकर वह रात्रिके समय कुऍमें जा गिरी और इसीसे उसकी मृत्यु हो गयी ॥ 2 ॥ योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये निकल गये। उन्हें इन घटनाओंसे कोई सुख या दुःख नहीं होता था, क्योंकि उनका न कोई मित्र था न शत्रु ॥ 3 ॥
धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ घरमें रहने लगा। उनके लिये भोग-सामग्री जुटानेकी चिन्ताने उसकी बुद्धि नष्ट कर दी और वह नाना प्रकारके अत्यन्त क्रूर कर्म करने लगा ॥ 4 ॥ एक दिन उन कुलटाओंने उससे बहुत से गहने माँगे। वह तो कामसे अंधा हो रहा था, मौतकी उसे कभी याद नहीं आती। थी। बस, उन्हें जुटानेके लिये वह घरसे निकल पड़ा ॥5॥वह जहाँ-तहाँसे बहुत सा धन चुराकर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण लाकर दिये ॥ 6 ॥ चोरीका बहुत माल देखकर रात्रिके समय स्त्रियोंने विचार किया कि 'यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ | लेगा ॥ 7 ॥ राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राणदण्ड देगा। जब एक दिन इसे मरना ही है, तब हम ही धनकी रक्षाके लिये गुप्तरूपसे इसको क्यों न मार डालें ॥ 8 ॥ इसे मारकर हम इसका माल-मता लेकर जहाँ-कहीं चली जायेंगी। ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारीको रस्सियोंसे कस दिया और उसके गलेमें फांसी लगाकर उसे मारनेका प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ॥ 9-10 ॥ तब उन्होंने उसके मुखपर बहुत-से दहकते अंगारे डाले; इससे वह अनिकी लपटोंसे बहुत छटपटाकर मर गया ॥ 11 ॥ उन्होंने उसके शरीरको एक गड्ढेमें डालकर गाड़ दिया। सच है, स्त्रियाँ प्रायः बड़ी दुःसाहसी होती हैं। उनके इस कृत्यका किसीको भी पता न चला ॥ 12 ॥ लोगों के पूछनेपर कह देती थीं कि 'हमारे प्रियतम पैसेके लोभसे अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं, इसी वर्षके अन्दर लौट आयेंगे ॥ 13 ॥ बुद्धिमान् पुरुषको दुष्टा स्त्रियोका कभी विश्वास न करना चाहिये। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे दुःखी होना पड़ता है ॥ 14 ॥ इनकी वाणी तो अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका सञ्चार करती है; किन्तु हृदय रेकी धारके समान तीक्ष्ण होता है। भला, इन स्त्रियोंका कौन प्यारा है ? ।। 15 ।।
वे कुलटाएँ धुन्धुकारीकी सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँसे चंपत हो गयीं, उनके ऐसे न जाने कितने पति थे और धुन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण 1 भयंकर प्रेत हुआ ॥ 16 ॥ वह बवंडरके रूपमें सर्वदा दसों दिशाओंमें भटकता रहता था तथा शीत घामसे सन्तप्त और भूख-प्याससे व्याकुल होनेके कारण 'हा दैव ! हा दैव!' चिल्लाता रहता था। परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला। कुछ काल बीतनेपर गोकर्ण भी लोगोके मुझसे धुन्धुकारीको मृत्युक्ा समाचार सुना ।।17-18 ॥तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गयाजीमें श्राद्ध किया; और भी जहाँ-जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे ।। 19 ।।
इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगरमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी दृष्टिसे बचकर सीधे अपने घरके आँगन में सोनेके लिये पहुंचे ॥ 20 ॥ वहाँ अपने भाईको सोया देख आधी रातके समय धुन्धुकारीने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया ॥ 21 ॥ वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्रिका रूप धारण करता। अन्तमें वह मनुष्यके आकारमें प्रकट हुआ ।। 22 ।। ये विपरीत अवस्थाएँ देखकर गोकर्णने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गतिको प्राप्त हुआ जीव है। तब उन्होंने उससे धैर्यपूर्वक पूछा ॥ 23 ॥
गोकर्णने कहा- तू कौन है ? रात्रिके समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ? तेरी यह दशा कैसे हुई? हमें बता तो सही तू प्रेत है, पिशाच है अथवा | कोई राक्षस है ? ।। 24 ।।
सूतजी कहते हैं- गोकर्णके इस प्रकार पूछनेपर वह बार-बार जोर-जोरसे रोने लगा। उसमें बोलनेको शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया 25 तब गोकर्णने अञ्जलिमें जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उसपर छिड़का। इससे उसके पापोंका कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा ।। 26 ।।
प्रेत बोला- - 'मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है। धुन्धुकारी। मैंने अपने ही दोषसे अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया ।। 27 ।। मेरे कुकमोंकी गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञानमें चक्कर काट रहा था। इसीसे मैने लोगोंकी बड़ी हिंसा की। अन्तमें कुलटा स्त्रियोंने मुझे तड़पा-तड़पाकर मार डाला ॥ 28 ॥ इसीसे अब प्रेत-योनिमे पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैववश कर्मफलका उदय होनेसे में केवल वायुभक्षण | करके जी रहा हूँ ।। 29 ।। भाई। तुम दयाके समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनिसे छुड़ाओ।' गोकर्णने धुधुकारीको सारी बातें सुनीं और तब उससे बोले ।। 30 ।।गोकर्णने कहा- भाई! मुझे इस बातका बड़ा | आश्चर्य है मैं तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गाजी पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनिसे मुक्त कैसे नहीं हुए ? ।। 31 ।। यदि गया श्राद्धसे भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है। अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहो- मुझे अब क्या करना चाहिये ? ।। 32 ।।
प्रेतने कहा- मेरी मुक्ति सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो ।। 33 ।।
प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बहने लगे 'यदि सैकड़ों गया श्राद्धसे भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है ॥ 34 ॥ अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थानपर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय करूंगा' ॥ 35 ॥
गोकर्णकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी वहाँसे अपने स्थानपर चला आया। इधर गोकर्णने रातभर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा ।। 36 ।। प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेमसे उनसे मिलने आये। तब गोकर्णने रातमें जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया ॥ 37 ॥ उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे, उन्होंने भी अनेकों शास्त्रोंको उलट-पलटकर देखा तो भी उसकी मुक्तिका कोई उपाय न मिला ॥ 38 ॥ तब सबने यहाँ निश्चय किया कि इस विषय में सूर्यनारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये। अतः गोकर्णने अपने तपोबलसे सूर्यको गतिको रोक दिया ।। 39 । उन्होंने स्तुति की— 'भगवन्! आप सारे संसारके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझे कृपा करके धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये। गोकर्णकी यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट शब्दों में कहा- 'श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है, इसलिये तुम उसका सप्ताह पारायण करो।' सूर्यका यह धर्ममय वचन वहाँ सभीने सुना ।। 40-41 ॥ तब सबने यही कहा कि 'प्रयत्नपूर्वक यही करो, है भी यह साधन बहुत सरल।' अतः गोकर्णजी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनानेके लिये तैयार हो गये ।। 42 ।
देश और गाँवोंसे अनेकों लोग कथा सुननेके लिये आये। बहुत-से लंगड़े लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे वहाँ आ पहुँचे ।। 43 ।।इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओंको भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्णजी व्यासगद्दीपर बैठकर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूँढने लगा । इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठके बॉसपर पड़ी ।। 44-45 ।। उसीके नीचेके छिद्रमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठ गया। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँसमें घुस गया ।। 46 ।।
गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको मुख्य श्रोता बनाया। और प्रथमस्कन्धसे ही स्पष्ट स्वरमें कथा सुनानी आरम्भ कर | दी ।। 47 ।। सायंकालमें जब कथाको विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदोंके देखते | देखते उस बाँसकी एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी ।। 48 ।। इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकालमें दूसरी गाँठ फटो और तीसरे दिन उसी समय तीसरी ।। 49 ।। इस प्रकार सात दिनोंमे सातों गाँठोको फोड़कर धुन्धुकारी बारहों स्कन्धोंके सुननेसे पवित्र होकर प्रेतयोनिसे मुक्त हो गया और दिव्यरूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका | मेघके समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसीकी | मालाओंसे सुशोभित था तथा सिरपर मनोहर मुकुट और कानोंमें कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे ।। 50-51 उसने तुरन्त अपने भाई गोकर्णको प्रणाम करके कहा-
'भाई तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिकी यातनाओंसे मुक्त कर दिया ।। 52 । यह प्रेतपीड़ाका नाश करनेवाली श्रीमद्भागवतको कथा धन्य है तथा श्रीकृष्णचन्द्रके धामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताह पारायण भी धन्य है । ।। 53 ।। जब सप्ताहश्रवणका योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवतकी कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी ।। 54 ।। जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी-सब तरहकी लकड़ियोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताह श्रवण मन, वचन और कर्मद्वारा किये हुए नये-पुराने छोटे-बड़े सभी प्रकारके पापोंको भस्म कर देता है ।। 55 ।।
विद्वानोंने देवताओंकी समामें कहा है कि जो लोग इस भारतवर्षमे श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है 56 ॥भला, मोहपूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीरको हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवतकी कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ ? ॥ 57 ॥ अस्थियाँ ही इस शरीर के आधारस्तम्भ है, नस-नाडीरूप रस्सियों से यह बँधा हुआ है, ऊपरसे इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्मसे मढ़ दिया गया है। इसके प्रत्येक अङ्ग दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्रका भाण्ड ही ॥ 58 ॥ वृद्धावस्था और शोकके कारण यह परिणाम में दुःखमय ही है, रोगोंका तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामनासे पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोममें दोष भरे हुए हैं और नष्ट होनेमें इसे एक क्षण भी नहीं लगता ॥ 59 अन्तमें यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्रिमें जला दिया जाता है तो भस्मकी ढेरी हो जाता है। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं। ऐसे अस्थिर शरीरसे मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता ? ॥ 60 ॥ जो अन्न प्रातः काल पकाया जाता है, वह सायंकालतक बिगड़ जाता है; फिर उसीके रससे पुष्ट हुए शरीरको नित्यता कैसी ।। 61 ।।
इस लोकमें सप्ताहश्रवण करनेसे भगवान्की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती है। अतः सब प्रकारके दोषों की निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है ।। 62 ।। जो लोग भागवतको कथासे वञ्चित हैं, वे तो जलमें बुदबुदे और जीवोंमें मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये ही पैदा होते हैं ॥ 63 ॥ भला, जिसके प्रभावसे जड़ और सूखे हुए बाँसकी गाँठे फट सकती है, उस भागवतकथाका श्रवण करनेसे चित्तकी गाँठोका खुल जाना कौन बड़ी बात है ॥ 64 ॥ सप्ताह श्रवण करनेसे मनुष्यके हृदयकी गाँठ खुल जाती है, उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते है ॥ 65 ॥ यह भागवतकथारूप तीर्थ संसारके कीचड़को धोने में बड़ा ही पटु है। विद्वानोंका कथन है कि जब यह हृदयमें स्थित हो जाता है, तब मनुष्यकी मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिये ।। 66 ।।
जिस समय धुन्धुकारी ये सब बातें कह रहा था, जिसके लिये वैकुण्ठवासी पार्षदोंके सहित एक विमान उतरा उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था ॥ 67 ॥ सब लोगोके सामने ही धुन्धुकारी उस विमानपर चढ़ गया। तब उस विमानपर आये हुए पार्षदोंको देखकर उनसे गोकर्णने यह बात कही ।। 68 ।।गोकर्णने पूछा- भगवान् के प्रिय पार्षदो । यहाँ हमारे अनेकों शुद्धहृदय श्रोतागण हैं, उन सबके लिये आपलोग एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाये ? हम देखते हैं कि यहाँ सभीने समानरूपसे कथा सुनी है, फिर फलमें इस प्रकारका भेद क्यों हुआ, यह बताइये ।। 69-70 ।।
भगवान् के सेवकोंने कहा- हे मानद। इस फलभेदका कारण इनके श्रवणका भेद ही है। यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समानरूपसे ही किया है, किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फलमें भेद रहा ।। 71 ।। इस प्रेतने सात दिनोंतक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा सुने हुए विषयका स्थिरचित्तसे यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था ॥ 72 ॥ जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवणका, संदेहसे मन्तका और चित्तके इधर-उधर भटकते रहने से जपका भी कोई फल नहीं होता ।। 73 ।। वैष्णवहीन देश, अपात्रको कराया हुआ श्राद्धका भोजन, अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल इन सबका नाश हो जाता है ॥ 74 ॥ गुरुवचनोंमें विश्वास, दीनताका भाव, मनके दोषोंपर विजय और कथामें चित्तकी एकाग्रता इत्यादि नियमोंका यदि पालन किया जाय तो श्रवणका यथार्थ फल मिलता है। यदि ये श्रोता फिरसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुनें तो निश्चय ही सबको वैकुण्ठकी प्राप्ति होगी ।। 75-76 ।। और गोकर्णजी । आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाममें ले जायेंगे। यो कहकर वे सब पार्षद हरिकीर्तन करते | वैकुण्ठलोकको चले गये ।। 77 ॥
श्रावण मासमें गोकर्णजीने फिर उसी प्रकार सप्ताहमसे कथा कही और उन श्रोताओंने उसे फिर सुना ॥ 78 ॥ नारदजी । इस कथाकी समाप्तिपर जो कुछ हुआ, वह सुनिये ।। 79 ।। वहाँ भक्तोंसे भरे हुए विमानकि साथ भगवान् प्रकट हुए। सब ओरसे खूब जय जयकार और नमस्कारकी ध्वनियाँ होने लगी ॥ 80 ॥ भगवान् स्वयं हर्षित होकर अपने पाञ्चजन्य शङ्खकी ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्णको हृदयसे लगाकर अपने ही समान बना लिया ।। 89 ।।उन्होंने क्षणभरमें ही अन्य सब श्रोताओंको भी मेघके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादिसे विभूषित कर दिया ॥ 82 ॥ उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डालपर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजीकी कृपासे विमानोंपर चढ़ा लिये गये ॥ 83 ॥ तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवद्धाममें वे भेज दिये गये। इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथाश्रवणसे प्रसन्न होकर गोकर्णजीको साथ ले अपने बालबालके प्रिय गोलोकथाममें चले गये ॥ 84 ॥ पूर्वकालमें जैसे अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामके साथ साकेतधाम सिधारे थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उन सबको योगिदुर्लभ गोलोकधामको ले गये ।। 85 ॥ जिस लोकमे सूर्य, चन्द्रमा और सिद्धोंकी भी कभी गति नहीं हो सकती, उसमें वे श्रीमद्भागवत श्रवण करनेसे चले गये ॥ 86 ॥
नारदजी ! सप्ताहयज्ञके द्वारा कथाश्रवण करनेसे जैसा उज्ज्वल फल संचित होता है, उसके विषयमें हम आपसे क्या कहें? अजी ! जिन्होंने अपने कर्णपुटसे गोकर्णजीकी कथाके एक अक्षरका भी पान किया था, वे फिर माताके गर्भमे नहीं आये ॥ 87 ॥ जिस गतिको लोग वायु, जल या पत्ते खाकर शरीर सुखानेसे, बहुत कालतक घोर तपस्या करनेसे और योगाभ्याससे भी नहीं पा सकते, उसे वे सप्ताहश्रवणसे सहज ही प्राप्त कर लेते हैं ॥ 88 ॥ इस परम पवित्र इतिहासका पाठ चित्रकूटपर विराजमान मुनीश्वर शाण्डिल्य भी ब्रह्मानन्दमें मग्न होकर करते रहते हैं ॥ 89 ॥ यह कथा बड़ी ही पवित्र है एक बारके श्रवणसे ही समस्त पापराशिको भस्म कर देती है। यदि इसका श्राद्धके समय पाठ किया जाय, तो इससे पितृगणको बड़ी तृप्ति होती है और नित्य पाठ करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ 90 ॥