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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 10, अध्याय 15 - Skand 10, Adhyay 15

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धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अब बलराम और श्रीकृष्ण पौडअवस्था अर्थात् वर्षमें प्रवेश किया था। अब उन्हें गौएँ चरानेको स्वीकृति मिल गयी। वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनमें जाते और अपने चरणोंसे वृन्दावनको अत्यन्त पावन करते ।। 1 ।। यह वन गौओंके लिये हरी हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पोंकी खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबाल - इस प्रकार विहार करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ॥ 2 ॥ उस वनमें कहीं तो भरे बड़ी मधुर गुञ्जार कर रहे थे, कहीं झुंड के झुंड हरिन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर सुन्दर पक्षी चहक रहे थे। बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओंके हृदयके समान स्वच्छ और निर्मल था। उनमें खिले हुए कमलोंके सौरभसे सुवासित होकर शीतल-मन्द सुगन्ध वायु उस वनकी सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान्ने मन-ही-मन उसमें विहार करनेका संकल्प किया || 3 || पुरुषोत्तम भगवान्ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलोंके भारसे झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलोंकी लालिमासे उनके चरणोंका स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द कुछ मुसकरातेहुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा ॥ 4 ॥

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवशिरोमणे ! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं, परन्तु | देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियोंसे सुन्दर पुष्प और फलोंकी सामग्री लेकर आपके चरणकमलोंमें झुक रहे हैं. नमस्कार कर रहे हैं। क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्यके लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करनेवालोंके अज्ञानका नाश करनेके लिये ही तो वृन्दावन धाम वृक्ष-योनि ग्रहण की है। | इनका जीवन धन्य है ॥ 5 ॥ आदिपुरुष ! यद्यपि आप इस वृन्दावनमें अपने ऐश्वर्यरूपको छिपाकर बालकोंकी-सी लीला कर रहे हैं, फिर भी आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेवको पहचानकर यहाँ भी प्रायः भौरोंके रूपमें आपके भुवन पावन | यशका निरन्तर गान करते हुए आपके भजनमें लगे रहते हैं। वे एक क्षणके लिये भी आपको नहीं छोड़ना चाहते ॥ 6 ॥ 1 भाईजी! वास्तवमे आप ही स्तुति करनेयोग्य है देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके दर्शनोंसे आनन्दित होकर नाच रहे हैं। हरिनियां मृगनयनी गोपियो समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू कुहू ध्वनिसे आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं! ये वनवासी होनेपर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथिको अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं ॥ 7 ॥ आज यहाँकी भूमि अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरणोंका स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँके वृक्ष लताएँ और झाड़िय आपकी अँगुलियोंका स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं आपकी दयाभरी चितवनसे नदी, पर्वत, पशु, पक्षी सब कृतार्थ हो रहे हैं और व्रजको गोपियों आपके वक्षः स्थलका स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं ॥ 8 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावनको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गोवर्धनकी तराईमें, यमुनातटपर गौओंको चराते हुए अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करने लगे ॥ 9 ॥ एक ओर ग्वालबाल भगवान् श्रीकृष्णके चरित्रोंकी मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलरामजीके साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौरोंकी सुरीली गुनगुनाहटमें अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं ॥ 10 ॥कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसों के साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरोंके साथ स्वयं भी ठुमक ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूरको उपहासास्पद बना देते हैं ॥ 11 ॥ कभी मेघके समान गम्भीर वाणीसे दूर गये हुए पशुओंको उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेमसे पुकारते हैं। उनके कण्ठकी मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालोंका चित्त भी अपने वशमें नहीं रहता 12 ॥ कभी चकोर, क्रौंच (ककुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियोंकी-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदिकी गर्जनासे डरे हुए जीवोंके समान स्वयं भी भयभीतकी-सी लीला करते ।। 13 ।। जब बलरामजी खेलते-खेलते चक्कर किसी ग्वालबालकी गोदके तकियेपर सिर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उनके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाईकी थकावट दूर करते || 14 || जब ग्वालबाल नाचने-गाने लगते अथवा ताल ठोक ठोंककर एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ने लगते, तब श्याम और राम दोनों भाई हाथमें हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर 'वाह-वाह करते ॥ 15 ॥ कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वालबालोंके साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्षके नीचे कोमल पल्लवोंकी सेजपर किसी ग्वालबालकी गोदमें सिर रखकर लेट जाते ।। 16 ।। परीक्षित्! उस समय कोई-कोई पुण्यके मूर्तिमान् स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अंगोलियोंसे पंखा झलने लगते ।। 17 ।। किसी-किसीके हृदयमें प्रेमकी धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदारशिरोमणि परममनस्वी श्रीकृष्णकी लीलाओंके अनुरूप उनके मनको प्रिय लगनेवाले मनोहर गीत गाने लगता ।। 18 ।। भगवान्ने इस प्रकार अपनी योगमायासे अपने ऐश्वर्यमय स्वरूपको छिपा रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठीक गोपबालकोंकी-सी ही मालूम पड़तीं। स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरणकमलोकी सेवामें संलग्न रहती हैं, वे ही भगवान् इन ग्रामीण बालकोंके साथ बड़े प्रेमसे ग्रामीण खेल खेला करते थे। परीक्षित्। ऐसा होनेपर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करती ।। 19 ।।

बलरामजी और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप बालक थे श्रीदामा एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके साथ कहा- 20 ॥ हमलोगोको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले बलरामजी । आपके बाहु-बलकी तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एकबड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़के वृक्ष भरे पड़े हैं ।। 21 । वह बहुत-से ताड़के फल पक पककर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलोपर रोक लगा रखी है॥ 22 ॥ बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण। वह दैत्य गधेके रूपमें रहता है। वह स्वयं ते बड़ा बलवान् है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ॥ 23 ॥ मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं । यही कारण है कि उसके डरके मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ।। 24 ।। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द मन्द सुगन्ध फैल रही है । तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ।। 25 ।। श्रीकृष्ण ! उनकी सुगन्धसे हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलोकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये ॥ 26 ॥

अपने सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ॥ 27 ॥ उस वनमें पहुंचकर बलरामजीने अपनी बाँहों उन ताड़के पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथी के बचेके समान उन्हें बड़े जोर से हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये 28 जब गधेके रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको पाता हुआ उनकी ओर दौड़ा 29 ॥ वह बड़ा बलवान् था। उसने बड़े वेगसे बलरामजी के सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ॥ 30 ॥ राजन् ! वह गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजी के पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलती चलायी ॥ 31 ॥ बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके | दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक | ताड़के पेड़पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ।। 32 ।।उसके गिरनेकी चोटसे वह महान् ताड़का वृक्ष जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल था- स्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्षको भी उसने तोड़ डाला। उसने तीसरेको, तीसरेने चौथेको—इस प्रकार एक-दूसरेको गिराते हुए बहुत से तालवृक्ष गिर पड़े ॥ 33 ॥ बलरामजीके लिये तो यह एक खेल था। परन्तु उनके द्वारा फेंके हुए गधेके शरीरसे चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावातने झकझोर दिया हो । 34 || भगवान् बलराम स्वयं जगदीश्वर है। उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओतप्रोत है, जैसे सूतोंमे वस्त्र तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्यकी बात है ॥ 35 ॥ उस समय धेनुकासुरके भाई-बन्धु अपने भाईके मारे जानेसे क्रोधके मारे आगबबूला हो गये। सब-के-सब गधे बलरामजी और श्रीकृष्णपर बड़े वेगसे टूट पड़े ।। 36 ।। राजन् ! उनमेसे जो-जो पास आया, उसी उसीको बलरामजी और श्रीकृष्णने खेल खेलमें ही पिछले पैर पकड़कर तालवृक्षोंपर दे मारा || 37 ॥ उस समय वह भूमि ताड़के फलोंसे पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्योंके प्राणहीन शरीरोंसे भर गयी। जैसे बादलोंसे आकाश ढक गया हो, उस भूमिकी वैसी ही शोभा होने लगी ॥ 38 ॥ बलरामजी और श्रीकृष्णकी यह मङ्गलमयी लीला देखकर देवतागण उनपर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे ।। 39 ।। जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिनसे लोग निडर होकर उस बनके तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दताके साथ घास चरने लगे ll 40 ll

इसके बाद कमलदललोचन भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ व्रजमें आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो, भगवान‌की लीलाओंका श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है ।। 41 ।। उस समय श्रीकृष्णकी अलकोपर गौओके से उड़-उड़कर भूल पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंखका मुकुट था और बालोंमें सुन्दर सुन्दर जंगली पुष्प गुथे हुए थे। उनके नेत्रोंमें मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुसकान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्तिका गान कर रहे थे। वंशीकी ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही वजसे बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कबसे श्रीकृष्णके दर्शनके लिये तरस रही थीं ।। 42 ।।गोपियोंने अपने नेत्ररूप भ्रमरोंसे भगवान् मुखारविन्दका मकरन्द-रस पान करके दिनभरक | जलन शान्त की। और भगवान्ने भी उनकी लाजभरी हैंसी। | तथा विनयसे युक्त प्रेमभरी तिरछी चितवनका सत्कार स्वीकर करके व्रजमें प्रवेश किया || 43 || उधर यशोदामैया और रोहिणीजीका हृदय वात्सल्यस्नेहसे उमड़ रहा था। उन्ह श्याम और रामके घर पहुँचते ही उनकी इच्छाके अनुसार तथा समयके अनुरूप पहलेसे ही सोच-संजोकर रखी वस्तुएँ उन्हें खिलायों पिलायों और पहनायीं ॥ 44 ॥ माताओंने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरनेकी मार्गको थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पोंकी माला पहनायी तथा चन्दन लगाया 45 तत्पश्चात् दोनों भाइयोंने माताओंका परोसा हुआ स्वादिष्ट अत्र भोजन किया। इसके बाद बड़े लाड़-प्यारसे दुलार-दुलार कर या और रोहिणीने उन्हें सुन्दर शय्यापर सुलाया। श्याम और राम बड़े आरामसे सो गये ।। 46 ।।

भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावनमें अनेकों लाएं करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालोंके साथ वे यमुना तटपर गये । राजन् ! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे ।। 47 ।। उस समय जेठ-आषाढके धामसे गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे । प्याससे उनका कण्ठ सूल रहा था। इसलिये उन्होंने यमुनाजीका विषैला जल पी लिया ॥ 48 ॥ परीक्षित्! होनहारके वश उन्हें इस बातका ध्यान ही नहीं रहा था उस विषैले जलके पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुनाजीके तटपर गिर पड़े ।। 49 ।। उन्हें ऐसी अवस्थामें देखकर योगेश्वरीके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी अमृत बरसानेवाली दृष्टिसे उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे॥ 50 ॥ परीक्षित् चेतना आनेपर वे सब | यमुनाजीके तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरेकी ओर देखने लगे ॥ 51 ॥ राजन् ! अन्तमे उन्होंने यही निय किया कि हमलोग विषैला जल पी लेने कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्णने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टिसे देखकर हमें फिरसे जिला दिया है ।। 52 ।।

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा