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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 4, अध्याय 9 - Skand 4, Adhyay 9

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ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

श्रीमैजेवजी कहते हैं-विदुरजी भगवान्के इ प्रकार आश्वासन देनेसे देवताओंका भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़पर चढ़कर अपने भक्तको देखनेके लिये मधुवनमें आये ॥ 1 ॥ उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्याससे एकाग्र हुई बुद्धिके द्वारा भगवान्‌को बिजलीके समान देदीप्यमान जिस मूर्तिका अपने हृदयकमलमें ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान्के उसी रूपको बाहर अपने सामने खड़ा देखा ॥ 2 ॥ | प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेममें अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रोंसे उन्हें पी जायेंगे, मुखसे चूम लेंगे और भुजाओंमें कस लेंगे॥ 3 ॥ वे हाथ जोड़े प्रभु सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मनको बात जान गये उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शङ्खको उनके गालसे छुआ दिया 4 ध्रुवजी भविष्यमें अविचल पद प्राप्त करनेवाले थे। इस समय शङ्खका स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्यवाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्मके स्वरूपका भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभावसे धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ll 54 ll

ध्रुवजीने कहा प्रभो। आप सर्वशक्तिसम्पन्न है, आप ही मेरे अन्तःकरणमें प्रवेशकर अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणोंको भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान्‌को प्रणाम करता हूँ ।। 6 ।। भगवन्! आप एक ही है, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति इस महदादि सम्पूर्ण पक्षको रचकर अन्तर्यामीरूपसे उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणोंमें उनके अधिष्ठातृ-देवताओंके रूपमें स्थित होकर अनेकरूप भासते है ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरहकी लकड़ियों प्रकट हुई आग अपनी उपाधियोंके अनुसार भित्र-भित्र रूपोंमें भासती है ॥ 7 ॥ नाथ सृष्टिके आरम्भ में ब्रह्माजीने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञानके प्रभावसे हो इस जगत्‌को सोकर उठे हुए पुरुषके समान देखा था। दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतलका मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ? ॥8॥ प्रभो इन शवतुल्य शरीरोंके द्वारा भोगा जानेवाला, इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे उत्पन्न सुख तो मनुष्योंको नरकमें भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुखके लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरणके बन्धनसे छुड़ा देनेवाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत्प्राप्तिके सिवा किसी अन्य उद्देश्यसे करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी मायाके द्वारा ठगी गयी है ॥ 9 ॥ नाथ! आपके चरणकमलोंका ध्यान करनेसे और आपके भक्तोंके पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें कालकी तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानोंसे गिरनेवाले पुरुषोंको तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ।। 10 ll

अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तोंका सङ्ग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है। उनके सङ्गमें मैं आपके गुणों और लीलाओंकी कथा-सुधाको पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण भयङ्कर संसारसागरके उस पार पहुँच जाऊँगा ॥ 11 ॥ कमलनाभ प्रभो। जिनका चित्त आपके चरणकमलकी सुगन्धमें लुभाया हुआ है, उन महानुभावोंका जो लोग करते हैं वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदिकी सुधि भी नहीं करते ॥ 12 ॥ अजन्मा परमेश्वर मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदिसे परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणोंसे सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूपको ही जानता हूँ; इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणीकी गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है ।। 13 ।।भगवन्! कल्पका अन्त होनेपर योगनिद्रामे स्थित के परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्वको अपने उदरमें लीन करके शेषजीके साथ उन्हींकी गोदमें शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्रसे प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमलसे परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।। 14 ।।

प्रभो ! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टिसे बुद्धिकी सभी अवस्थाओंके साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, पडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणोंके अधीश्वर हैं। आप जीवसे सर्वथा भिन्न हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूपसे विराजमान है।। 15 ।। आपसे ही विद्या अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूपसे निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत्के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप है। मैं आपकी शरण ॥ 16 ॥ भगवन्! आप परमानन्दमूर्ति है जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगोंकी अपेक्षा आपके चरणकमलोकी प्राप्ति ही भजनका सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंतके जन्में हुए बछड़ेको दूध पिलाती और व्याघ्रादिसे बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहनेके कारण हम-जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार-भयसे रक्षा करते रहते हैं ॥ 17 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब शुभ सङ्कल्पवाले मतिमान् ध्रुवजीने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ।। 18 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदयका सङ्कल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पदका -प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो ॥ 19 ॥

भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोकको आजतक किसीने -प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढीके * चारों ओर देवरीके बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर -कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकोका नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ।। 20-21 ll यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वनको चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करेगा। तेरी इन्द्रियोंकी शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ।। 22 ।। आगे चलकर किसी समय तेरा भाई | उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेममें पागल होकर उसे वनमें खोजती हुई दावानलमें प्रवेश कर जायगी ॥ 23 ॥ यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम उत्तम भोग भोगकर अन्तमें | मेरा ही स्मरण करेगा ।। 24 । इससे तू अन्तमें सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय और सप्तर्षियोंसे भी ऊपर मेरे निज धामको जायगा, जहाँ पहुँच जानेपर फिर संसारमें लौटकर नहीं आना होता है॥ 25 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—बालक ध्रुवसे इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदानकर भगवान् श्रीगरुडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोकको चले गये ॥ 26 ॥ प्रभुकी चरणसेवासे सङ्कल्पित वस्तु प्राप्त हो जानेके कारण यद्यपि ध्रुवजीका सङ्कल्प तो निवृत्त हो गया, ( किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगरको लौट गये ॥ 27 ॥

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरिका परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलोंकी उपासनासे ही है। ध्रुवजी भी सारासारका - पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्ममें उस परमपदको पा लेनेपर भी उन्होंने अपनेको अकृतार्थ क्यों समझा ? ॥ 28 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- ध्रुवजीका हृदय अपनी सौतेली माताके वाग्बाणोंसे बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरिसे मुक्ति नहीं माँगी। अब -जब भगवद्दर्शनसे वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूलके लिये पश्चात्ताप हुआ ॥ 29 ॥

ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे-अहो ! -सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधिद्वारा अनेकों जन्मोंमें प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणोंकी छायाको मैंने छः महीनेमें ही पा लिया, किन्तु चित्तमें दूसरी वासना रहनेके कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ॥ 30 ॥अहो ! मुझ मन्दभाग्यकी मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाशको काटनेवाले प्रभुके पादपद्योंमें पहुँचकर भी उनसे नाशवान वस्तुकी ही याचना की ! 31 ॥ देवताओंको स्वर्गभोगके | पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थितिको सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धिको नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्टने नारदजीकी यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ॥ 32 ॥ यद्यपि संसारमें आत्माके सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्रमें अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादिसे डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान्की मायासे मोहित होकर भाईको ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोगसे जलने लगा ॥ 33 ॥ जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरिको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुषके लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले प्रभुसे मैंने संसार ही माँगा ।। 34 । मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ ! जिस प्रकार कोई कंगला किसी चक्रवर्ती सम्राटको प्रसन्न करके उससे तुपसहित चावलोकी की माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरिसे मूर्खतावश व्यर्थका अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही मांगे हैं ।। 35 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—तात तुम्हारी तरह जो लोग ! श्रीमुकुन्दपादारविन्द मकरन्दके ही मधुकर हैं—जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने आप आयी हुई सभी परिस्थितियोंमे सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ॥ 36 ॥

इधर जब राजा उत्तानपादने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बातपर कैसे हो विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसीके यमलोकसे लौटनेको बातपर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि 'मुझ अभागेका ऐसा भाग्य कहाँ ' ॥ 37 ॥ | परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारदकी बात याद आ गयी। इससे उनका | इस बात में विश्वास हुआ और वे आनन्दके वेगसे अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवालेको एक बहुमूल्य हार दिया ।। 38 ।। राजा उत्तानपादने पुत्रका मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण कुलके बड़े-बड़े मन्त्री और वन्धुजनोंको साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ा सुवर्णजटित रथपर सवार होकर वे झटपट नगरके बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शङ्खदुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों माङ्गलिक बाजे बजते जाते थे ।। 39-40 ॥उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो राजकुमार उत्तमके साथ पालकियोंपर चढ़कर चल रही थीं ॥ 41 ॥ ध्रुवजी उपवनके पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथसे उतर पड़े। पुत्रको देखनेके लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुवको भुजाओंमें भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभुके परमपुनीत पादपद्मोंका स्पर्श होनेसे इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे । 42-43 ।। राजा उत्तानपादकी एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्रका सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेमके कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे * आँसुओंसे उन्हें नहला दिया ।। 44 ।।

तदनन्तर सज्जनोंमें अग्रगण्य ध्रुवजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल प्रश्नादिसे सम्मानित हो दोनों माताओंको प्रणाम किया ॥ 45 ॥ छोटी माता सुरुचिने अपने चरणोंपर झुके हुए बालक ध्रुवको उठाकर हृदयसे लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणीसे 'चिरञ्जीवी रहो' ऐसा आशीर्वाद दिया ॥ 46 ॥ जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचेकी ओर बहने लगता है—उसी प्रकार मैत्री आदि गुणोंके कारण जिसपर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ॥ 47 ॥ इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेमसे विह्वल होकर मिले। एक दूसरेके अङ्गोंका स्पर्श पाकर उन दोनोंके ही शरीरमें रोमाञ्च हो आया तथा नेत्रोंसे बार-बार आसुओंकी धारा बहने लगी ।। 48 ।। ध्रुवकी माता सुनीति अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अङ्गोंके स्पर्शसे उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ।। 49 ।। वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीतिके स्तन उसके नेत्रोंसे झरते हुए मङ्गलमय आनन्दाश्रुओंसे भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने | लगा ॥ 50 ॥ उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, 'महारानीजी ! आपका लाल बहुत दिनोंसे खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करनेवाला है। बहुत दिनोंतक भूमण्डलकी रक्षा करेगा ।। 51 ।। आपने अवश्य ही शरणागतभयभञ्जन श्रीहरिकी उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्युको भी जीत लेते हैं' ll 52 ll

विदुरजी ! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुवके प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तमके सहित हथिनीपर चढ़ाकर महाराज उत्तानपादने बड़े हर्षके साथ राजधानीमें प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्यकी बड़ाई कर रहे थे ।। 53 ।।नगरमे जहाँ-तहाँ मगरके आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये | गये थे तथा फल-फूलोके गुच्छोंके सहित केलेके सम्मे और सुपारीके पौधे सजाये गये थे ।। 54 ।। द्वार-द्वारपर दीपकके सहित जलके कलश रखे हुए थे— जो आमके पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोतीकी लड़ियोंसे सुसज्जित थे ॥ 55 ॥ जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलोंसे नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्णकी सामग्रियोंसे सजाया गया था तथा | उनके कँगूरे विमानोंके शिखरोंके समान चमक रहे थे ॥ 56 ॥ नगरके चौक, गलियों, अटारियों और सड़कोको झड़-बुहार कर उनपर चन्दनका छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य माङ्गलिक उपहार सामग्रियाँ सजी रखी थीं ॥ 57 ॥ ध्रुवजी राजमार्गसे जा रहे। थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगरकी शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखनेको एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभावसे अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उनपर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलोंकी वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुवजीने अपने पिताके महलमें प्रवेश किया ।। 58-59 ।।

वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियोंसे सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजीके लाड़-प्यारका सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्गमें देवतालोग रहते हैं ॥ 60 वहाँ दूधके फेनके समान सफेद और कोमल शय्याएँ हाथी- दतिके पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोनेका सामान था ॥ 61 ॥ उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारोंमें रत्नोंकी बनी हुई स्त्रीमूर्तियोंपर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे ॥ 62 ॥ उस महलके चारों ओर अनेक जातिके दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित उद्यान थे, जिनमें नर और मादा पक्षियोंका | कलरव तथा मतवाले भौरोंका गुंजार होता रहता था ।। 63 ।। उन बगीचोंमें वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियोंसे सुशोभित बालियां थी जिनमें लाल, नीले और सफेद रंगके कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीडा करते रहते थे ॥ 64 ॥

राजर्षि उत्तानपादने अपने पुत्रके अति अद्भुत प्रभावकी बात देवर्षि नारदसे पहले ही सुन रखी थी अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ।। 65 ।।फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदरकी दृष्टिसे देखते हैं तथा प्रजाका भी उनपर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ॥ 66 ॥ और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूपका चिन्तन | करते हुए संसारसे विरक्त होकर वनको चल दिये ॥ 67 ॥

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा