राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन् । देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरङ्गिणी सेनाको खेल-खेल में- अनायास ही जीतकर त्रिलोकीकी राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की ।। 1-2 ।।
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! | देवताओंने विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न करनेपर विश्वरूपने उन्हें नारायणकवचका उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो ॥ 3 ॥
जब विश्वरूपने कहा- देवराज इन्द्र ! भयका अवसर उपस्थित होनेपर नारायणकवच धारण करके अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथमें कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके पवित्रता 'ॐ नमो नारायणाय' और 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इन मन्त्रोंके द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि-करन्यास करे। पहले 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मन्तके ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जांघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिरमें न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्तके मकारसे लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरोंका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं आठ अङ्गो विपरीत क्रमसे न्यास करे ॥ 4-6 ।।तदनन्तर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' – इस द्वादशाक्षर मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोंका दाय तर्जनीसे बायीं तर्जनीतक दोनों हाथकी आठ अंगुलियों और दोनों अंगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करे ॥ 7 ॥ फिर 'ॐ विष्णवे नमः' इस मन्त्रके पहले अक्षर 'ॐ' का हृदयमें 'वि' का प्रहारन्धमें, 'प्' का भौहोंके बीचमे 'ण' का चोटीमें, 'वे' का दोनों नेत्रोंमें और 'न' का शरीरकी सब गाँठोंमें न्यास करे। तदनन्तर 'ॐ मः अस्त्राय फट् ' कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करनेसे इस विधिको जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ।। 8-10 ॥ इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्का ध्यान करे और अपने को भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवचका पाठ करे- ॥ 11 ॥
'भगवान् श्रीहरि गरुड़जीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथोंमें शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकारसे, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥ 12 ॥ मत्स्यमूर्ति भगवान् जलके भीतर जलजन्तुओंसे और वरुणके पाशसे मेरी रक्षा करें। मायासे ब्रह्मचारीका रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाशमें मेरी रक्षा करें ।। 13 ।। जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूंज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्रियों के गर्भ गिर गये थे, वे | दैत्य यूथपतियोंके शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमें मेरी रक्षा करें ॥ 14 ॥ अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्गमें, परशुरामजी पर्वतोंके शिखरोंपरऔर लक्ष्मणजीके सहित भरतके बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवासके समय मेरी रक्षा करें ॥ 15 ॥ भगवान् नारायण मारण मोहन आदि भयङ्कर अभिचारों और सब प्रकारके प्रमादोंसे मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्वसे, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योगके विघ्नोंसे और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 16 परमर्षि सनत्कुमार कामदेवसे, हयग्रीवभगवान् मार्गमें चलते समय देवमूर्तियोंको नमस्कार आदि न करनेके अपराधसे, देवर्षि नारद सेवापराधोंसे * और भगवान् कच्छप सब प्रकारके नरकोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 17 ॥ भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्यसे, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वोंसे, यज्ञभगवान् लोकापवादसे, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पोंके गणसे मेरी रक्षा करें ॥ 18 ॥ भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञानसे तथा बुद्धदेव पाखण्डियोंसे और प्रमादसे मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षाके लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 19 ॥ प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहरके पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ॥ 20 ॥तीसरे पहरमें भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्तके बाद हृषीकेश, अर्धरात्रिके पूर्व तथा अर्धरात्रिके समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ॥ 21 ॥ रात्रिके पिछले प्रहरमें श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकालमें खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदयसे पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओंमें कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ॥ 22 ॥
'सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथके पहिये) की तरह है। आपके किनारेका भाग प्रलयकालीन अनिके समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायुकी सहायतासे सूखे घास फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु सेनाको शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ॥ 23 ॥ कौमोदकी गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियोंका स्पर्श वज्रके समान असह्य है। आप भगवान् अजितकी प्रिया हैं। और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी | कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ॥ 24 ॥ शङ्ख श्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्णके | फूँकनेसे भयङ्कर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा | दीजिये ॥ 25 ॥ भगवान्की प्यारी तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्की प्रेरणासे मेरे शत्रुओंको छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दृष्टि पापात्मा शत्रुओंकी आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदाके लिये अंधा बना दीजिये ।। 26 ।।सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्वादि रेंगनेवाले जन्तु दावाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियोंसे हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मङ्गलके विरोधी हों—वे सभी भगवान् के नाम, रूप तथा आयुधोंका कीर्तन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ ।। 27-28 ॥ बृहद् रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रोंसे जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड और निजी अपने नामोचारण के प्रभावसे हमें सब प्रकरकी विपत्तियोंसे बचायें ॥ 29 ॥ श्रीहरिके नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंको सब प्रकारकी आपत्तियोंसे बचायें ॥ 30 ॥
"जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान् ही है'- -इस सत्यके प्रभावसे हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ॥ 31 ॥ जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टिमें भगवान्का स्वरूप समस्त विकल्पों—भेदोंसे रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्तिके द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियोंको धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूपसे सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपोंसे हमारी रक्षा करें ।। 32-33 ।। जो अपने भयङ्कर अट्टाहाससे सब लोगोंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशामें, नीचे ऊपर, बाहर-भीतर -सब ओर हमारी रक्षा करें' ।। 34 ।।
देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें यह नारायणकवच सुना दिया। इस कवचसे तुम अपनेको सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य यूथपतियों को जीत लोगे ।। 35 ।। इस नारायणकवचको धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रोंसे देख लेता अथवा पैर छू देता है, वह तत्काल समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता | है || 36 | जो इस वैष्णवी विद्याको धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवोंसे कभी किसी प्रकारका भय नहीं होता ॥ 37 ॥देवराज ! प्राचीन कालकी बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मणने इस विद्याको धारण करके योगधारणासे अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया ॥ 38 ॥ जहाँ उस ब्राह्मणका शरीर पड़ा था, उसके ऊपरसे एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियोंके साथ विमानपर बैठकर निकले ॥ 39 ॥ वहाँ आते ही वे नीचेकी ओर सिर किये विमानसहित आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इस घटनासे उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवताकी हड्डियोंको ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदीमें प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोकको गये ॥ 40 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 41 ॥ परीक्षित्! शतक्रतु इन्द्रने आचार्य विश्वरूपजीसे यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमिमें असुरोंको जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मीका उपभोग आदरसे झुक करने लगे ॥ 42 ॥