शौनकजीने कहा- अश्वत्थामाने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तराका गर्भ नष्ट हो गया था; परंतु भगवान्ने उसे पुनः जीवित कर दिया ॥ 1 ॥ उस गर्भसे पैदा | हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्के, जिन्हें शुकदेवजीने ज्ञानोपदेश | दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्तहुई, यह सब यदि आप ठीक समझे तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धा | साथ सुनना चाहते हैं । 2-3 ॥
सूतजीने कहा- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजाको प्रसन्न हुए पिताके समान उसका पालन करने लगे। भगवान् रखते श्रीकृष्णके चरण-कमलोके सेवनसे वे समस्त भोगोंसे निःस्पृह हो गये थे 4
शौनकादि ऋषियों उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकोंका अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्दीपके स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्गतक फैली हुई थी ॥ 5॥ उनके पास भोगकी ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवतालोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्यको भोजनके अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान् के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी ॥ 6 ॥ शौनकजी उत्तराके गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ 7 ॥ वह देखनेमें तो अंगूठेभरका है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोनेका मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लुकेके समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ।। 8-9 ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरेको भगा देते है, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है | 10 || इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशुके सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये 11 ॥
तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सदगुणों को विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ।। 12 ।। पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म संस्कार करवाये ।। 13 ।। महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ * नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी-घोड़े और | उत्तम अन्नका दान दिया ।। 14 ।। ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा- 'पुरुवंश-शिरोमणे । कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान् विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ।। 15-16 इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्का परम भक्त और महापुरुष होगा' ।। 17 ।।
युधिष्ठिरने कहा - महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ।। 18 ।।
ब्राह्मणोंने कहा - धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकुके समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ 19 ॥ यह उशीनर नरेश शिविके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ 20 ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ।। 21 ।। यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता-पिताके समान सहनशील होगा ॥ 22 ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान् शंकरकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके समान होगा ॥ 23 ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार | होगा और ययातिके समान धार्मिक होगा ।। 24 ॥धैर्यमें बलिके समान और भगवान् श्रीकृष्णके प्रति दृढ़ निष्ठामें यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुत-से अश्वमेध यज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ॥ 25 ॥ इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा ॥ 26 ॥ ब्राह्मणकुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी | आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्के चरणों की शरण लेगा ॥ 27 ॥ राजन्। व्यासनन्दन शुकदेवजीसे यह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ 28 ॥
ज्योतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलप्रका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने अपने घर चले गये ॥ 29 ॥ वही यह बालक संसारमें परीक्षित्के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भमे जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसीको परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है ॥ 30 ॥ जैसे शुरू पक्षमें दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओंसे पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालनसे क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया । 31 ।।
इसी समय स्वजनोंके वधका प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान्की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुमन) की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये ।। 32 ।। उनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोद्वारा छोड़ा हुआ बहुत सा धन ले आये ॥ 33 ॥ उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिरने तीन अश्वमेध यज्ञोके द्वारा भगवान्की पूजा की ॥ 34 ॥ युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान् ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे ।। 35 ।। शौनकजी। इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदीसे अनुमति लेकर अर्जुनके साथ यदुवंशियोंसे घिरे हुए भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।। 36 ।।