राजा प्राचीनबर्हिने कहा- भगवन्! मेरी समझमें आपके वचनोंका अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं ॥ 1 ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् पुरञ्जन (नगरका निर्माता) जोव है— जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरोंवाला या बिना पैरोंका शरीररूप पुर तैयार कर लेता | है || 2 || उस जीवका सखा जो अविज्ञात नामसे कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकारके नाम, गुण अथवा कर्मोसे जीवोंको उसका पता नहीं चलता ॥ 3 ॥ जीवने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयोंको भोगनेकी इच्छा की तब उसने दूसरे शरीरोंको अपेक्षा नौ द्वार दो हाथ और दो पैरोंवाला मानव देह ही पसंद किया 4 ॥ बुद्धि अथवा अविद्याको ही तुम पुरञ्जनी नामकी स्त्री जानो; इसीके कारण देह और इन्द्रिय आदिमें मैं मेरेपनका भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसीका आश्रय लेकर शरीरमें इन्द्रियोद्वारा विषयोंको भोगता है ॥ 5 ॥ दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकारके ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ ही उसकी सखियां और प्राण-अपान-व्यान उदान समानरूप पाँच वृत्तियोंवाला | प्राणवायु ही नगरकी रक्षा करनेवाला पाँच फनका सर्प है ॥ 6 ॥दोनों प्रकारको इन्द्रिय नायक मनको ही ग्यारह मह योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय देश है जिसके बीचमें वह नौ द्वारोंवाला नगर बसा हुआ है ॥ 7 ॥
उस नगरमें जो एक-एक स्थानपर दो-दो द्वार बताये गये थे—वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिङ्ग और गुदा ये तीन और मिलाकर कुल नी हैं; इन्हींमें होकर वह जीव इन्द्रियोंके साथ बाह्य विषयोंमें जाता है ॥ 8 ॥ इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुखये पाँच पूर्वके द्वार हैं; दाहिने कानको दक्षिणका और बायें कानको उत्तरका द्वार समझना चाहिये ॥ 9 ॥ गुदा और लिङ्ग-ये नीचेक दो छिद्र पश्चिमके द्वार है खद्योता और आर्मुिखी नामके जो दो द्वार एक स्थानपर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभाजित नामका देश है, जिसका इन द्वारोंसे जीवचक्षु-इन्द्रियको सहायता अनुभव करता है। (चक्षु-इन्द्रियोंको ही पहले घुमान् नामका सखा कहा गया है) ॥ 10 ॥ दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नामके द्वार हैं और नासिकाका विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नामका मित्र है। मुख मुख्य नामका द्वार है उसमें रहनेवाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय सि (रसज्ञ) नामका मित्र है ॥ 11 ॥ वाणीका व्यापार आपण है और है तरह-तरहका अत्र बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है।। 12॥ कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्गका शास्त्र और उपासनाकाण्डरूप निवृत्तिमार्गका शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पाचाल देश है। इन्हें श्रवणेन्द्ररूप धरकी सहायतासे सुनकर जीव क्रमशः पितृचान और देवयान मार्गे जाता है॥ 13 ॥ ही आसुरी नामका पश्चिमी द्वार है, नामक नामका देश है और लिङ्गमें रहनेवाला उपस्थेन्द्रियदुनंद नामका मित्र है। गुदा निर्ऋति नामका पश्चिमी द्वार है ॥ 14 ॥ नरक वैशस नामका देश है और गुदामें स्थित पायु-इन्द्रिय क नामका मित्र है। इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्होंकी सहायता क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है ।। 15 ।। हृदय अन्त: पुर है, उसमें रहनेवाला मन ही विषूचि (विषूचीन) नमा प्रधान सेवक है। जीव उस मनके सत्त्वादि गुणोंके कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोहको प्राप्त होता है ॥ 16 ॥ बुद्धि (राजमहिषी पुरञ्जनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्रावस्थामे विकारको प्राप्त होती है और जाग्रत अवस्थामे इन्द्रियादिको करती है, उसके गुणोंसे लिए होकर आत्मा (जीव) भी उसी उसी रूपमें उसकी वृत्तियोका अनुकरण करने को बाध्य होता | है यद्यपि वस्तुतः यह उनका निर्विकार साक्षीमात्र हो है ॥ 17॥शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखनेमें संवत्सररूप कालके समान हो उसका अप्रतिहत बंग है, वास्तवमें वह गतिहीन है। पुण्य और पाप ये दो प्रकारके कर्म ही उसके पहिये हैं, तीन गुण ध्वजा है, पाँच प्राण डोरियाँ है । 18 ॥ मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठनेका स्थान है, सुख-दुःखादि इन्द्र जुए हैं, इन्द्रियोंके पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं ।। 19 । पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसको पाँच प्रकारको गति है। इस रथपर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णाके समान मिथ्या विषयोंकी और दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना है तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंक द्वारा उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है ।। 20 ।।
जिसके द्वारा कालका ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन सौ साठ गन्धर्वियां रात्रि है। ये बारी-बारीसे चक्कर लगाते हुए मनुष्यको आयुको हरते रहते हैं। ।। 21 ।। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराजने लोकका संहार करनेके लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया ।। 22 ।। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) हो उस यवनराजके पैदल चलनेवाले सैनिक हैं तथा प्राणियोंको पीड़ा पहुंचाकर शीघ्र ही मृत्युके मुखमें ले जानेवाला शीत और उष्ण दो प्रकारका ज्वर ही प्रज्वार नामका उसका भाई है ll 23 ll
इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञानसे आच्छादित होकर अनेक प्रकारके आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्यशरीरमें पड़ा रहता है ।। 24 ।। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मनके धर्मोको अपनेमें आरोपित कर मैं मेरे पनके अभिमानसे बँधकर क्षुद्र विषयोंका चिन्तन करता हुआ तरह तरहके कर्म करता रहता है ।। 25 ।। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जबतक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान्के स्वरूपको नहीं जानता, तबतक प्रकृतिक गुणोंमें हो वैधा रहता है॥ 26 ॥ उन गुणोंका अभिमानी होनेसे वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मोंक अनुसार भित्र-भित्र योनियोंमें जन्म लेता है॥ 27 ॥ वह कभी तो सात्त्विक | कर्मकि द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कमकि द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकोंमें जाता है-जहाँ उसे तरह-तरहके कर्मोका फ्रेश उठाना पड़ता है और कभी तमोगुणी कर्मकि द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियोंमें जन्म लेता है ॥ 28 ॥ इस प्रकार अपने कर्म और गुणोंके अनुसार देवयोनि मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव | कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है ।। 29 ।।। जिस प्रकार बेचारा भूखसे व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ | अपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता है उसी प्रकार यह जीव चित्तमें नाना प्रकारकी वासनाओंको लेकर ऊँचे-नीचे मार्गसे ऊपर, नीचे अथवा मध्यके लोकोंमें भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है ॥ 30-31 ॥
आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक प्रकारके टू खोसे किसी भी एकसे जीवका सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति हो है ।। 32 । वह ऐसी ही है जैसे कोई सिरपर भारी बोझा ढोकर ले जानेवाला पुरुष उसे कंधेपर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये-यदि किसी उपायसे मनुष्य एक प्रकारके दुःखसे छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिरपर सवार हो जाता है॥ 33 ॥ शुद्धहृदय नरेन्द्र! जिस प्रकार स्वप्रमें होनेवाला स्वप्नान्तर उस स्वमसे सर्वथा छूटने का उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफलभोगसे सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफलभोग दोनों ही अविधायुक्त होते हैं ।। 34 ।। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिङ्गशरीरसे विचरनेवाले प्राणीको स्वप्रके पदार्थ न होनेपर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्यपदार्थ वस्तुतः न होनेपर भी, जबतक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते हैं और जीवको जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्ति नहीं मिलती (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्तिका उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है) 35 ॥
राजन्! जिस अविद्याके कारण परमार्थस्वरूप आत्माको यह जन्म-मरणरूप अनर्थपरम्परा प्राप्त हुई है, उसको निवृति गुरुस्वरूप श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति होनेपर हो सकती है ॥ 36 ॥ भगवान् वासुदेव एकापतापूर्वक सम्यक प्रकारसे किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव कर देता है 37 ॥ राजये। यह भक्तिभाव भगवान्की कथाओंके आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 38 राजन् जहाँ भगवद्गुणोंको कहने और सुननेमें तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाजमे सब ओर महापुरुषोंके मुख से निकले हुए श्रीमदभगवान्के चरित्ररूप शुद्ध अमृतको अनेको नदियाँ बहती रहती है। जो लोग अपने कर्ण कुहराद्वारा उस अमृतका छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते ।। 39-40।। हाय। स्वभावत प्राप्त होनेवाले इन क्षुधा पिपासादि विनोसे सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि कथामृत सिन्धुसे प्रेम नहीं करता ॥ 41 ॥साक्षात् प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी, भगवान् शङ्कर, स्वायम्भुव मनु, दक्षदि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रहाचारी, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं—ये | जितने ब्रह्मवादी मुनिगण है, समस्त वायके अधिपति होनेपर भी तप, उपासना और समाधिके द्वारा ढूंढ-ढूंढकर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वरको आजतक न देख सके ।। 42-44 ।। वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचन करके बताये हुए वज्रहस्तत्वादि गुणोंसे युक्त इन्द्रादि देवताओंके रूपमें, भिन्न-भिन्न कर्मकि द्वारा, यद्यपि उस परमात्माका ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूपको वे भी नहीं जानते 45 हृदयमें बार-बार चिन्तन किये जानेपर भगवान् जिस समय जिस जीवपर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्गकी बद्धमूल आस्थासे छुट्टी पा जाता है ।। 46 ।।
बर्हिष्मन् तुम इन कर्मोंमें परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थका तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है 47 जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेदको कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तवमें उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं ।। 48 पूर्वकी ओर अग्रभागवाले कुशाओंसे सम्पूर्ण भूमण्डलको आच्छादित करके अनेकों पशुओंका वध करनेसे तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तवमें तुम्हें कर्म या उपासना किसीके भी रहस्यका पता नहीं है। वास्तवमें कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरिको प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान्में चित्त लगे ॥ 49 श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियोंके आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्योंके एकमात्र आश्रय हैं और उन्हींसे संसारमें सबका कल्याण हो सकता है. ॥ 50 ॥ 'जिससे किसीको अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है' ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है. और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है ॥ 51 ॥
श्रीनारदजी कहते हैं। यहां जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभांति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनों ॥। 52 ।। पुष्पवाटिकामें अपनी हरिनीके साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अङ्कुरोको चर रहा है। उसके कान भौरोंके मधुर गुंजारमें लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवोंको मारकर अपना पेट पालनेवाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं। और पीछेसे शिकारी व्याधने बींधनेके लिये उसपर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ भी पता नहीं है।'एक बार इस हरिनकी दशापर विचार करो ।। 53 ।।
राजन् ! इस रूपकका आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशापर विचार करो। पुष्पोंकी तरह ये स्त्रियाँ केवल देखनेमें सुन्दर हैं, इन स्त्रियोंके रहनेका घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पोंके मधु और गन्धके समान क्षुद्र सकाम कर्मोक फलरूप, जीभ और जननेन्द्रियको प्रिय लगनेवाले भोजन तथा स्वीसङ्ग आदि तुच्छ भोगोंको ढूँढ रहे हो। स्त्रियोंसे घिरे रहते हो और अपने मनको तुमने उन्होंमें फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रोंका मधुर भाषण ही भौरोंका मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसीमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियोंके झुंडके समान कालके अंश दिन और रात तुम्हारी आयुको हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थोके सुखोंमें मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाणसे तुम्हारे हृदयको दूरसे ही बाँध डालना चाहता है ॥ 54 ॥ इस प्रकार अपनेको मृगकी सो स्थितिमें देखकर तुम अपने वित्तको हृदयके भीतर निरुद्ध करो और नदीकी भांति प्रवाहित होनेवाली की वावृत्तिको बितमें स्थापित करो (अन्तर्मुखी करो) । जहाँ कामी पुरुषोंकी चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रमको छोड़कर परमहंसोंके आश्रय श्रीहरिको प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयोंसे विरत हो जाओ ।। 55 ।।
राजा प्राचीनवर्हिने कहा- भगवन्! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उसपर विशेषरूपसे विचार भी किया। मुझे कर्मका उपदेश देनेवाले इन आचार्योंको निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषयको जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते ॥ 56 ॥ विप्रवर ! मेरे उपाध्यायोंने आत्मतत्त्वके विषयमें मेरे हृदयमें जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरहसे काट दिया। इस विषयमें इन्द्रियोंकी गति न होनेके कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियोंको भी मोह हो जाता है ।। 57 वेदवादियोंका कथन जगह-जगह सुना जाता है कि 'पुरुष इस लोकमे जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूलशरीरको यहीं छोड़कर परलोकमें कमसे ही बने हुए दूसरी | देहसे उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है ? क्योंकि उन कमका कर्ता तो यहाँ नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षणमें अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोकमे फल देनेके लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं ? ।। 58-59 ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन्। (स्थूल शरीर तो लिङ्गशरीर के अधीन है, अतः का उत्तरदायित्व उसपर है) जिस मनः प्रधान लिङ्गशरीरकी सहायतासे मनुष्य कर्म करता है, | वह तो मरनेके बाद भी उसके साथ रहता ही है; अतः वहपरलोकमे अपरोक्षरूपसे स्वयं उसीके द्वारा उनका फल भोगता है, ।। 60 ।। स्वप्रावस्थामें मनुष्य इस जीवित शरीरका अभिमान तो छोड़ | देता है, किन्तु इसीके समान अथवा इससे भिन्न प्रकारके पशु-पक्षी आदि शरीरसे वह मनमें संस्काररूपसे स्थित कमका फल भोगता | रहता है ।। 61 ।। इस मनके द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादिको 'ये मेरे है और देहादिको 'यह मैं हूँ' ऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मोंको भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है ।। 62 ।। जिस प्रकार है ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनोंकी चेष्टाओंसे उनके प्रेरक चित्तका अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्तकी भिन्न-भिन्न प्रकारकी वृतियोंसे पूर्वजन्मके कर्मोंका भी अनुमान होता है (अतः कर्म अदृष्टरूपसे फल देनेके लिये कालान्तरमें मौजूद रहते हैं) ।। 63 ।। कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तुका इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया जिसे न कभी देखा, न सुना ही उसका स्वप्नमें, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है ।। 64 । राजन् ! तुम निश्चय मानो कि लिङ्गदेहके अभिमानी जीवको उसका अनुभव पूर्वजन्ममे हो चुका है; क्योंकि जो वस्तु पहले अनुभव की हुई नहीं होती, उसकी मनमें वासना भी नहीं हो सकती ॥ 65 ॥
राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्यके पूर्वरूपोंको तथा भावी शरीरादिको भी बता देता है; और जिनका भावी जन्म होनेवाला नहीं होता, उन तत्त्ववेत्ताओंकी विदेहमुक्तिका पता भी उनके मनसे ही लग जाता है॥ 66 ॥ कभी-कभी स्वप्रमें देश, काल अथवा क्रियासम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं (जैसे पर्वतकी चोटीपर समुद्र, दिनमें तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) । इनके दीखने में निद्रादोषको ही कारण मानना चाहिये ॥ 67 ॥ मनके सामने इन्द्रियोंसे अनुभव होने योग्य पदार्थ हो भोगरूपमें बार-बार आते हैं। और भोग समाप्त होनेपर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियोंसे अनुभव हो न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मनसहित हैं।। 68 । साधारणतया तो सब पदार्थोंका क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तनमें लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्वमें स्थित हो जाय, तो उसमें भगवान्का संसर्ग होनेसे एक साथ समस्त विश्वका भी भान हो सकता है— जैसे राहु दृष्टिका विषय न होनेपर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमाके संसर्गसे | दीखने लगता है ।। 69 ।। राजन्। जबतक गुणोंका परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयोंका सङ्घात यह अनादि लिङ्गदेह बना हुआ है, तबतक जीवके अंदर स्थूलदेहके प्रति 'मैं मेरा' इस भावका अभाव नहीं हो सकता ॥ 70 ॥ सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादिके समय भी इन्द्रियोंकी व्याकुलताके कारण 'मैं' और 'मैरेचन' की स्पष्टप्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है। ।। 71 ।। जिस प्रकार अमावास्याकी रात्रि चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्थामे स्पष्ट प्रतीत होनेवाला यह एकादश इन्द्रियविशिष्ट लिङ्गशरीर गर्भावस्था और बाल्यकालमें रहते हुए भी इन्द्रियोंका पूर्ण विकास न होनेके कारण प्रतीत नहीं होता ।। 72 ।। जिस प्रकार स्वप्रमें किसी वस्तुका अस्तित्व न होनेपर भी जागे बिना स्वमजनित अनर्थक निवृति नहीं होती उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि अस हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है, इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसारसे छुटकारा नहीं हो पाता ॥ 73 ॥
इस प्रकार पञ्चतन्मात्राओंसे बना हुआ तथा सोलह तत्त्वोंकि रूपमें विकसित यह त्रिगुणमय सङ्घात हो लिङ्गशरीर है। यहीं चेतनाशक्तिसे युक्त होकर जीव कहा जाता है ।। 74 । इसीके द्वारा है। पुरुष भिन्न-भिन्न देहोंको ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसीसे उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदिका अनुभव होता है ।। 75 ।। जिस प्रकार जोंक, जबतक दूसरे तृणको नहीं पकड़ लेती, तबतक पहलेको नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होनेपर भी जबतक देहारम्भक कर्मोकी समाप्ति होनेपर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तबतक पहले शरीरके अभिमानको नहीं छोड़ता। राजन्! यह मनः प्रधान लिङ्गशरीर ही जीवके जन्मादिका कारण है । 76-77 ।। जोव जब इन्द्रियजनित भोगोंका चिन्तन करते हुए बार-बार उन्होंके लिये कर्म करता है, तब उन कर्मोक होते रहनेसे अविद्यावश वह | देहादिके कर्मोंमें बंध जाता है ॥ 78 ॥ अतएव उस कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेके लिये सम्पूर्ण विश्वको भगवदूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरिका भजन करो। उन्हींसे इस विश्वकी उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हींमें लय होता है ।। 79 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं विदुरजी भक्तश्रेष्ठ श्रीनारदजीने राजा प्राचीनवर्हिको जीव और ईश्वरके स्वरूपका दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोकको चले गये ॥ 80 ॥ तब राजर्षि प्राचीनवर्हि भी प्रजापालनका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर तपस्या करनेके लिये कपिलाश्रमको चले गये । 81 ।। वहाँ उन वीरवरने समस्त विषयोंकी आसक्ति छोड़ एका मनसे भक्तिपूर्वक हरिकेचरणकमलोक चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया ।। 82 ।।
निष्पाप विदुरजी देवर्षि नारदके परोक्षरूपसे कहे हुए इस आत्मज्ञानको जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा वह शीघ्र ही लिङ्गदेहके बन्धनसे छूट जायगा ll 83 llदेवर्षि नारदके मुखसे निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्दके यशसे सम्बद्ध होनेके कारण त्रिलोकोको पवित्र करने वाला, अन्तःकरणका शोधक तथा परमात्मपदको प्रकाशित करने वाला है। जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जायगा और फिर उसे इस संसार-चक्रमें नहीं भटकना पड़ेगा ॥ 84 ॥ विदुरजी ! गृथाश्रमी पुरञ्जनके रूपकसे परोक्षरूपये कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरुजीकी कृपासे प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेनेसे बुद्धियुक्त जीवका देहाभिमान निवृत्त हो जाता है तथा उसका 'परलोकमें जीव किस प्रकार कर्मोका फल भोगता है' यह संशय भी मिट जाता है ।। 85 ।।