श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् । नन्दबाबा जब मथुरासे चले, तब रास्तेमें विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशङ्का हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन 'भगवान् ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे' ऐसा निश्चय किया ॥ 1 ॥ पूतना नामकी एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था- बच्चोंको मारना । कंसकी आज्ञासे वह नगर, ग्राम और अहीरोंकी बस्तियोंमें बच्चों को मारनेके लिये घूमा करती थी ॥ 2 ॥ जहाँके लोग अपने प्रतिदिनके कामोंमें राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान्के नाम, गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते- वहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है ॥ 3 ॥ वह पूतना आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और गोकुलके भीतर घुस गयी ॥ 4 ॥ उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियोंमें बेलेके फूल गुँधे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमक मुलकी ओर लटकी हुई अलके और भी शोभायमान से जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी 5 वह अपनी मधुर मुसकान और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणीको हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं ॥ 6 ॥पूतना बालकोंके लिये ग्रहके समान थी। वह इधर-उधर बालकको दती हुई अनायास ही नन्दबाबाके घरमें घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए है। परीक्षित | भगवान् श्रीकृष्ण दुष्टकि काल हैं। परन्तु जैसे आग राखको ढेरीमै अपनेको छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ॥ 7 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियोंके आत्मा हैं। इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चोंको मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये।' * जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान् श्रीकृष्णको पूतनाने अपनी गोद में उठा लिया ॥ 8 ॥मखमली म्यानके भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवारके समान पूतनाका हृदय तो बड़ा कुटिल था; किन्तु ऊपरसे वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक भद्र महिलाके समान जान पड़ती थी। इसलिये रोहिणी और यशोदाजीने उसे घरके भीतर आयी | देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभासे हतप्रतिभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी खड़ी देखती रहीं ॥ 9 ॥ इधर भयानक राक्षसी पूतनाने बालक श्रीकृष्णको अपनी गोदमें लेकर उनके मुँहमें अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयङ्कर और किसी प्रकार भी पच न सकनेवाला विष लगा हुआ था । भगवान्ने क्रोधको अपना साथी बनाया और दोनों | हाथोंसे उसके स्तनोंको जोरसे दबाकर उसके प्राणोंके साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा ! ) * ॥ 10 ॥ अब तो पूतनाके प्राणोंके आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी- 'अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर !' वह बार-बार | अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया ॥ 11 ॥उसकी चिल्लाहटका वेग बड़ा भयङ्कर था। उसके प्रभावसे पहाड़ोंके साथ पृथ्वी और ग्रहोंके साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपातकी आशङ्कासे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 12 ॥ परीक्षित्! इस प्रकार निशाचरी पूतनाके स्तनोंमें इतनी पीड़ा हुई कि वह अपनेको छिपा न सकी, राक्षसीरूपमें प्रकट हो गयी। उसके शरीरसे प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्रके वज्रसे घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठमें आकर गिर पड़ी ॥ 13 ॥
राजेन्द्र ! पूतनाके शरीरने गिरते-गिरते भी छः कोसके भीतरके वृक्षोंको कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई || 14 || पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हलके समान तीखी और भयङ्कर दाढ़ोंसे युक्त था। उसके नथुने पहाड़की गुफाके सामन गहरे थे और स्तन पहाड़से गिरी हुई चट्टानोंकी तरह बड़े-बड़े थे । लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे ।। 15 ।। आँखें अंधे कूएँके समान गहरी नितम्ब नदीके करारकी तरह भयङ्कर; भुजाएँ, जाँघें और पैर नदीके पुलके समान तथा पेट सूखे हुए सरोवरकी भाँति जान पड़ता था ॥ 16 ॥ पूतनाके उस शरीरको देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयङ्कर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सिर तो पहले ही फट से रहे थे।। 17 ।। जब गोपियोंने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छातीपर * निर्भय होकर खेल रहे हैं, तब वे बड़ी घबराहट और | उतावलीके साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्णको उठा लिया ॥ 18 ॥इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोने गायकी पूँछ घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृ | अङ्गोंकी सब प्रकारसे रक्षा की ॥ 19 ॥। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्णको गोमूत्र से स्नान कराया, फिर सब अङ्गोंमें गो-रज लगायी और फिर बारहों अङ्ग | गोबर लगाकर भगवान्के केशव आदि नामोंसे रक्षा की ॥ 20 ॥ इसके बाद गोपियोंने आचमन करके 'अज' आदि ग्यारह बीज- मन्त्रोंसे अपने शरीरोंमें अलग-अलग अङ्गन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालकके अङ्गोंमें बीजन्यास किया ।। 21 ।।
वे कहने लगी- 'अजन्मा भगवान् तेरे पैरोंकी रक्षा करें, भणिमान् घुटनोंकी, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्युत कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी ईश वक्षःस्थलकी, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिरकी रक्षा करें ॥ 22 ॥ चक्रधर भगवान् रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें शलभारी उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वीपर और भगवान् परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये | रहें ।। 23 ।। हृषीकेशभगवान् इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और योगेश्वर मनकी रक्षा करें ।। 24 ।। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान् तेरे अहङ्कारकी रक्षा करें खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें ॥ 25 चलते समय भगवान् वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान् श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान् तेरी रक्षा करें ॥ 26 ॥ डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रहः भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मृगी) आदि रोग; स्वप्रमें देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि-ये सभी अनिष्ट भगवान् विष्णुका नामोच्चारण करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायें* ।। 27-29 ।। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् इस प्रकार गोपियोने प्रेम बैधकर भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षा की। माता यशोदाने अपने पुत्रको स्तन पिलाया और फिर पालनेपर सुला दिया ॥ 30 ॥ इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे गोकुलमें पहुँचे । जब उन्होंने पूतनाका भयङ्कर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये ॥ 31 ॥ वे कहने लगे- 'यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, अवश्य ही वसुदेवके रूपमें किसी ऋषिने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेवजी पूर्व जन्ममें कोई योगेश्वर रहे हो क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखनेमें आ रहा है ॥ 32 ॥ तबतक व्रजवासियोंने कुल्हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुलसे दूर ले जाकर लकड़ियोंपर रखकर जला दिया ।। 33 ।। जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमेंसे ऐसा आ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी क्यों न हो, भगवान्ने जो उसका दूध पी लिया था— जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे ।। 34 ।। पूतना एक राक्षसी थी । लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जाना - यही उसका काम था। भगवान्को भी उसने मार डालने की इच्छासे ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है।। 35 । ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ।। 36 ।। भगवान्के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं । वे भोके हृदयकी पूँजी है। उन्हीं चरणोंसे भगवान्ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था ||37|| माना कि वह राक्षसी थी, परन्तु उसे उत्तम से उत्तम गति -जो माताको मिलनी चाहिये प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तनका दूध भगवान्ने बड़े प्रेमसे पिया, उन गौओ और माताओंकी है तो बात ही क्या है ।। 38 ।।परोक्षित् ! देवकीनन्दन भगवान् कैवल्य आदि सब प्रकारकी मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं। उन्होंने व्रजकी गोपयों और गौओका वह दूध, जो भगवान्के प्रति पुत्र भाव होनेसे वात्सल्य- स्नेहकी अधिकताके कारण स्वयं ही झरता रहता था, | भरपेट पान किया ॥ 39 ॥ राजन् ! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान् श्रीकृष्णको अपने पुत्रके ही रूपमें देखती थी, फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें कभी नहीं पड़ सकता; क्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है ॥ 40 ॥
नन्दबाबाके साथ आनेवाले व्रजवासियोंकी नाकमें जब चिताके घूएँको सुगन्ध पहुँची, तब 'यह क्या है ? कहाँसे ऐसी सुगन्ध आ रही है ?' इस प्रकार कहते हुए वे व्रजमें पहुँचे॥41॥ वहाँ गोपोंने उन्हें पूतनाके आनेसे लेकर मरनेतकका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वे लोग पूतनाकी मृत्यु और श्रीकृष्णके कुशलपूर्वक बच जानेकी बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए ॥ 42 ॥ परीक्षित्! उदारशिरोमणि नन्दबाबाने मृत्युके मुखसे बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए ॥ 43 ॥ यह ‘पूतना-मोक्ष' भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत बाल-लीला है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रेम प्राप्त होता है।। 44 ।।