श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! महाराज पृथुके बाद
उनके पुत्र परम यशस्वी विजिताश्च राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयोंपर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारोंको एक-एक | दिशाका अधिकार सौंप दिया ॥ 1 ॥ राजा विजिताश्वने हर्यक्षको पूर्व, धूम्रकेशको दक्षिण, वृकको पश्चिम और द्रविणको उत्तर दिशाका राज्य दिया ॥ 2 ॥ उन्होंने इन्द्रसे अन्तर्धान होनेकी शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें 'अन्तर्धान' भी कहते थे। उनकी पत्नीका नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए 3 ॥ | उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे। पूर्वकालमें वसिष्ठजी का शाप होनेसे उपर्युक्त नामके अग्नियोंने ही उनके रूपमें जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्गसे ये फिर अग्निरूप हो गये ॥ 4 ॥
अन्तर्धानके नभस्वती नामकी पत्नीसे एक और पुत्र रत्र हविर्धन प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिताके अश्वमेघ यज्ञका घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जानेपर भी उनका वध नहीं किया था ॥ 5 ॥ राजा अन्तर्धानने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्योंको बहुत कठोर एवं दूसरोंके लिये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञमें दीक्षित होनेके बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया ॥ 6 ॥ यज्ञकार्यमें लगे रहनेपर भी उन आत्मज्ञानी राजाने भक्तभयभञ्जन पूर्णतम परमात्माकी आराधना करके सुदृढ़ समाधिके द्वारा भगवान्के दिव्य लोकको प्राप्त किया ॥ 7 ॥
विदुरजी ! हविर्धनकी पत्नी हविर्धानीने बर्हिषद्, गय, शुरू कृष्ण, सत्य और जितन्नत नामके छः पुत्र पैदा किये ॥ 8 ॥ कुरुश्रेष्ठ विदुरजी। इनमें हविर्धनके पुत्र महाभाग बर्हिषद्यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यासमें कुशल थे। उन्होंने प्रजापतिका पद प्राप्त किया । 9 । उन्होंने एक स्थानके बाद दूसरे स्थानमें लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्वकी ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशसे पट गयी थी। (इसीसे आगे चलकर वे 'प्राचीनवर्हि' नामसे विख्यात हुए) ॥ 10 ॥
राजा प्राचीनवरिन ब्रह्माजीके कहने से समुद्रकी कन्या शतद्रुतिसे विवाह किया था। सर्वाङ्गसुन्दरी किशोरी शतद्वति सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सज-धजकर विवाह मण्डपमें जब भाँवर देनेके लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकीको चाहा था ॥ 11 ॥ नवविवाहिता शतद्रुतिने अपने नूपुरोकी झनकारसे ही दिशा-विदिशाओंके देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग सभीको वशमें कर लिया था ।। 12 ।। शतदुतिके गर्भ से प्राचीनवर्हिके प्रचेता नामके दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरणवाले थे ॥ 13 ॥ जब पिताने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेका आदेश दिया, तब उन सबने तपस्या करनेके लिये समुद्रमें प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्षतक तपस्या करते हुए उन्होंने तपका फल देनेवाले श्रीहरिकी आराधना की ।। 14 ।। घरसे तपस्या करनेके लिये जाते समय मार्ग श्रीमहादेवजीने उन्हें दर्शन देवर कृपापूर्वक जिस तत्त्वत्का उपदेश दिया था, उसीका वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे ॥ 15 ॥
विदुरजीने पूछा- मार्गमे प्रचेताओंका श्रीमहादेवजीके साथ किस प्रकार समागम हुआ और उनपर प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥ 16 ॥ ब्रह्मर्षे ! शिवजीके साथ समागम होना तो देहधारियोंके लिये बहुत कठिन है। औरोंकी तो बात ही क्या है— मुनिजन भी सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर उन्हें पानेके लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहजमें पाते नहीं ॥ 17 ॥ यद्यपि भगवान् शङ्कर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना तो भी इस सृष्टिकी रक्षाके लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं ।। 18 ।।
श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिताकी आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्यामे चित्त लगा पश्चिमकी और चल दिये ।। 19 ।। चलते-चलते उन्होंने समुद्रके समान विशाल एक सरोवर देखा वह महापुरुषोंके चित्तके समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहनेवाले | मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे ॥ 20 ॥उसमें नीलकमल, लालकमल, रातमें, दिनमें और सायंकालमें खिलनेवाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकारके कमल सुशोभित थे। उसके तटोंपर हंस, सारस, चकवा, और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे ।। 21 ।। उसके चारों ओर तरह तरहके वृक्ष और लताएँ थीं, उनपर मतवाले भौर गूंज रहे थे। उनकी मधुर ध्वनिसे हर्षित होकर मानो उन्हें रोमाञ्च हो रहा था। कमलकोशके परागपुञ्ज वायुके झकोरोंसे चारों ओर उड़ रहे थे मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है ।। 22 ।। वहाँ मृदङ्ग, पणव आदि बाजोंके साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियोंके क्रमसे गायनकी मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारोको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ 23 ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शङ्कर अपने अनुचरोंके सहित उस सरोवरसे बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशिके समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओंको बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शङ्करजीके चरणोंमें प्रणाम किया ।। 24-25 ।। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शङ्करने अपने दर्शनसे प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारोंसे प्रसन्न होकर कहा ॥ 26 ॥
श्रीमहादेवजी बोले- तुमलोग राजा प्राचीनवर्हिके पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी | मुझे मालूम है। इस समय तुमलोगों पर कृपा करनेके लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है ॥ 27 ॥ जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञक पुरुष—इन दोनोके नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है॥ 28 ॥ अपने वर्णाश्रमधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाला पुरुष सौ जन्मके बाद ब्रह्माके पदको प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होनेपर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान्का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्युके बाद ही सीधे भगवान् विष्णुके उस सर्वप्रपञ्चातीत परमपदको प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूपमें स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकारकी समाप्तिके बाद प्राप्त करेंगे ॥ 29 ॥ तुमलोग भगवद्भक्त होनेके नाते मुझे भगवान्के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान्के भक्तोको भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता ॥ 30 ॥ अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मङ्गलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ।
इसका तुमलोग शुद्धभावसे जप करना ।। 31 ।। श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिवने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रोंको यह स्तोत्र सुनाया ।। 32 ।।भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे-भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्कोटिके आत्मज्ञानियोंके कल्याणके लिये निजानन्द लाभके लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्द-स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। 33 ॥ आप पद्मनाभ (समस्त) लोकोंके आदि कारण) है; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियोंके नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्तके अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है ।। 34 ।। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखानिके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेवाले अहङ्कारके अधिष्ठाता सङ्कर्षण तथा जगत्के प्रकृष्ट ज्ञानके उद्गमस्थान बुद्धिके अधिष्ठाता प्रद्युम्न है; आपको नमस्कार है ।। 35 ।। आप हो इन्द्रियोंके स्वामी, मनस्तत्त्वके अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध है; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेजसे जगत्को व्याप्त करनेवाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होनेके कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है ।। 36 ।। | आप स्वर्ग और मोक्षके द्वार निरन्तर पवित्र हृदयमें रहनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूपवीर्यसे युक्त और चातुर्होत्र कर्मके साधन तथा विस्तार करनेवाले अग्निदेव हैं: आपको नमस्कार है ।। 37 ।। आप पितर और देवताओंके पोषक सोम है तथा तीनों वेदोके अधिष्ठाता है; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप हो समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाले सर्वरस (जल) रूप हैं, आपको नमस्कार है ।। 38 ।। आप समस्त प्राणियोंके देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकीकी रक्षा करनेवाले मानसिक, ऐन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं आपको नमस्कार है ॥ 39 ॥ आप ही अपने गुण शब्दके द्वारा समस्त पदार्थोंका ज्ञान करानेवाले तथा बाहर भीतरका भेद करनेवाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्योंसे प्राप्त होनेवाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक है; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है ।। 40 ।। आप पितृलोककी प्राप्ति करानेवाले प्रवृत्ति कर्मरूप और देवलोकको प्राप्तिके साधन निवृत्तिकर्मरूप हैं तथा आप ही | अधर्मके फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु है; आपको नमस्कार है ।। 41 ।। नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योगके अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण है, आप सब प्रकारको कामनाओंकी पूर्तिके कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप है; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होनेवाली नहीं है, आपको नमस्कार है, नमस्कार है ।। 42 ।। आप ही कर्ता, करण और कर्म – तीनों शक्तियकि एकमात्र आश्रय हैं, आप ही अहङ्कारके अधिष्ठाता रुद्र हैं, आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चार प्रकारको वाणीकी | अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है ।। 43 ।।प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनोंको अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूपकी आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणोंसे समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाला है ॥ 44 ॥ वह वर्षाकालीन मेघके समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दयका सार सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएं महामनोहर मुखारविन्द, कमलदलके समान नेत्र, सुन्दर भौह सुघड़ नसिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहा | मुखमण्डल और शोभाशाली समान कर्ण-युगल हैं ।। 45-46 ॥ प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली काली घुँघराली अलके, कमलकुसुमकी केरके समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कङ्कण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभमणिके कारण उसकी अपूर्व शोभा है ॥ 47-48 ॥ उसके सिंहके समान स्थूल कंधे हैं— जिनपर हार, | केयूर एवं कुण्डलादिकी कान्ति झिलमिलाती रहती है-तथा कौस्तुभमणिकी कान्तिसे सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नके रूपमें लक्ष्मीजीका नित्य निवास होनेके कारण कसौटीकी शोभाको भी मात करता है ॥ 49 ॥ उसका त्रिवलीसे सुशोभित, पीपलके पत्तेके समान सुडौल उदर श्वासके आने-जानेसे हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवरके समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसीमें लीन होना चाहता है ॥ 50 ॥ श्यामवर्ण कटिभागमें पीताम्बर और सुवर्णकी मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण पिड़ली, ध और पुनके कारण आपका दिव्य वियह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है ॥ 51 ॥ आपके चरणकमलोंकी शोभा शरद् ऋतुके कमल दलकी कान्तिका भी तिरस्कार करती है। उनके नखोंसे जो प्रकाश निकलता है, वह जीवोंके हृदयान्धकारको तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तोंके भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूपका दर्शन कराइये। जगद्गुरो ! हम अज्ञानावृत प्राणियों को अपनी प्रारिक मार्ग बतलानेवाले आप हो हमारे गुरु हैं ll 52 ll
प्रभो चित्तशुद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको आपके इस रूपका निरन्तर ध्यान करना चाहिये, इसकी भक्ति हो स्वधर्मका पालन करनेवाले पुरुषको अभय करनेवाली है 53 ॥ स्वर्गका शासन करनेवाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियोंकी गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है; केवल भक्तिमान् पुरुष हीआपको पा सकते हैं ॥ 54 ॥ सत्पुरुषोंके लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्तिसे भगवान्को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधनासे दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतलके अतिरिक्त और कुछ चाहेगा ॥ 55 ॥ जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रमसे फड़कती हुए भौहके इशारेसे सारे संसारका संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणोंकी शरणमें गये हुए प्राणीपर अपना अधिकार नहीं मानता ॥ 56 ॥ ऐसे भगवानके प्रेमी भक्तोंका यदि आधे क्षणके लिये भी समागम हो जाय तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्षको कुछ नहीं समझता; फिर मर्त्यलोकके तुच्छ भोगोकी तो बात ही क्या है ।। 57 ।। प्रभो! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशिको हर लेनेवाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगोंने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गङ्गाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकारके पापोंको धो डाला है तथा जो जीवोंके प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणोंसे युक्त हैं, उन आपके भक्तजनोंका सङ्ग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हमपर आपकी बड़ी कृपा होगी ।। 58 ।। जिस साधकका चित्त भक्तियोगसे अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयोंमें भटकता है और न अज्ञान-गुहारूप प्रकृतिमें ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूपका दर्शन पा जाता है॥ 59 ॥ जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत्में भास रहा है, वह आकाशके समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं ॥ 60 ॥
भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकारके रूप धारण करती है। इसीके द्वारा आप इस प्रकार जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकारका विकार नहीं आता। मायाके कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मापर वह अपना प्रभाव डालनेमें असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं ॥ 61 ॥ आपका स्वरूप पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूपसे उपलक्षित होता है। जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके कर्मोद्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूपका श्रद्धापूर्वक भलीभांति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रोंके सच्चे मर्मज्ञ है ॥ 62 ॥ प्रभो! आप ही अद्वितीय आदिपुरुष है। सृष्टिके पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसीके द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणका भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणोंसे महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियोंसे युक्त इस जगत्की उत्पत्ति होती है ll 63 llफिर आप अपनी ही मायाशक्तिसे रचे हुए इन जरायुज, अण्डर खेद और उसे चार प्रकारके शरीरोंमें अंशरूपसे प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियों अपने ही उत्पन्न किये हुए मधुका आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरोंमें रहकर इन्द्रियोंके द्वारा इन तुच्छ विषयोंको भोगता है। आपके उस अंशको ही पुरुष या जीव कहते हैं॥ 64 ॥
प्रभो ! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्षसे नहीं अनुमानसे होता है। प्रलयकाल उपस्थित होनेपर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असा वेगसे पृथ्वी आदि भूतोंको अन्य भूतोंसे विचलित | कराकर समस्त लोकोंका संहार कर देते हैं—जैसे वायु अपने असहनीय एवं प्रचण्ड झोंकोंसे मेघेोंक द्वारा ही मेको तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है ॥ 65 ॥ भगवन् । यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्तामें रहता है कि 'अमुक कार्य करना है'। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयोंकी ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं: भूससे जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहेको चट कर जाता है, उसी प्रकार आप अपने कालस्वरूपसे उसे सहसा लील जाते हैं ॥ 66 ॥ आपकी अवहेलना करनेके कारण अपनी आयुको व्यर्थ माननेवाला ऐसा कौन विद्वान होगा, जो आपके चरणकमलोंको बिसारेगा ? इसकी पूजा तो कालकी आशङ्कासे ही हमारे पिता जी और स्वायम्भुव आदि चौदह गनुओंने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धासे ही की थी ॥ 67 ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप कालके भयसे व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्वको जाननेवाले हमलोगोंके तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं ।। 68 ।।
राजकुमारो ! तुमलोग विशुद्धभावसे स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान्में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जप करते रहो; भगवान् तुम्हारा मङ्गल करेंगे ॥ 69 ॥ तुमलोग अपने अन्तःकरणमें स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरिका हो बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो ॥ 70 ॥ मैने तुम्हें यह योगादेश नामका स्तोत्र सुनाया है। तुमलोग इसे मनसे धारणकर मुनिव्रतका आचरण करते हुए इसका एकाग्रतासे आदरपूर्वक अभ्यास करो ॥ 71 ॥ यह स्तोत्र पूर्वकालमें जगद्विस्तारके इच्छुक प्रजापतियोंके पति भगवान् महाजीने प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छावाले हम भृगु आदि अपने पुत्रोंको सुनाया था ।। 72 ।। जब हम प्रजापतियोंको प्रजाका विस्तार करनेकी आज्ञा हुई, तब इसीके द्वारा हमने अपना अज्ञान | निवृत्त करके अनेक प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की थी ॥ 73 ॥अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्र चित्तसे नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो इस लोकमें प्रकारके कल्याणसाधनोंमें मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है । ज्ञान-नौकापर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसारसागरको पार कर लेता है ॥ 75 ॥ यद्यपि | भगवान्की आराधना बहुत कठिन है-किन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमतासे ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा ॥ 76 ॥ भगवान् ही सम्पूर्ण कल्याणसाधनोंके एकमात्र प्यारे प्राप्तव्य हैं। अतः मेरे गाये हुए इस स्तोत्रके गानसे उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, | प्राप्त कर लेगा || 77 ॥ जो पुरुष उषःकालमें उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकारके कर्मबन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 78 ।। राजकुमारो मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्माका स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्तसे जपते हुए तुम महान् तपस्या | करो। तपस्या पूर्ण होनेपर इसीसे तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायगा ll 79 ll