View All Puran & Books

श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 9 - Skand 7, Adhyay 9

Previous Page 153 of 341 Next

प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति

नारदजी कहते हैं—इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान् के क्रोधावेशको शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर छोर नहीं दीखता था ॥ 1 ॥ देवताओंने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजीको भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान्‌का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भगवश वे भी उनके पासतक न जा सर्कों। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ॥ 2 ॥ तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि 'बेटा! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो' ॥ 3 ॥भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद 'जो आज्ञा' कहकर और धरिसे भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टाङ्ग लोट गये ॥ 4 ॥ नृसिंह भगवान्ने देखा कि नन्हा-सा है बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह कर-कमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ॥ 5 ॥ भगवान्के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मन होकर भगवान्‌के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दा झरने लगे ॥ 6 ॥ दी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनोंसे भगवान्‌को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्‌के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ॥ 7 ॥

प्रह्लादजीने कहा ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि - और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ 8 ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग—ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्‌को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ 9 ॥ मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर रखे है; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता 10 ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण है। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुखका सौन्दर्यदर्पण में दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्‌के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है 11 ॥ इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शङ्काके अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान्‌को महिमाका वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमाके गानका ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसार चक्रमें पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ।। 12 ।।

भगवन्! आप सत्त्वगुणके आश्रय है। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त है। ये हम दैत्योंकी तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत्के कल्याण एवं अभ्युदयके लिये तथा उसे आत्मानन्दकी प्राप्ति करानेके लिये अनेकों प्रकारको लोलाएँ करते हैं ॥ 13 ॥ जिस असुर को मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँपकी मृत्युसे सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्यके संहारसे सभी लोगोंको बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूपके दर्शनको बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भयसे मुक्त होनेके लिये भक्तजन आपके इस रूपका स्मरण करेंगे ।। 14 परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आंखें सूर्यके समान हैं। भौहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़े हैं। आंतोंकी माला, खूनसे लथपथ गरदनके बाल, बर्चेकी तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजोंको भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओंको फाड़ डालनेवाले आपके इन नखोंको देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ ॥ 15 ॥ दीनबन्धो मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उम्र संसार-चक्रमे पिसनेसे। मैं अपने कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयङ्कर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं ? ।। 16 ।। अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा। उन दुःखोंको मिटानेकी जो दवा है, वह भी दुःखरूप हो है मैं न जाने कबसे अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त करसकूँ ।। 17 ।। प्रभो ! आप हमारे प्रिय हैं। अहेतुक हितैषी सुहृद् हैं । आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य है। मैं ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका सङ्ग तो मुझे मिलता ही रहेगा ।। 18 ।। भगवान् नृसिंह! इस लोकमें दुखी जीवोंका दुःखः मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है। यहाँतक कि. मा-बाप बालककी रक्षा नहीं कर सकते, औषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती ।। 19 ।। सत्त्वादि गुणोंके कारण भित्र-भित्र स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे | जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है॥ 20 ॥

पुरुषकी अनुमतिसे कालके द्वारा गुणोंमें क्षोभ होनेपर माया मनः प्रधान लिङ्गशरीरका निर्माण करती है। यह लिङ्गशरीर बलवान् कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपोंमें आसक्त छन्दोमय है। यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा—इन सोलह विकाररूप अरोंसे युक्त संसार चक्र है। जन्मरहित प्रभो! आपसे मित्र रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसार चक्रको पार कर जाय ? ॥ 21 ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोवाले संसार-चक्रमें डालकर ईखके समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते है और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सत्रिधिमें खींच लीजिये ॥ 22 ॥ भगवन् ! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला || 23 | इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और इन्द्रियभोग जिन्हें संसार के प्राणी चहा करतेहैं, नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासोकी सन्निधिमें ले चलिये ॥ 24 ॥ विषयभोगकी बातें सुनने में हो अच्छी लगती हैं, वास्तव में वे मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर! इन दोनोंकी क्षणभङ्गुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले भोगके नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामनाकी आग | बुझानेकी चेष्टा करता है ! ॥ 25 ॥ प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंशमें रजोगुणसे उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है। आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिरपर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मीजीके सिरपर भी कभी नहीं रखा || 26 || दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्प वृक्षके समान आपका कृपा प्रसाद भी सेवन भजनसे ही प्राप्त होता है। सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है॥ 27 ॥ भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प हँसनेके लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगोंकी इच्छावाले पुरुष उसीमें गिरे हुए हैं। मैं भी सङ्गवश उसके पीछे उसीमें गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन् ! देवर्षि नारदने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनोंकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ ॥ 28 ॥ अनन्त ! जिस समय मेरे पिताने अन्याय करनेके लिये कमर कसकर हाथमें खड्ग ले लिया और वह कहने लगा कि 'यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ', उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की और मेरे पिताका वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियोंका वचन सत्य करनेके लिये ही वैसा किया था ।। 29 ।।

भगवन्! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदिमें आप ही कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी केवल आप ही हैं। आप अपनी मायासे गुणोंके परिणाम स्वरूप इस जगत्की सृष्टि करके इसमें पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे है। 30 भगवन्! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है, यह सब आप हीहैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने परायेका वह भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दोंकी माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, उसका स्वरूप ही होता है— जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्यकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध तन्मात्रकी दृष्टिसे दोनों एक ही हैं ।। 31 ।।

भगवन् ! आप इस सम्पूर्ण विश्वको स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुखका अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जलमें शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयं सिद्ध योगके द्वारा बाह्य दृष्टिको बंद कर आप अपने स्वरूपके प्रकाशमें निद्राको विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपदसँ स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुणसे ही युक्त होते और न तो विषयोंको ही स्वीकार करते हैं॥ 32 ॥ आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृतिके गुणोंको प्रेरित करते हैं. इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था। जब प्रलयकालीन जलके भीतर शेषशय्यापर शयन करनेवाले आपने योगनिद्राकी समाधि त्याग दी, तब चटके बीजसे विशाल वृक्षके समान आपकी नाभिसे ब्रह्माण्ड | कमल उत्पन्न हुआ ।। 33 ।। उसपर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए। जब उन्हें कमलके सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपनेमें बीजरूपसे व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपनेसे बाहर समझकर जलके भीतर घुसकर सौ वर्षतक ढूंढ़ते रहे। परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अङ्कुर उग आनेपर उसमें व्याप्त बीजको कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है 34 ब्रह्माको बड़ा आश्चर्य हुआ। । वे हारकर कमलपर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर तीव्र तपस्या करनेसे जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप अपने शरीरमें ही ओतप्रोत रूपसे स्थित आपके सूक्ष्मरूपका साक्षात्कार हुआ— ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वीमें व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्धका होता है ।। 35 ।।

विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जङ्घा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधोंसे सम्पन्न थाच लोक उसके विभिन्न अङ्गोके रूपमें शोभायमान थे। वह भगवान्की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्माजीको बड़ा आनन्द हुआ 36 रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नामके दो बड़े बलवान् थे। जब वे वेदोको चुराकर ले गये, तब आपने प्रीयअवतार ग्रहण किया और उन दोनोंको मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है- महात्मालोग इस प्रकार वर्णन करते हैं ।। 37 ।। पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकोंका पालन तथा विश्वके द्रोहियोंका संहार करते हैं। इन अवतारोंके द्वारा आप प्रत्येक युगमें उसके धर्मोकी रक्षा करते हैं। कलियुगमें आप छिपकर गुप्तरूपसे ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम 'त्रियुग' भी है ll 38 ll

वैकुण्ठनाथ! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है। वह पाप वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्रायः ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदिको चिन्ताओंसे व्याकुल रहता है। इसे आपको लोला-कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे में दीन हो रहा हूँ। ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ ? ॥ 39 ॥ अच्युत यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर, पेट भोजनकी ओर, कान मधुर सङ्गीतकी ओर, नासिका भीनी भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी और मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी और ले जानेको जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्रियाँ उसे अपने-अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही हों ॥ 40 इस प्रकार यह जीव अपने कर्मकि बन्धनमें पड़कर इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरा हुआ है। जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है—इस प्रकारके भेद-भावसे युक्त होकर किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव जातिको यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन्! इन प्राणियोको भी अब पार लगा दीजिये 41 जगद्गुरो ! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव- नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है ? दीनजनोंके परमहितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ॥ 42 ॥ परमात्मन्! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही | कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकिमेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मन रहता है, जो स्वर्गीय अमृतको भी तिरस्कृत करनेवाली परमामृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा है, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोका मायामय झूठा सुख प्राप्त करनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं ।। 43 ।। मेरे स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये चाहता। आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ।। 44 ।।

घरमें फँसे हुए लोगोंको जो मैथुन आदिका सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है-जैसे कोई दोनों हाथोंसे खुजला रहा हो तो उस खुजलीमें पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परन्तु पोछेसे दुःख ही दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगर्नपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं। सहनेसे ही उनका नाश होता है ।। 45 ।। पुरुषोत्तम ! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं- मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविकाके साधन- -व्यापारमात्र रह जाते हैं। और दम्मियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड हो जानेपर वह भी नहीं ।। 46 ।। वेदोंने बीज और अङ्करके समान आपके दो रूप बताये हैं—कार्य और कारण वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपोको छोड़कर आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठमन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ॥ 47 ॥ अनन्त प्रभो। वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्चतन्मात्राएँ प्राण इन्द्रिय, मन, चित्त, अहङ्कार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण-सब कुछ केवल आप ही है। और तो क्या, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है ॥ 48 समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन् ! ये गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थनहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त है। ऐसा विचार करके शानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते हैं ।। 49 ॥ परम पूज्य आपकी सेवाके छः अङ्ग है- नमस्कार, स्तुति, समस्त कमौका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोका चिन्तन और लीला कथाका श्रवण इस पडङ्ग सेवाके बिना आपके चरण-कमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रभो। आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व है ।। 50 ।।

नारदजी कहते है इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान्के स्वरूपभूत गुणोंवर वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्‌का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले ॥ 51 ॥

श्रीनृसिंहभगवान् श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- परम कल्याणस्वरूप प्रह्लाद तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ। मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे मांग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ 52 ॥ आयुष्मन् ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ॥ 53 ॥ मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ।। 54 ।।

असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान्‌के अनन्य प्रेमी थे इसलिये बड़े-बड़े लोगोंको प्रलोभनमे डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा | नहीं की ।। 55 ।।

Previous Page 153 of 341 Next

श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा