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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 10, अध्याय 13 - Skand 10, Adhyay 13

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ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! तुम बड़े भाग्यवान् हो । भगवान्के प्रेमी भक्तोंमें तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर अक्ष किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान्‌की लीला-कथाएँ सुननेको मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्धमे प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो ॥ 1 ॥ रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय भगवान्‌की लीलाके गान, श्रवण और चिन्तनके लिये ही होते हैं उनका यह स्वभाव ही होता है कि येक्षण-प्रतिक्षण भगवानकी लीलाओंको अपूर्व रसमयी और नित्य नूतन अनुभव करते रहे ठीक वैसे ही जैसे लम्पट पुरुषोंको स्त्रियोंकी चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है ॥ 2 ॥ परीक्षित्! तुम एकाग्र चित्तसे श्रवण करो। यद्यपि भगवान्की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता है। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं ॥ 3 ॥ यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णाने अपने साथी ग्वालबालोंको मृत्युरूप अघासुरके मुँहसे बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे - ॥ 4 ॥ 'मेरे प्यारे मित्रो ! यमुनाजीका यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही यहाँ बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हमलोगोंके येने तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक और रंग-बिरंगे कमल खिले हुए है और उनकी सुगन्ध खिंचकर भरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनिसे हैं सुशोभित वृक्ष इस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे हैं॥ 5॥ अब हमलोगोंको यहाँ भोजन कर लेना चाहिये क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूखसे पीड़ित हो रहे हैं। बड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें' ॥ 6 ॥ ग्वालबालोंने एक स्वरसे कहा- 'ठीक है, ठीक है!' उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी पास छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान्‌के साथ बड़े आनन्दसे भोजन करने लगे ॥ 7 ॥ सबके बीचमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालोंने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्णकी ओर थे और सबकी आँखें आनन्दसे खिल रही थीं। वन भोजनके समय श्रीकृष्णके साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमलकी कर्णिकाके चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पंखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों ॥ 8 कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरोंके पात्र बनाकर भोजन करने लगे ॥ 9 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचिका प्रदर्शन करते। कोई किसीको हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे ॥ 10 (उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे निराली थी। उन्होंने मुरलीको तो कमरको पेटमें आगेकी ओर सोस लिया था। सिंगो और बेंत बगलमें दबा लिये थे। बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही-भातका ग्रास था और अंगुलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमेंबैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोको हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान् ग्वालबालोंके साथ बैठकर इस प्रकार बाल लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ॥ 11 ॥

भरतवंशशिरोमणे ! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान्‌को इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बड़ी दूर निकल गये ।। 12 ।। जब ग्वालबालोंका ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तो भयको भगा देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा- 'मेरे प्यारे मित्रो ! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो। मैं अभी बछड़ोंको लिये आता हूँ' ॥ 13 ॥ ग्वालबालोंसे इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण हाथमें दही-भातका कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुओं एवं अन्यान्य भयङ्कर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके बछड़ोंको ढूँढने चल दिये ॥ 14 ॥ परीक्षित् । ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे। प्रभुके प्रभावसे अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य वालक बने हुए भगवान् श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो को और भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर ल बालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये । अन्ततः वे जड़ कमलकी हो तो सन्तान हैं ।। 15 ।।

भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिनपर लौट आयें, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं । तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा || 16 | परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है। वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं ।। 17 । अब भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ों और बालोंकी माताओंको तथा ब्रह्माजीको भी आनन्दित करनेके लिये अपने-आपको ही बछड़ों और ग्वालबालों—दोनोंके रूपमें बना लिया क्योंकि वे हो तो सम्पूर्ण विश्वके कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं ॥ 18 ॥ परीक्षित् । वे बालक और बछड़े संख्यामें जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिंगी, बाँसुरी,पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके स्वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूप सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है यह दवा होकर प्रकट हो गयी ॥ 19 ॥ सर्वात्मा भगवान् स्वयं हो बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल । अपने आत्मस्वरूप बोको अपने आत्मस्वरूप वालबालकद्वारा ही साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते हुए उन्होंने व्रजमें प्रवेश किया ॥ 20 ॥ परीक्षित् ! जिस ग्वालबालके जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबालके रूपसे अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल घुसा दिया और विभिन्न बालकोंके रूपमें उनके भिन्न घरोंमें चले गये ॥ 21 ॥

बालबालोंकी माताएँ बाँसुरीको तान सुनते ही ज दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परवा श्रीकृष्ण को अपने समझकर हाथोंसे उठाकर उन्होंने जोरसे हृदयसे लगा लिया। वे अपने स्तनोंसे वात्सल्य स्नेहकी अधिकता के कारण सुधा में मधुर और आसबसे भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पि लग ॥ 22 ॥ परीक्षित् इसी प्रकार प्रतिदिन सन्ध्यासमय भगवान् श्रीकृष्ण उन ग्वालबालोंके रूपमें वनसे लौट आते अपनी बालसुलभ लीलाओंसे माताओंको आनन्दित करते। माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दनका लेप करती और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनोंसे सजातीं। दोनों भौहोंके बीचने डीठसे बचानेके लिये काजलका डिठौना लगा देतों तथा भोजन करातीं और तरह-तरहसे बड़े लाड़-प्यारसे उनका लालन पालन करतीं ॥ 23 ॥ ग्वालिनोंके समान गौएँ भी जब जंगलोंमेंसे चरकर जल्दी-जल्दी लौटती और उनकी | सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौड़कर उनके पास आ जाते, तब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभ से चाटती और अपना दूध पि उस समय स्नेहकी अधिकताके कारण उनके थनोंसे स्वयं ही दूधकी धारा बहने लगती ॥ 24 ॥ इन गावों और मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रोंकी अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य | अधिक था। इसी प्रकार भगवान् भी उनके पहले पुत्रोंके समान | ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान्में उन बालको महका भाव नहीं था कि में इनका पुत्र हूँ ।। 25 ।। अपने-अपने बालकोंके प्रति व्रजवासियोंकी स्नेह-लता दिन-प्रतिदिन एक वर्षतक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँतक कि पहले श्रीकृष्ण में उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकोंके प्रति भी हो गया ।। 26 ।। इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालांकि बहाने गोपाल बनकर अपने | बालकरूपसे वत्सरूपका पालन करते हुए एक वर्षतक वन और गोष्ठ क्रीडा करते रहे 27 ॥जब एक वर्ष पूरा होनेमें पाँच-छः रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ बछड़ोंको चराते हुए वनमें गये ॥ 28 ॥ उस समय गौएं गोवर्धनकी चोटीपर घास चर रही थीं । वहाँसे उन्होंने व्रजके पास ही घास चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ोंको देखा ॥ 29 ॥ बछड़ोंको देखते ही गौओंका वात्सल्य स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आपकी सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालोंके रोकनेकी कुछ भी परवा न कर जिस मार्ग से वे न जा सकते थे, उस मार्ग से हुंकार करती हुई बड़े वेगसे दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनोंसे दूध बहता जाता था और उनकी गरदने सिकुड़कर डीलसे मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं ॥ 30 ॥ जिन गौओके और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धनके नीचे अपने पहले बछड़ोंके पास दौड़ आर्यों और उन्हें स्नेहवश अपने-आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चोंका एक-एक अङ्ग ऐसे चावसे चाट रही थीं, मानो उन्हें अपने पेटमें रख लेंगी ॥ 31 ॥ गोपोने उन्हें रोकनेका बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलतापर कुछ लज्जा और गायोंपर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्गसे उस स्थानपर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ोंके साथ अपने बालकोको भी देखा ॥ 32 ॥ अपने बच्चोंको देखते ही उनका हृदय प्रेमरससे सराबोर हो गया। बालकोंके प्रति अनुरागकी बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकोंको गोदमें उठाकर हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए ।। 33 । बूढ़े गोपोको अपने बालकोंके आलिङ्गनसे परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्टसे उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालकोंके और उनके आलिङ्गनके स्मरणसे उनके नेत्रोंसे | प्रेमके आँसू बहते रहे ।। 34 ।।

बलरामजीने देखा कि व्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनोंकी उन सन्तानोंपर भी, जिन्होंने अपनी माका दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण प्रतिक्षण प्रेम सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है, तब वे विचारमें पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था ।। 35 ।। यह कैसी विचित्र बात है। सर्वात्मा श्रीकृष्ण में व्रजवासियोंका और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ोंपर भी बढ़ता जा रहा है ।। 36 । यह कौन-सी माया है ? कहाँसे आयी है? यह किसी देवताकी है, मनुष्यकी है अथवा असुरोकी ? परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है? नहीं नहीं, यह तो मेरे प्रभुकी ही माया है और किसीकी मायामें ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले ॥ 37 ॥बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टिसे देखा, तो उन्हें मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं॥ 38॥ तब उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा- 'भगवन् ! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता है और न तो कोई ऋषि हो। इन भिन्न-भिन्न रूपोंका आश्रय लेनेपर भी आप अकेले ही इन रूपोंमें प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़ेमें ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े बालक, सिंगी, रस्सी आदिके रूपमें अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं?' तब भगवान्ने बाकी सारी करतूत सुनायी और बलरामजीने सब बातें जान लीं ॥। 39 ।।

परीक्षित् तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे व्रजमें लौट आये। उनके कालमानसे अबतक केवल एक त्रुटि (जितनी | देरमें तीखी सूईसे कमलकी पंखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ोंक साथ एक सालसे पहलेकी भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं ॥ 40 ॥ वै सोचने लगे 'गोकुलमें जितने भी वालबाल और कड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर सो रहे हैं—उनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था; वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए ॥ 41 ॥ तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान्‌ के साथ खेल रहे हैं ? ॥ 42 ॥ ब्रह्माजीने दोनों स्थानोंपर दोनोंको देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टिसे उनका रहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनोंमें कौन-से पहलेके ग्वालबाल है और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी - यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके ॥ 43 ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी मायामें तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे अपने-आप मोहित हो गये ॥ 44 ॥ जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका और दिनके प्रकाशमें जुगनूके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है ।। 45 ।।

ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मसे युक्त – चतुर्भुज । सबके सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थीं ॥ 46-47 ।। उनके वक्षस्थलको सुली रेखा श्रीवत्स, बहुओ बाजूबंद, कलाइयोंमें शङ्खाकार रखोंसे जड़े कंगन, चरणोंमें नूपुरऔर कड़े, कमरमें करधनी तथा अंगुलियोंमें अंगूठियां जगमगा रही थीं ॥ 48 वे नखसे शिखतक समस्त अङ्गों में कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएं, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे । 49 ।। उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनोंके द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुणको स्वीकार करके भक्तजनोंके हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं ॥ 50 ब्रह्माजीने यह भी देखा कि उन्होंके जैसे दूसरे ब्रह्मासे लेकर तृणतक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकारकी पूजा सामग्रीसे अलग-अलग भगवान् के उन सब रूपोंकी उपासना कर रहे हैं।। 51 ।। उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओरसे घेरे हुए हैं ॥ 52 ॥ प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणामका कारण स्वभाव, वासनाओंको जगानेवाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल - सभी मूर्तिमान् होकर भगवान् के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं। भगवान्‌की सत्ता और महत्ताके सामने उन सभीकी सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी ॥ 53 ॥ ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब के सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एकरस हैं। यहाँतक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियोंकी दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमाका स्पर्श नहीं कर सकती ॥ 54 ॥ इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ ही देखा कि वे सब के सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है ॥ 55 ll

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान्‌ के तेजसे निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रजके अधिष्ठातृ देवताके पास एक पुतली खड़ी हो ॥ 56 परीक्षित् भगवान्का स्वरूप तर्कसे परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और मायासे अतीत है। वेदान्त भी साक्षात् रूपसे उसका वर्णन करनेमें असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्नका निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रहाका किसी प्रकार कुछ सङ्केत करता है। यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओंके अधिपति हैं, तथापि भगवान्के दिव्यस्वरूपको वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँतक कि वे भगवान्के उन महिमामय रूपोको देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान् श्रीकृष्णनेब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया ॥ 57 ॥ इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ । वे मानो मरकर फिर जी उठे 1 सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा ॥ 58 ॥ फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है। जिधर | देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं ॥ 59 ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावन धाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं ॥ 60 ॥ ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करने के बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका सा नाट्य कर रहा है। एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूंढ़ रहा है। ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान् श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं ॥ 61 ॥ भगवान्‌को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान्‌के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया ॥ 62 ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और उठ उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान्‌के चरणोंमें ही पड़े रहे 63 ।। फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे ।' प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद्गम भगवान्‌को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अञ्जलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद्गद वाणीसे वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे ।। 64 ।।

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा