ब्रह्माजीने कहा- प्रभो ! आज बहुत समयके बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो ! कैसे दुर्भाग्यकी बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूपको नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है, क्योंकि मायाके गुणोंके क्षुभित होनेके कारण केवल आप ही अनेकों रूपोंमें प्रतीत हो रहे हैं ॥ 1 ॥ देव ! आपकी चित् शक्तिके प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभि-कमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषोंपर कृपया करनेके लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ॥ 2 ॥ परमात्मन् ! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्वकी रचना करनेवाले होनेपर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूपकी ही शरण ली है। यहाँ सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियोंका भी अधिष्ठान है ॥ 3 ॥ हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूपमें बार बार नमस्कार करता हूँ ।। 4 ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायुसे लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोशको गन्धको अपने कर्णपुटोंसे ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनोंके हृदय कमलसे आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरीसे आपके पादपद्मोंको बाँध लेते हैं ॥ 5 ॥ जबतक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दोंका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे धन, घर और बन्धुजनोंके कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे मैं मेरेपनका दुराग्रह रहता है, जो दुःखका एकमात्र कारण है ।। 6 ।। जो लोग सब प्रकारके अमङ्गलोको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि सो इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कमोंमें लगे । रहते हैं, उन बेचारोकी बुद्धि देवने हर ली है ॥ 7 ॥अच्युत। उरुक्रम इस प्रजाको भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरेसे तथा कामानि और दुःसह क्रोधसे बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा वित्र होता है॥ 8 ॥ स्वामिन् जबतक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, | तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दुःखोंमें डालता रहता है ॥ 9 ॥
देव! औरोंकी तो बात ही क्या—जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसङ्गसे विमुख रहते हैं तो उन्हें संसारमें फँसना पड़ता है। वे दिनमें अनेक प्रकारके व्यापारोंके कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रिमें निद्रामें अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरहके मनोरथोंके कारण क्षण-क्षणमें उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धि सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ॥ 10 नाथ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवणसे ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्योंके भक्तियोगके द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमलमें निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभी आपके भक्तजन जिस-जिस भावनासे आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये आप वही वही रूप धारण कर लेते हैं ॥ 11 ॥ भगवन् ! है। आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तःकरणोंमें स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा है। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर भाँति-भाँतिकी विपुल सामप्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ॥ 12 ॥ जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता- यह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकारके कर्मयज्ञ, दान, कठिन तपस्या और प्रतादिके द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ।। 13 ।। आप सर्वदा अपने खरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष है, मैं आपको नमस्कार करता है। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है, अतः आप परमेश्वरको में बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। 14 ।।जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कमको सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जर्नादन, कंसनिकन्दन आदि नामोंका विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जयों के पापोंसे तत्काल छूटकर मायादि आवरणोंसे रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ 15 ॥ भगवन् ! इस विश्ववृक्षके रूपमें आप ही विराजमान है। आप ही अपनी मूलप्रकृतिको स्वीकार करके जगत्को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये मेरे, अपने और महादेवजीके रूपमें तीन प्रधान शाखाओंमें विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा प्रशाखाओंके रूपमें फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 16 ॥ भगवन्! आपने अपनी आराधनाको ही लोकोंके लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओरसे उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मो में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमादकी अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन- आशाको जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रतासे काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ 17 ॥ यद्यपि मैं सत्यलोकका अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकोंका वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूपसे डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करनेके लिये ही मैंने बहुत समयतक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूपसे मेरी इस तपस्याके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 18 ॥ आप पूर्णकाम है, आपको किसी विषयसुखको इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादाकी रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियोंमें अपनी ही इच्छासे शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवानको मेरा नमस्कार है ।। 19 ।। प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- पाँचोमेंसे किसीके भी अधीन नहीं है; तथापि इस समय जो सारे संसारको अपने उदरमें लीनकर भयङ्कर तरङ्गमालाओंसे विक्षुब्ध प्रलयकालीन जलमें अनन्तविग्रहकी कोमल शय्यापर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्पकी कर्मपरम्परासे श्रमित हुए जीवोंको विश्राम देनेके लिये ही है 20 आपके नाभिकमलरूप भवन मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदरमें समाया हुआ है। आपकी कृपासे ही मैं त्रिलोकीको रचनारूप उपकार में प्रवृत्त हुआ । इस समय योगनिद्राका अन्त हो जानेके कारण आपके नेत्र-कमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ 21 ॥आप सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र सुहृद और आत्मा है तथा शरणागतोंपर कृपा करनेवाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्यसे आप विश्वको आनन्दित करते हैं, उसीसे मेरी बुद्धिको भी युक्त करें जिससे मैं पूर्वकल्पके समान इस समय भी जगत्की रचना कर सकूँ ॥ 22 ॥ आप भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजीके सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, | मेरा यह जगत्की रचना करनेका उद्यम भी उन्हींमेंसे एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्तको प्रेरित करें शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं हिरचनाविषयक अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ।। 23 ।। प्रभो इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुषके नाभि कमलसे मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपको ही विज्ञानशक्ति अतः इस जगत्के विचित्र रूपका विस्तार करते समय आपकी कृपासे मेरी वेदरूप वाणीका उच्चारण लुप्त न हो 24 आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकानके हैं सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेष शय्यासे उठकर विश्वके उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणीसे मेरा विषाद दूर कीजिये ।। 25 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधिके द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान्को देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्ति अनुसार उनकी स्तुति कर थके-से होकर मौन हो गये॥ 26 ॥ श्रीमधुसूदन भगवान् देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि बहुत घबराये हुए है तथा लोकरचनाके विषयमें कोई निश्चित विचार न होनेके कारण | उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ।। 27-28 ।।
श्रीभगवान् ने कहा-वेदगर्भ तुम विपादके वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचनाके उद्यममें तत्पर हो जाओ तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले | ही कर चुका हूँ ।। 29 ।। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत ज्ञानका अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकोंको स्पष्टतया अपने अन्तःकरणमें देखोगे ॥ 30 ॥फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ।। 31 ।। जिस समय जीव काष्ठमें व्याप्त अग्निके समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित | देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ॥ 32 ॥ जब वह अपनेको भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित तथा स्वरूपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ॥ 33 ॥ ब्रह्माजी ! नाना प्रकारके कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकारकी जीवसृष्टिको रचनेकी इच्छा होनेपर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपाका ही फल है ।। 34 ।। तुम सबसे पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसीसे पापमव रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता 35 ॥ तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है। कि यद्यपि देहधारी जीवोंको मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया है ॥ 36 ॥ 'मेरा आश्रय कोई है या नहीं इस सन्देहसे तुम कमलनालके द्वारा जलमें उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप - अन्तःकरणमें ही दिखलाया है ।। 37 ।।
ब्रह्माजी तुमने जो मेरी कथाओंके वैभवसे युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्वामें जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपाका फल है ॥ 38 ॥ लोक-रचनाकी इच्छासे तुमने सगुण प्रतीत होनेपर भी जो निर्गुणरूपसे मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुम्हारा कल्याण हो ।। 39 । मैं समस्त कामनाओं और मनोरथोंको पूर्ण करनेमें समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्यप्रति इस | स्तोत्रद्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उसपर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा ॥ 40 ॥ तत्त्ववेत्ताओंका मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनोंसे प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ॥ 41 ॥ विधाता ! मैं आत्माओंका भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियोंका भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये ।। 42 ।। ब्रह्माजी ! त्रिलोकीको तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्पके समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने | सर्ववेदमय स्वरूपसे स्वयं ही रचो ।। 43 ।।श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—प्रकृति और पुरुषके स्वामी कमलनाथ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको इस प्रकार जगत्की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूपसे अदृश्य हो गये || 44 ॥