भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-उद्धवजी ! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासनके द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपञ्च और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले ॥ 1 ॥ ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता ॥ 2 ॥ जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी ! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्तःकरणमें धारण करता है ॥ 3 ॥ तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्तःकरणशुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती ॥ 4 ॥इसलिये मेरे प्यारे उद्धव । तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो ॥ 5 ॥ बड़े-बड़े ऋषि मुनियन ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है ।। 6 ।। उद्धव आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमे ही दीख रहा है इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना-ये छः भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीचमें भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता ॥ 7 ॥
उद्धवजीने कहा- विश्वरूप परमात्मन्! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूंढ़ा करते हैं ॥ 8 ॥ मेरे स्वामी! जो पुरुष इस संसार के विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र-छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता ।। 9 ।। महानुभाव! आपका यह अपना सेवक अधेरे कुएं पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे इस रखा है; फिर भी विषयों के क्षुद्र सुख भोगोकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा धारासे इसे सराबोर कर दीजिये ll 10 ll
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धवजी जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिरने धार्मिकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे ॥ 11 ॥ जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन सम्बन्धियोंके संहारसे क-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्न किया था ।। 12 ।।उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हे सुनाऊँगा क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं ॥ 13 ॥ उद्धवजी । जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पक्ष तन्मात्राये नौ पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन – ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्यम देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निव है ।। 14 ।। जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहले समान न देखे, किन्तु एक परम कारण अझको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करने की युक्ति यह है कि यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे ॥ 15 ॥ जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमे अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाघ होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे ॥ 16 श्रुति प्रत्यक्ष ऐतिहा (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान प्रमाणों में यह चार मुख्य है। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य प्रपञ्च अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपञ्चसे विरक्त हो जाता है॥ 17॥ विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कम क परिणामी नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख-अदृष्टको भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमङ्गल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे ॥ 18 ॥
- निष्पाप उद्धवजी | भक्तियोगका वर्णन में तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रोति है.. इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ ॥ 19 ॥ जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे निरन्तर मेरे गुण लीला और नामोका सङ्कीर्तन करे मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे 20 ॥मेरी सेवा पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टाङ्ग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढ़कर करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे ॥ 21 ॥ अपने एक-एक अङ्गकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे ।। 22 ।। मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो व कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे ।। 23 । उद्धवजी! जो मनुष्य इन धर्मोका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है। और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है? ।। 24 ।।
इस प्रकारके धर्मोका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है, उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं ।। 25 ।। यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है ॥ 26 ॥ उद्धव ! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असङ्ग – निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं ॥ 27 ॥
उद्धवजीने कहा- रिपुसूदन ! यम और नियम कितने प्रकारके हैं ? श्रीकृष्ण ! राम क्या है ? दम क्या है? प्रभो। तितिक्षा और धैर्य क्या है ? ॥ 28 ॥ आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है ? अभीष्ट धन कौन-सा है ? यज्ञ किसे कहते हैं? और दक्षिणा क्या वस्तु है ? ॥ 29 ॥ श्रीमान् केशव। पुरुषका सच्चा बल क्या है ? भग किसे कहते हैं? और लाभ क्या वस्तु है ? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दुःख क्या है ? ॥ 30 ॥ पण्डित और मूर्ख लक्षण क्या है? मार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है ? स्वर्ग और नरक क्या है? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये ? और घर क्या है ? ।। 31 ।धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं? कृपण कौन है ? और ईश्वर किसे कहते है ? भक्तवत्सल प्रभो। आप मेरे इन प्रश्नोंका उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये ॥ 32 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने कहा- 'यम' बारह हैं l
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असङ्गता, लज्जा, असक्षय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय । नियमोंकी संख्या भी बारह ही हैं। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा इस प्रकार 'यम' और 'नियम' दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी जो पुरुष इनका ! पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते है ।। 33-35 ।। बुद्धिका मुझमें लग जाना ही 'शम' है। इन्द्रियोंके संयमका नाम 'दम' है। न्यायसे प्राप्त दुःखके सहनेका नाम 'तितिक्षा' है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना 'धैर्य' है ॥ 36 ॥ किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना 'दान' है। कामनाओंका त्याग करना ही 'तप' है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही 'शूरता' है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही 'सत्य' है ॥ 37 ॥ इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने 'ऋत' कहा है। कर्मों में आसक्त न होना ही 'शौच' है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा 'संन्यास' है ॥ 38 ॥ धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट 'धन' है। मैं परमेश्वर ही 'यज्ञ' हूँ। ज्ञानका उपदेश 'देना ही 'दक्षिणा' है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ 'बल' है ।। 39 ।। मेरा ऐश्वर्य ही 'भग' है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम 'लाभ' है, सची 'विद्या' वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही 'लज्जा' है ॥ 40 ॥ निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य 'श्री' है, दुःख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही 'सुख' है। विषयभोगोंकी कामना ही 'दुःख' है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही 'पण्डित' है । 41 ।। शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही 'मूर्ख' है जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा 'सुमार्ग' है। चितकी बहिर्मुखता ही 'कुमार्ग' है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही 'स्वर्ग' और सखे !तमोगुणकी वृद्धि ही 'नरक' है। गुरु ही सच्चा 'भाई-बन्धु' है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा 'घर' है तथा सच्चा 'धनी' वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है ।। 42-43 ॥ जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही 'दरिद्र' है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही 'कृपण' है। समर्थ, स्वतन्त्र और 'ईश्वर' वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा 'असमर्थ ' है ॥ 44 ॥ प्यारे उद्धव ! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुणदोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसङ्कल्प स्वरूपमें स्थित रहे- -वही सबसे बड़ा गुण है ॥ 45 ॥