नारदजी कहते हैं- अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको स्थापित करनेके लिये प्रयत्नपूर्वक श्रीशुकदेवजीके कहे हुए भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूँगा ॥ 1 ॥ यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये, आप इसके लिये कोई स्थान बता दीजिये। आपलोग वेदके पारगामी है, इसलिये मुझे इस शुकशास्त्रकी महिमा सुनाइये ॥ ॥ यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुनानी चाहिये और उसके सुननेकी विधि क्या है ॥ 3 ॥
सनकादि बोले -- नारदजी ! आप बड़े विनीत और विवेकी हैं। सुनिये, हम आपको ये सब बातें बताते हैं। हरिद्वारके पास आनन्द नामका एक घाट है ॥ 4 ॥ वहाँ अनेकों ऋषि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते रहते हैं। भाँति-भाँतिके वृक्ष और लताओंके | कारण वह बड़ा सघन है और वहाँ बड़ी कोमल नवीन बालू बिछी हुई है ॥ 5 ॥ वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है, वहाँ हर समय सुनहले कमलोंकी सुगन्ध आया करती है। उसके आस-पास रहनेवाले सिंह, हाथी आदि परस्पर विरोधी जीवोंके चित्तमें भी वैरभाव नहीं है ॥ 6 ॥ वहाँ आप बिना किसी विशेष प्रयत्नके ही ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये, उस स्थानपर कथामें अपूर्व रसका उदय होगा ॥ 7 ॥ भक्ति भी अपनी आँखोंके ही सामने निर्बल और जराजीर्ण अवस्था में पड़े हुए ज्ञान और वैराग्यको साथ लेकर वहाँ आ जायगी ॥ 8 ॥ क्योंकि जहाँ भी श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि अपने-आप पहुँच जाते हैं। वहाँ कानोंमें कथाके शब्द पड़नेसे ये तीनों तरुण हो जायँगे ॥ 9 ॥
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार कहकर नारदजीके साथ सनकादि भी श्रीमद्भापान करनेके लिये वहाँसे तुरंत गङ्गातटपर चले आये ॥ 10 ॥ जिस समय पर पहुँचे भूलोक, देवलोक और ब्रह्मलोक सभी जगह इस कथाका हल्ला हो गया ।। 11 ।।जो-जो भगवत्कथाके रसिक विष्णुभक्त थे, वे सभी श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके लिये सबसे आगे दौड़-दौड़कर आने लगे ।। 12 ।। भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, छायाशुक, जाजलि और जह्नु आदि सभी प्रधान प्रधान मुनिगण अपने-अपने पुत्र, शिष्य और स्त्रियोंसमेत बड़े प्रेमसे वहाँ आये ।। 13-14 ।। इनके सिवा वेद, वेदान्त (उपनिषद्), मन्त्र, तन्त्र, सत्रह पुराण और छहों शास्त्र भी मूर्तिमान् होकर वहाँ उपस्थित हुए ॥ 15 ॥
गङ्गा आदि नदियाँ, पुष्कर आदि सरोवर, कुरुक्षेत्र आदि समस्त क्षेत्र, सारी दिशाएँ, दण्डक आदि वन, हिमालय आदि पर्वत तथा देव, गन्धर्व और दानव आदि | सभी कथा सुनने चले आये। जो लोग अपने गौरवके कारण नहीं आये, महर्षि भृगु उन्हें समझा बुझाकर ले आये ।। 16-17 ।।
तब कथा सुनानेके लिये दीक्षित होकर श्रीकृष्ण परायण सनकादि नारदजीके दिये हुए श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनकी वन्दना की ।। 18 ।। श्रोताओंमें वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी योग आगे बैठे और उन सबके आगे नारदजी विराजमान हुए॥ 19 ॥ एक ओर ऋषिगण, एक ओर | देवता, एक और वेद और उपनिषदादि तथा एक ओर तीर्थ बैठे, और दूसरी ओर स्त्रियाँ बैठीं ॥ 20 उस समय सब ओर जय-जयकार, नमस्कार और शङ्खोका शब्द होने लगा और अबीर-गुलाल, खील एवं फूलोंको खूब वर्षा होने लगी ।। 21 ।। कोई-कोई देवश्रेष्ठ तो विमानोंपर चढ़कर, वहाँ बैठे हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्ष पुष्यकी वर्षा करने लगे ॥ 22 ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार पूजा समाप्त होनेपर जब सब लोग एकाग्रचित्त हो गये, तब सनकादि ऋषि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके सुनाने लगे ॥ 23 ॥सनकादिने कहा- अब हम आपको इस भागवतशास्त्रकी महिमा सुनाते है इसके श्रवणमात्रसे मुक्ति हाथ लग जाती है ॥ 24 ॥ श्रीमद्भागवतकी कथाका सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे श्रीहरि हृदयमें आ विराजते हैं ।। 25 ।। इस ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध है तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित्का संवाद है। आप यह भागवतशास्त्र ध्यान देकर सुनिये ॥ 26 ॥ यह जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक क्षणभरके लिये भी कानोंमें इस शुकशास्त्र की कथा नहीं पड़ती ।। 27 ।। बहुत से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थका भ्रम बढ़ता है। मुक्ति देनेके लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है ॥ 28 ॥ जिस घरमें नित्यप्रति श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है। और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो | जाते हैं ॥ 29 ॥ हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्रकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते ॥ 30 ॥ तपोधनो! जबतक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवतका श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीरमें पाप निवास करते हैं ।। 31 ।। फलकी दृष्टिसे | इस शुकशास्त्रकथाकी समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग – कोई तीर्थ भी नहीं कर सकता ।। 32 ।।
यदि आपको परम गतिकी इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवतके आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ।। 33 ।। ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्य भगवान्, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्रिहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम इन सबमे बुद्धिमान् लोग वस्तुतः कोई अन्तर नहीं मानते ।। 34-36 ।। जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ 37 ॥जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है ॥ 38 ॥ नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान्का चिन्तन करना, तुलसीको सींचना और गौकी सेवा | करना ये चारों समान है ॥ 39 ॥ जो पुरुष अन्तसमयम श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान् उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ 40 ॥ जो पुरुष इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्तको दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्का सायुज्य प्राप्त करता है । 41 ।
'जिस दुष्टने अपनी सारी आयुमें चित्तको एकाग्र करके श्रीमद्भागवतामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने तो अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया; वह तो अपनी माताको प्रसव पीड़ा पहुँचाने के लिये ही उत्पन्न हुआ ।। 42 ।। जिसने इस शुकशास्त्र के थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा तो जीता हुआ ही मुर्देके समान है। 'पृथ्वीके भारस्वरूप उस पशुतुल्य मनुष्यको धिक्कार है' —यों स्वर्गलोकमें देवताओंमें प्रधान इन्द्रादि कहा करते हैं ।। 43 ।।
संसारमे श्रीमद्भागवतकी कथाका मिलना अवश्य ही कठिन है; जब करोड़ों जन्मोंका पुण्य होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है ।। 44 ।। नारदजी आप बड़े ही बुद्धिमान् और योगनिधि है। आप प्रपूर्वक कथाका श्रवण कीजिये। इसे सुननेके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है, इसे तो सर्वदा ही सुनना अच्छा है ।। 45 ।। इसे सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक सर्वदा ही सुनना श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु कलियुगमें ऐसा होना कठिन है; इसलिये इसकी शुकदेवजीने जो विशेष विधि बतायी है, वह जान लेनी चाहिये ॥ 46 ।। कलियुगमें बहुत दिनोंतक विसकी वृतियोंको वशमे रखना, नियमोंमें बँधे रहना और किसी पुण्यकार्यके लिये दीक्षित रहना कठिन है, इसलिये सप्ताह-श्रवणकी विधि | है ।। 47 ।। श्रद्धापूर्वक कभी भी श्रवण करनेसे अथवा माघमासमें श्रवण करनेसे जो फल होता है, वही फल श्रीशुकदेवजीने सप्ताह श्रवणमें निर्धारित किया है ।। 48 ।। मनके असंयम, रोगोंकी बहुलता और आयुकी अल्पताके कारण तथा कलियुगमें अनेको दोषोकी सम्भावनासे ही सप्ताह श्रवणका विधान किया गया है ॥ 49 ॥जो फल तप, योग और समाधि से भी प्राप्त नहीं हो सकता, | वह सर्वाङ्गरूपमें सह श्रवणसे सहज ही मिल जाता है ॥ 50 ॥ सप्ताह श्रवण यज्ञसे बढ़कर है, व्रतसे बढ़कर है, | तपसे कहीं बढ़कर है। तीर्थसेवनसे तो सदा ही बड़ा है, योगसे बढ़कर है—यहाँतक कि ध्यान और ज्ञानसे भी | बढ़कर है, अजी इसकी विशेषताका कहाँतक वर्णन करें, | यह तो सभीसे बढ़-चढ़कर है ।। 51-52 ।।
शौनकजीने पूछा- सूतजी । यह तो आपने बड़े आशर्य की बात कही अवश्य ही यह भागवतपुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण श्रीनारायणका-निरूपण करता है; परन्तु यह मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानादि सभी साधनोंका तिरस्कार करके इस युगमें उनसे भी कैसे बढ़ गया ? ।। 53 ।।
सूतजीने कहा- शौनकजी! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने नित्यधामको जाने लगे, तब उनके मुखारविन्दसे एकादश स्कन्धका ज्ञानोपदेश सुनकर भी उद्धवजीने पूछा ॥ 54 ॥
उद्धवजी बोले- गोविन्द ! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य करके परमधामको पधारना चाहते हैं; किन्तु मेरे मनमें एक बड़ी चिन्ता है। उसे सुनकर आप मुझे शान्त कीजिये ।। 55 ।। अब घोर कलिकाल आया ही समझिये, इसलिये संसारमें फिर अनेकों दुष्ट प्रकट हो जायेंगे; उनके संसर्गसे जब अनेकों सत्पुरुष भी उग्र प्रकृतिके हो जायेंगे, तब उनके भारसे दबकर यह गोरूपिणी पृथ्वी किसकी शरणमें जायगी ? कमलनयन ! मुझे तो आपको छोड़कर इसकी रक्षा करनेवाला कोई दूसरा नहीं दिखायी | देता।। 56-57 ।। इसलिये भक्तवत्सल ! आप साधुओपर कृपा करके यहाँसे मत जाइये। भगवन्! आपने निराकार और चिन्मात्र होकर भी भक्तोंके लिये ही तो यह सगुण रूप धारण किया है ।। 58 ।। फिर भला आपका वियोग होनेपर वे भक्तजन पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणोपासनामें तो बड़ा कष्ट है। इसलिये कुछ और विचार कीजिये ।। 59 ।।
प्रभासक्षेत्रमे उद्धवजीके ये वचन सुनकर भगवान् सोचने लगे कि भक्तोके अवलम्बके लिये मुझे क्या व्यवस्था करनी चाहिये ॥ 60 ॥ शौनकजी तब भगवान् ने अपनी सारी शक्ति भागवतमे रख दी थे अन्तर्धान होकरइस भागवतसमुद्रमें प्रवेश कर गये ॥ 61 ॥इसलिये यह भगवान्को साक्षात् शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण, पाठ अथवा दर्शनसे ही मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥ 62 ॥ इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है और कलियुगमें तो अन्य सब साधनों को छोड़कर यही प्रधान धर्म बताया गया है॥ 63 ॥ कलिकालमें यही ऐसा धर्म है, जो दुःख, दखिता, दुर्भाग्य और पापोंकी सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय दिलाता है ॥ 64 अन्यथा, भगवान्को इस मायासे पीछा छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छूटनेके लिये भी सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ 65 ॥
सूतजी कहते हैं-शौनकजी! जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महिमाका बखान कर रहे थे, उस सभामें एक बड़ा आश्चर्य हुआ; उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ सुनो ॥ 66 वहाँ तरुणावस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार-बार 'श्रीकृष्ण गोविन्द ! हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेव!' आदि भगवन्नामों का उच्चारण करती हुई अकस्मात् प्रकट हो गयीं ॥ 67 ॥ सभी सदस्योंने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी भागवतके अर्थोका आभूषण पहने वहाँ पधारीं मुनियोंकी उस सभामें सभी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये यहाँ कैसे आयीं, कैसे प्रविष्ट | हुई ।। 68 ।। तब सनकादिने कहा- ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथाके अर्थसे निकली हैं। उनके ये वचन सुनकर भक्तिने अपने पुत्रोंसमेत अत्यन्त विनम्र होकर सनत्कुमारजीसे कहा ।। 69 ।।
भक्ति बोलीं- मैं कलियुगमे नष्टप्राय हो गयी। थी, आपने कथामृतसे सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया। अब आप यह बताइये कि में कहाँ रहूँ ? यह सुनकर सनकादिने उससे कहा- ॥ 70 ॥'तुम भक्तोंको भगवान्का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्यप्रेमका सम्पादन करनेवाली और संसार - रोगको निर्मूल करनेवाली हो; अतः तुम धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर विष्णुभक्तोंके हृदयोंमें ही निवास करो ॥ 71 ॥ ये कलियुगके दोष भले ही सारे संसारपर अपना प्रभाव डालें, किन्तु वहाँ तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी।' इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद्भक्तोंके हृदयोंमें जा विराजीं ॥ 72 ॥
जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्ति निवास करती है; वे त्रिलोकीमें अत्यन्त निर्धन होनेपर भी परम धन्य हैं; | क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर तो साक्षात् भगवान् भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदयमें आकर बस जाते हैं 73 ॥ भूलोकमें यह भागवत साक्षात् परब्रह्मका विग्रह है, हम इसकी महिमा कहाँतक वर्णन करें। इसका आश्रय लेकर इसे सुनानेसे तो सुनने और सुनानेवाले दोनोंको ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त हो जाती है। अतः इसे | छोड़कर अन्य धर्मोसे क्या प्रयोजन है ।। 74 ॥