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श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 14 - Skand 11, Adhyay 14

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भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन

उद्धवजीने पूछा— श्रीकृष्ण ! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याणके अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है ? ॥ 1 ॥ मेरे स्वामी ! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है ॥ 2 ॥भगवान् श्रीकृष्णने कहा-प्रिय उद्धव ! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने सङ्कल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है ॥ 3 ॥ ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुको उपदेश किया और उनसे भृगु, अङ्गिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति महर्षियोंने ग्रहण किया ॥ 4 ॥ तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियोंकी सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव *, किन्नर, नाग, राक्षस और किम्पुरुष # आदिने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियोंसे प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियोंके स्वभाव — उनकी वासनाएँ सत्व, रज और तमोगुणके कारण भिन्न-भिन्न है; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धि वृत्तियोंमें भी अनेकों भेद हैं। इसीलिये वे सभी अपनी अपनी प्रकृतिके अनुसार उस वेदवाणीका भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है ।। 5- 7 इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेशके भेदसे मनुष्योकी बुद्धिमें भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचारके वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं ॥ 8 ॥ प्रिय उद्धव सभीकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म संस्कार और अपनी-अपनी रुचिके अनुसार आत्मकल्याणके साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं ॥ 9 ॥ पूर्वमीमांसक धर्मको, साहित्याचार्य यशको, कामशास्त्री कामको, योगवेत्ता सत्य और शमदमादिको दण्डनीतिकार ऐश्वर्यको त्यागी त्यागको और लोकायतिक भोगको ही मनुष्य जीवनका स्वार्थ परम लाभ बतलाते हैं ॥ 10 ॥ कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदिको पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मोंका फल समाप्त हो जानेपर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोगके समय भी असूयाआदि दोषोंके कारण शोकसे परिपूर्ण है (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये) ॥ 11 ॥

प्रिय उद्धव । जो सब ओरसे निरपेक्ष-बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषयलोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता ॥ 12 ॥ जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित अकिञ्चन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है॥ 13 ॥ जिसने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है वह योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता ।। 14 ।। उद्धव ! मुझे तुम्हारे जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम है, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शङ्कर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धाङ्गिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है ।। 15 ।। जिसे किसीकी अपेक्षा नहीं, जो जगत्के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तनमें तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर वह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ ॥ 16 ॥ जो सब प्रकारके संग्रह परिग्रहसे रहित हैं—यहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रंग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता उदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियोंके प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है ।। 17 ।।

उद्धवजी | मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं— अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसेपराजित नहीं होता ॥ 18 ॥ उद्धव । जैसे धधकती हुई आग लकड़ियोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप राशिको पूर्णतया जला डालती है ॥ 19 ॥ उद्धव योग-साधन, ज्ञान विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति ॥ 20 ॥ मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र – जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं ॥ 21 ॥ इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है ॥ 22 ॥ जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग भक्तिकी बचत डूबने-उतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है ॥ 23 ॥ जिसकी वाणी प्रेमसे गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिलखिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव ! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है ।। 24 ।। जैसे आगमें तपानेपर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोगके द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओंसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ ॥ 25 ॥ उद्धवजी। मेरी परमपावन लीला कथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्मवस्तुके वास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते है-जैसे अंजनके द्वारा नेत्र दोष मिटनेपर उनमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है ।। 26 ।।

जो पुरुष निरन्तर विषय चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है ।। 27 ।।इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्र अथवा मनोरथका राज्य । इसलिये मेरे चिन्तनसे तुम अपना चित शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे-एकाग्रतासे मुझमें ही लगा दो ॥ 28 ॥ संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका सङ्ग दूरसे ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे ।। 29 ।। प्यारे उद्धव ! स्त्रियोंके सङ्गसे और स्त्रीसङ्गियोंके - लम्पटोंके सङ्गसे पुरुषको जैसे क्लेश और बन्धनमें पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फैसावट और किसीके भी सहसे नहीं होती ॥ 30 ॥ उद्धवजीने पूछा- कमलनयन श्यामसुन्दर ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे ? ।। 31 ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमावे ॥ 32 ॥ इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक-इन प्राणायाम के द्वारा नाडियोंका शोधन करे। प्राणायामका अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये ॥ 33 ॥ हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे ।। 34 ।। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकारसहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु वशमें हो जाता है ।। 35 ।। इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पंखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है ॥ 36 ॥ कर्णिकापर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अनिके अंदर मेरे | इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मङ्गलमय है ।। 37 ।।मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतकबी मनोहर चार भुजाएँ है बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकतमणिके समान मुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द मन्द मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्षःस्थलपर दायें-बायें विराजमान है। हाथोंमें क्रमशः शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है। चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव ! मेरे इस सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अङ्गमें लगाना चाहिये ।। 38 - 41 ॥

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अङ्ग क्यों न लगे ।। 42 ।। जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अङ्गका चिन्तन न करके केवल मन्द मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे ।। 43 । जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे ।। 44 ।। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता है ।। 45 ।। जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोगके द्वारा मुझमें ही अपने चित्तका संयम करता है, उसके चित्तसे वस्तुकी अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्तिके लिये होनेवाले कमका भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ।। 46 ।।

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श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
  2. [अध्याय 2] भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महर्षि व्यासका असन्तोष
  5. [अध्याय 5] भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
  6. [अध्याय 6] नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
  7. [अध्याय 7] अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
  8. [अध्याय 8] गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
  9. [अध्याय 9] युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
  10. [अध्याय 10] श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
  11. [अध्याय 11] द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
  12. [अध्याय 12] परीक्षितका जन्म
  13. [अध्याय 13] विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
  14. [अध्याय 14] अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
  15. [अध्याय 15] पाण्डवों का परीक्षित‌ को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
  16. [अध्याय 16] परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
  17. [अध्याय 17] महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
  18. [अध्याय 18] राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
  19. [अध्याय 19] परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
  1. [अध्याय 1] उद्भव और विदुरकी भेंट
  2. [अध्याय 2] उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
  5. [अध्याय 5] विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण
  6. [अध्याय 6] विराट् शरीरकी उत्पत्ति
  7. [अध्याय 7] विदुरजीके प्रश्न
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माजीकी उत्पत्ति
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति
  10. [अध्याय 10] दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन
  12. [अध्याय 12] सृष्टिका विस्तार
  13. [अध्याय 13] वाराह अवतारकी कथा
  14. [अध्याय 14] दितिका गर्भधारण
  15. [अध्याय 15] जय-विजयको सनकादिका शाप
  16. [अध्याय 16] जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन
  17. [अध्याय 17] हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म
  18. [अध्याय 18] हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध
  19. [अध्याय 19] हिरण्याक्षवध
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि
  21. [अध्याय 21] कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान
  22. [अध्याय 22] देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह
  23. [अध्याय 23] कर्दम और देवहूतिका विहार
  24. [अध्याय 24] श्रीकपिलदेवजीका जन्म
  25. [अध्याय 25] देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन
  26. [अध्याय 26] महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  27. [अध्याय 27] प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन
  28. [अध्याय 28] अष्टाङ्गयोगकी विधि
  29. [अध्याय 29] भक्तिका मर्म और कालकी महिमा
  30. [अध्याय 30] देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन
  31. [अध्याय 31] मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन
  32. [अध्याय 32] धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति
  33. [अध्याय 33] देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य
  3. [अध्याय 3] सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह
  4. [अध्याय 4] सतीका अग्निप्रवेश
  5. [अध्याय 5] वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध
  6. [अध्याय 6] ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
  7. [अध्याय 7] दक्षयज्ञकी पूर्ति
  8. [अध्याय 8] ध्रुवका वन-गमन
  9. [अध्याय 9] ध्रुवका वर पाकर घर लौटना
  10. [अध्याय 10] उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध
  11. [अध्याय 11] स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने
  12. [अध्याय 12] ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति
  13. [अध्याय 13] ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र
  14. [अध्याय 14] राजा वेनकी कथा
  15. [अध्याय 15] महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक
  16. [अध्याय 16] बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
  17. [अध्याय 17] महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना
  18. [अध्याय 18] पृथ्वी - दोहन
  19. [अध्याय 19] महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ
  20. [अध्याय 20] महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन
  21. [अध्याय 21] महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश
  22. [अध्याय 22] महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
  23. [अध्याय 23] राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन
  24. [अध्याय 24] पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश
  25. [अध्याय 25] पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ
  26. [अध्याय 26] राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना
  27. [अध्याय 27] पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई
  28. [अध्याय 28] पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति
  29. [अध्याय 29] पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य
  30. [अध्याय 30] प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान
  31. [अध्याय 31] प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश
  1. [अध्याय 1] प्रियव्रत चरित्र
  2. [अध्याय 2] आग्नीध्र-चरित्र
  3. [अध्याय 3] राजा नाभिका चरित्र
  4. [अध्याय 4] ऋषभदेवजीका राज्यशासन
  5. [अध्याय 5] ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना
  6. [अध्याय 6] ऋषभदेवजीका देहत्याग
  7. [अध्याय 7] भरत चरित्र
  8. [अध्याय 8] भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृग-योनिमें जन्म लेना
  9. [अध्याय 9] भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म
  10. [अध्याय 10] जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट
  11. [अध्याय 11] राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश
  12. [अध्याय 12] रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान
  13. [अध्याय 13] भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश
  14. [अध्याय 14] भवाटवीका स्पष्टीकरण
  15. [अध्याय 15] भरतके वंशका वर्णन
  16. [अध्याय 16] भुवनकोशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] गङ्गाजीका विवरण
  18. [अध्याय 18] भिन्न-भिन्न वर्षोंका वर्णन
  19. [अध्याय 19] किम्पुरुष और भारतवर्षका वर्णन
  20. [अध्याय 20] अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन
  21. [अध्याय 21] सूर्यके रथ और उसकी गतिका वर्णन
  22. [अध्याय 22] भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गतिका वर्णन
  23. [अध्याय 23] शिशुमारचक्रका वर्णन
  24. [अध्याय 24] राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्ण
  25. [अध्याय 25] श्रीसङ्कर्षणदेवका विवरण और स्तुति
  26. [अध्याय 26] नरकोंकी विभिन्न गतियोंका वर्णन
  1. [अध्याय 1] अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण
  3. [अध्याय 3] यम और यमदूतोंका संवाद
  4. [अध्याय 4] दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  5. [अध्याय 5] श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा
  6. [अध्याय 6] दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण
  7. [अध्याय 7] बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग
  8. [अध्याय 8] नारायण कवच का उपदेश
  9. [अध्याय 9] विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार
  10. [अध्याय 10] देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना
  11. [अध्याय 11] वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] वृत्रासुरका वध
  13. [अध्याय 13] इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण
  14. [अध्याय 14] वृत्रासुरका पूर्वचरित्र
  15. [अध्याय 15] चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश
  16. [अध्याय 16] चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन
  17. [अध्याय 17] चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप
  18. [अध्याय 18] अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति
  19. [अध्याय 19] पुंसवन-व्रतकी विधि
  1. [अध्याय 1] नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा
  2. [अध्याय 2] हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना
  3. [अध्याय 3] हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति
  4. [अध्याय 4] हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न
  6. [अध्याय 6] प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश
  7. [अध्याय 7] प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन
  8. [अध्याय 8] नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति
  10. [अध्याय 10] प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा
  11. [अध्याय 11] मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण
  12. [अध्याय 12] ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम
  13. [अध्याय 13] यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद
  14. [अध्याय 14] गृहस्थसम्बन्धी सदाचार
  15. [अध्याय 15] गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन
  1. [अध्याय 1] मन्वन्तरोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
  3. [अध्याय 3] गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
  4. [अध्याय 4] गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
  5. [अध्याय 5] देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
  6. [अध्याय 6] देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
  7. [अध्याय 7] समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
  8. [अध्याय 8] समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्‌का मोहिनी अवतार
  9. [अध्याय 9] मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
  10. [अध्याय 10] देवासुर संग्राम
  11. [अध्याय 11] देवासुर संग्रामकी समाप्ति
  12. [अध्याय 12] मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
  13. [अध्याय 13] आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
  14. [अध्याय 14] मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
  15. [अध्याय 15] राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
  16. [अध्याय 16] कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
  17. [अध्याय 17] भगवान्‌का प्रकट होकर अदितिको वर देना
  18. [अध्याय 18] वामनभगवान्‌का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
  19. [अध्याय 19] भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
  20. [अध्याय 20] भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
  21. [अध्याय 21] बलिका बाँधा जाना
  22. [अध्याय 22] बलिके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और भगवान्‌ का प्रसन्न होना
  23. [अध्याय 23] बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
  24. [अध्याय 24] भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
  1. [अध्याय 1] वैवस्वत मनुके पुत्र राजा सुद्युनकी कथा
  2. [अध्याय 2] पृषध, आदि मनुके पाँच पुत्रोंका वंश
  3. [अध्याय 3] महर्षि च्यवन और सुकन्याका चरित्र, राजा शर्याति
  4. [अध्याय 4] नाभाग और अम्बरीषकी कथा
  5. [अध्याय 5] दुर्वासाजीकी दुःखनिवृत्ति
  6. [अध्याय 6] इक्ष्वाकु वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषिकी कथा
  7. [अध्याय 7] राजा त्रिशत्रु और हरिचन्द्रकी कथा
  8. [अध्याय 8] सगर-चरित्र
  9. [अध्याय 9] भगीरथ चरित्र और गङ्गावतरण
  10. [अध्याय 10] भगवान् श्रीरामकी लीलाओंका वर्णन
  11. [अध्याय 11] भगवान् श्रीरामकी शेष लीलाओंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] इक्ष्वाकुवंशके शेष राजाओंका वर्णन
  13. [अध्याय 13] राजा निमिके वंशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] चन्द्रवंशका वर्णन
  15. [अध्याय 15] ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजीका चरित्र
  16. [अध्याय 16] क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओंके वंशका वर्णन
  17. [अध्याय 17] ययाति चरित्र
  18. [अध्याय 18] ययातिका गृहत्याग
  19. [अध्याय 19] पूरुके वंश, राजा दुष्यन्त और भरतके चरित्रका वर्णन
  20. [अध्याय 20] भरतवंशका वर्णन, राजा रन्तिदेवकी कथा
  21. [अध्याय 21] पाञ्चाल, कौरव और मगधदेशीय राजाओंके वंशका वर्ण
  22. [अध्याय 22] अनु, ह्यु, तुर्वसु और यदुके वंशका वर्णन
  23. [अध्याय 23] विदर्भके वंशका वर्णन
  24. [अध्याय 24] परशुरामजीके द्वारा क्षत्रियसंहार
  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन
  1. [अध्याय 1] यदुवंशको ऋषियोंका शाप
  2. [अध्याय 2] वसुदेवजी को श्रीनारदजीका राजा जनक और नौ योगेश्वरों का संवाद सुनना
  3. [अध्याय 3] माया, मायासे पार होनेके उपाय
  4. [अध्याय 4] भगवान् के अवतारोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजाविधि
  6. [अध्याय 6] देवताओंकी भगवान्‌ले स्वधाम सिधारनेके लिये प्रार्थना करना
  7. [अध्याय 7] अवधूतोपाख्यान – पृथ्वीसे लेकर कबूतर तक आठ गुरु
  8. [अध्याय 8] अवधूतोपाख्यान अजगरसे लेकर पिंगला तक नौ गुरु
  9. [अध्याय 9] अवधूतोपाख्यान – क्रूररसे लेकर भृङ्गीतक सात गुरु
  10. [अध्याय 10] लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
  11. [अध्याय 11] बद्ध, मुक्त और भक्तजनोंके लक्षण
  12. [अध्याय 12] सत्सङ्गकी महिमा और कर्म तथा कर्मत्यागकी विधि
  13. [अध्याय 13] हंसरूपसे सनकादिको दिये हुए उपदेशका वर्णन
  14. [अध्याय 14] भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
  16. [अध्याय 16] भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन
  17. [अध्याय 17] वर्णाश्रम धर्म-निरूपण
  18. [अध्याय 18] वानप्रस्थ और संन्यासीके धर्म
  19. [अध्याय 19] भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
  20. [अध्याय 20] ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग
  21. [अध्याय 21] गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
  22. [अध्याय 22] तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष प्रकृति-विवेक
  23. [अध्याय 23] एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास
  24. [अध्याय 24] सांख्ययोग
  25. [अध्याय 25] तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
  26. [अध्याय 26] पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
  27. [अध्याय 27] क्रियायोगका वर्णन
  28. [अध्याय 28] परमार्थनिरूपण
  29. [अध्याय 29] भागवतधर्मोका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रम गमन
  30. [अध्याय 30] यदुकुलका संहार
  31. [अध्याय 31] श्रीभगवान्का स्वधामगमन
  1. [अध्याय 1] कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] कलियुगके धर्म
  3. [अध्याय 3] राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
  4. [अध्याय 4] चार प्रकारके प्रलय
  5. [अध्याय 5] श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
  6. [अध्याय 6] परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
  7. [अध्याय 7] अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
  8. [अध्याय 8] मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
  9. [अध्याय 9] मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
  10. [अध्याय 10] मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
  11. [अध्याय 11] भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
  12. [अध्याय 12] श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
  13. [अध्याय 13] विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा