राजा निमिने पूछा- योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान् के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं है तथा जो प्रायः भगवान्का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? ॥ 1 ॥
अब आठवें योगीश्वर चमसजीने कहा- राजन् ! विराट् पुरुषके मुखसे सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओंसे सत्त्व रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघोंसे रज-तमप्रधान वैश्य और चरणोंसे तमः प्रधान शूद्रकी उत्पत्ति हुई है। उन्हींकी जाँघोंसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्य, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थ और मस्तक से संन्यास – ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमोंके जन्मदाता स्वयं भगवान् ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रममें रहनेवाला जो मनुष्य भगवान्का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य योनिसे भी च्युत हो जाता है; उसका अधःपतन हो जाता है 2-3 ॥ बहुत-सी खियाँ और शूद्र आदि भगवान्की कथा और उनके नामकीर्तन आदिसे कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप जैसे भगवद्भक्तोंकी दयाके पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तनकी सुविधा देकर उनका उद्धार करें 4 ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययनसे तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंसे भगवान्के चरणोंके निकटतक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदोंका असली तात्पर्य न समझकर अर्थवादमें लगकर मोहित हो जाते हैं 5 उन्हें कर्मका रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होनेपर भी वे अपनेको पण्डित मानते हैं और अभिमानमें अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातोंमें भूल जाते हैं और केवल वस्तु शून्य शब्द- माधुरीके मोहमे पड़कर चटकीली भड़कीली बातें कहा करते हैं ॥ 6 ॥ रजोगुणको अधिकता के कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओंकी तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उन्हें प्रेम होता है। वे पापी । लोग भगवान्के प्यारे भक्तोंकी हँसी उड़ाया करते हैं॥ 7 ॥वे मूर्ख बड़े-बूढ़ोंकी नहीं, स्त्रियोंकी उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थीके सम्बन्धमें ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँका सबसे बड़ा सुख स्त्री सहवासमें ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधिका उल्लङ्घन करते और दक्षिणातक नहीं देते। वे कर्मका रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभको सन्तुष्ट करने और पेटकी भूख मिटाने- शरीरको पुष्ट करनेके लिये बेचारे पशुओंकी हत्या करते हैं ॥ 8 ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदिके घमंडसे अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वरका भी अपमान करते रहते हैं ॥ 9 ॥ राजन् ! वेदोंने इस बातको बार-बार दुहराया है कि भगवान् आकाशके समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीर धारियोंमें स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणीको तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथोंकी बात आपसमें कहते-सुनते रहते हैं ॥ 10 ॥ (वेद विधिके रूपमें ऐसे ही कर्मेकि करनेकी आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसारमें देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्यकी ओर प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करनेके लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थितिमें विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञके द्वारा ही जो उनके सेवनकी व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिका नियन्त्रण, उनका मर्यादामें स्थापन । वास्तवमें उनकी ओरसे लोगोंको हटाना ही श्रुतिको अभीष्ट ॥ 11 ॥ धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परमतत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर गृहस्थीके स्वार्थो में या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु | किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ 12 ॥ सौत्रामणि यज्ञमें भी सुराको सूँघनेका ही विधान है, पीनेका नहीं। यज्ञमें | पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी |विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त | सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ।। 13 ।।जो इस विशुद्ध धर्मको नहीं जानते, वे घमंडी वास्तवमें तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपनेको श्रेष्ठ । वे धोखेमें पड़े हुए लोग पशुओंकी हिंसा करते हैं और मरनेके बाद वे पशु ही उन मारनेवालोंको खाते हैं॥ 14 ॥ यह शरीर मृतक शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्से द्वेष करते हैं, उन मूर्खोका अधःपतन निश्चित है ॥ 15 ॥ जिन लोगोंने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इघरके हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम इन तीनों पुरुषार्थोंमें फँसे - रहते हैं, एक क्षणके लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगोंको आत्मघाती कहते हैं ॥ 16 ॥ अज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियोंको कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मोकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। काल भगवान् सदा-सर्वदा इनके मनोरथोंपर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदयकी जलन, विषाद कभी मिटनेका नहीं 17 ॥ राजन्! जो लोग अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है। (भगवान्का भजन न
करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है) ॥ 18 ॥ राजा निमिने पूछा- योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान् किस समय किस रंगका, कौन -सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ॥ 19 ॥
अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा राजन् ! चार युग है— सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि । इन युगमें भगवान्के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती ॥ 20 ॥ सत्ययुग में भगवान्के श्रीविग्रहका रंग होता है। श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं 21 ॥ सत्ययुगके मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मनको वशमें रखकर ध्यानरूप तपस्याके द्वारा | सबके प्रकाशक परमात्माकी आराधना करते हैं ।॥ 22 ॥वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ॥ 23 ॥ राजन् ! त्रेतायुगमें भगवान् के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल । चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ॥ 24 ॥ उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान् श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ 25 ॥ त्रेतायुगमें अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते हैं। ॥ 26 ॥ राजन् ! द्वापरयुगमें भगवान्के श्रीविग्रहका रंग होता है साँवला वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभमणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं। ॥ 27 ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजोंके चिह्न छत्र, चंवर आदिसे युक्त परमपुरुष भगवान्की वैदिक और तान्त्रिक विधिसे आराधना करते हैं ॥ 28 ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते हैं— 'हे ज्ञानस्वरूप भगवान् वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं भगवान् प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्को हम नमस्कार करते हैं ।। 29-30 राजन् ! द्वापरयुगमें इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान्की स्तुति करते हैं। अब कलियुगमें अनेक तन्त्रोंके विधि-विधान से भगवान्की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो- ॥ 31 ॥
कलियुगमें भगवान्का श्रीविग्रह होता है कृष्ण वर्ण-काले रंगका। जैसे नीलम मणिमेंसे उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अङ्गकी छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अङ्ग, कौस्तुभ आदि उपाङ्ग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं। कलियुगमें श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करते हैं जिनमें नाम गुण, लीला आदिके कीर्तनकी प्रधानता रहती है ॥ 32 ॥वे लोग भगवान्को स्तुति इस प्रकार करते हैं- प्रभो। आप शरणागत रक्षक है। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करनेयोग्य, माया-मोहके कारण होनेवाले सांसारिक पराजयोंका अन्त कर देनेवाले तथा भक्तोंको समस्त अभीष्ट वस्तुओंका दान करनेवाले कामधेनुखरूप है। वे तीर्थोको भी तीर्थ बनानेवाले स्वयं परम तीर्थवरूप है; शिव, ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरणमें आ जाय, उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकोंको समस्त आर्ति और विपत्तिके नाशक तथा संसार सागर से पार जानेके लिये जहाज है। महापुरुष मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ 33 ॥ भगवन् ! आपके चरणकमलोकी महिमा कौन कहे ? रामावतारमें अपने पिता दशरथजीके वचनोंसे देवताओंके लिये भी वाञ्छनीय और दुस्त्यज राज्यलक्ष्मीको छोड़कर आपके चरण कमल वन वन घूमते फिरे ! सचमुच आप धर्मनिष्ठताकी सीमा हैं। और महापुरुष! अपनी प्रेयसी सीताजीके चाहनेपर जान-बूझकर आपके चरण कमल मायामृगके पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेमकी सीमा है। प्रभो। मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दोंकी वन्दना करता हूँ ॥ 34 ॥
राजन्! इस प्रकार विभिन्न युगोके लोग अपने-अपने युगके अनुरूप नाम-रूपोंद्वारा विभिन्न प्रकारसे भगवान्को आराधना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - सभी पुरुषार्थोके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही है 35 कलियुग में केवल सङ्कीर्तनसे ही सारे स्वार्थ और | परमार्थ बन जाते हैं। इसलिये इस युगका गुण जाननेवाले सारपाही श्रेष्ठ पुरुष कलियुगको यही प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं॥ 36 देहाभिमानी जीव संसारचक्रमें अनादि कालसे भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान्को लोला, गुण और नामके कीर्तनसे बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसारमें भटकना मिट जाता है और परम शान्तिका अनुभव होता है ॥ 37 ॥ राजन् । सत्ययुग, त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो; क्योंकि कलियुगमें कहीं-कहीं भगवान् नारायण के शरणागत उन्होंके आश्रय में रहनेवाले बहुत से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह कलियुगमे द्रविड़देशमे अधिक भक्त पाये जाते हैं जहाँ ताम्रपणी, कृतमाला, पयस्विनी, परमपवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नामकी नदियाँ बहती है राजन् जो मनुष्य इन नदियोंका जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् वासुदेवके भक्त हो जाते हैं ।। 38-40 ।।राजन् । जो मनुष्य 'यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है' इत्यादि कर्म-वासनाओंका अथवा भेद बुद्धिका परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल, प्रेमके वरदानी भगवान् मुकुन्दकी शरण में आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियों के ऋणसे उऋण हो जाता है; वह किसीके अधीन, किसीका सेवक, किसीके बन्धनमें नहीं रहता ॥ 41 ॥ जो प्रेमी भक्त अपने प्रितयतम भगवान्के चरणकमलोका अनन्यभावसे—दूसरी 'भावनाओं, आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियोंको छोड़कर - भजन करता है, उससे पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायें तो परमपुरुष भगवान् श्रीहरि उसके हृदयमें बैठकर वह सब धोबहा देते और उसके हृदयको शुद्ध कर देते हैं ।। 42 ।।
नारदजी कहते हैं-वसुदेवजी ! मिथिलानरेश राजा निमिनी योगीश्वरोंसे इस प्रकार भागवतधर्मीका वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए। उन्होंने अपने ऋत्विज् और आचार्योंकि साथ ऋषभनन्दन नव योगीश्वरोंकी पूजा की ।। 43 ।। इसके बाद सब लोगोंके सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गये। विदेहराज निमिने उनसे सुने हुए भागवतधर्मोका आचरण किया और परमगति प्राप्त की ।। 44 ।। महाभाग्यवान् वसुदेवजी मैंने तुम्हारे आगे जिन भागवतचमौका वर्णन किया है, तुम भी यदि श्रद्धाके साथ इनका आचरण करोगे तो अन्तमें सब आसक्तियोंसे छूटकर भगवान्का परमपद प्राप्त कर लोगे ।। 45 ।। वसुदेवजी तुम्हारे और देवकीके यशसे तो सारा जगत् भरपूर हो रहा है; क्योंकि सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे पुत्रके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ 46 ॥ तुमलोगोंने भगवान के दर्शन, आलिङ्गन तथा बातचीत करने एवं उन्हें सुलाने, बैठाने खिलाने आदिके द्वारा वात्सल्य स्नेह करके अपना हृदय शुद्ध कर लिया है; तुम परम पवित्र हो गये हो ।। 47 ।। वसुदेवजी शिशुपाल, पौण्ड्रक और शाल्व आदि राजाओंने तो वैरभावसे श्रीकृष्णकी चाल-ढाल, लीला-विलास, चितवन बोलन आदिका स्मरण किया था। वह भी नियमानुसार नहीं, सोते, बैठते, चलते-फिरते स्वाभाविकरूपसे ही। फिर भी उनकी चित्तवृत्ति श्रीकृष्णाकार हो गयी और वे सारूप्य मुक्तिके अधिकारी हुए। फिर जो लोग प्रेमभाव और अनुराग श्रीकृष्णका चिन्तन करते हैं, | उन्हें श्रीकृष्णकी प्राप्ति होने में कोई सन्देह है क्या ? ।। 48 ।।वसुदेवजी ! तुम श्रीकृष्णको केवल अपना पुत्र ही मत | समझो। वे सर्वात्मा, सर्वेश्वर, कारणातीत और अविनाशी हैं। उन्होंने लीलाके लिये मनुष्यरूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है ॥ 49 ॥ वे पृथ्वीके भारभूत राजवेषधारी असुरोंका नाश और संतोंकी रक्षा करनेके लिये तथा जीवोंको परम शान्ति और मुक्ति देनेके लिये ही | अवतीर्ण हुए हैं और इसीके लिये जगत्में उनकी कीर्ति भी गायी जाती है ॥ 50 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- प्रिय परीक्षित्! नारदजीके मुखसे यह सब सुनकर परम भाग्यवान् वसुदेवजी और परम भाग्यवती देवकीजीको बड़ा ही विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह अवशेष था, उसे उन्होंने तत्क्षण छोड़ दिया ॥ 51 ॥ राजन् ! यह इतिहास परम पवित्र है। जो एकाग्रचित्तसे इसे धारण करता है, वह अपन सारा शोक-मोह दूर करके ब्रह्मपदको प्राप्त होता है ॥ 52 ॥