विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियोंसे बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सतीका अनादर करके शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेवजीसे द्वेष क्यों किया ? ॥ 1 ॥ महादेवजी भी चराचरके गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत्के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा ? ॥ 2 ॥
भगवन् ! उन ससुर और दामादमें इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सतीने अपने दुस्त्यज प्राणोंतककी बलि दे दी ? यह आप मुझसे कहिये ॥ 3 ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एकत्र हुए थे ॥ 4 ॥ उसी समय प्रजापति दक्षने भी उस सभामें प्रवेश किया। वे अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा भवनका अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्माजी और महादेवजीके अतिरिक्त अग्निपर्यन्त सभी सभासद् उनके तेजसे प्रभावित होकर अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ।। 5-6 ।। इस प्रकार समस्त सभासदोंसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्माजीको प्रणाम कर उनकी आज्ञासे अपने आसनपर बैठ गये 7 ॥
परन्तु महादेवजीको पहलेसे ही बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादिके रूपमें कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजरसे इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्निसे जला डालेंगे। फिर कहने लगे-॥ 8॥ 'देवता और अग्नियोंके सहित समस्त अहार्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचारकी बात कहता हूँ ॥ 9 ॥ यह निर्लज महादेव समस्त लोकपालोकी पवित्र कीर्तिको धूलमें मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डीने सत्पुरुषोंके आचरणको लाञ्छित एवं मटियामेट कर दिया है ।। 10 बन्दरके से नेत्रवाले इसने सत्पुरुषोंके समान मेरी सावित्री सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्याका अग्नि और ब्राह्मणोंके सामने पाणिग्रहण किया था, | इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्रके समान हो गया है।उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परंतु इसने वाणीसे भी मेरा सत्कार नहीं किया ।। 11-12 ।। हाय ! जिस प्रकार शूद्रको कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी ! इसने सत्कर्मका लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्मकी मर्यादाको तोड़ रहा है ॥ 13 ॥ यह प्रेतोंके निवासस्थान भयङ्कर श्मशानपि भूत-प्रेतोंको साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागलको तरह सिरके बाल बिखेरे नंग-धड़ंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है ॥ 14 ॥ यह सारे शरीरपर चिताकी अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गलेमें भूतोंके पहननेयोग्य नरमुण्डोंकी माला और सारे शरीरमें हड्डियों के गहने पहने रहता है। यह बस, नामभरका ही शिव है, वास्तवमें है पूरा अशिव अमङ्गलरूप जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाववाले जीवो यह नेता है ।। 15 ।। अरे ! मैंने केवल ब्रह्माजीके बहकावे में आकर ऐसे भूलोके सरदार आधारहीन और दुष्ट स्वभाववालेको अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी ।। 16 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी दक्षने इस प्रकार महादेवजीको बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इस दक्षके क्रोधका पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथमें लेकर उन्हें शाप देनेको तैयार हो गये ॥ 17 ॥ दक्षने कहा, 'यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले ॥ 18 ॥ उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने | किसीकी न सुनी महादेवजीको शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यन्त क्रोधित हो उस सभासे निकलकर अपने घर चले गये ॥ 19 ॥ जब श्रीशङ्करजीके अनुयायियोमे अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उनको जिन्होंने दक्षदुर्वचन अनुमोदन किया था, बड़ा भयङ्कर शाप दिया ॥ 20 ॥ बोले- 'जो इस मरण-धर्मा शरीरमे ही अभिमान करके किसी भी न करनेवाले भगवान् र द्वेष करता है, वह भे बुद्धिवाद तत्त्वमुख हो रहे ॥ 21 ॥ यह 'चातुर्मास्य यज्ञ करनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त होता हैं आदि अर्थवादरूप वेदवाक्योंसे मोहित एवं विवेकहो विषयसुखको इच्छा कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममे आसक्त रहकरकर्मकाण्डमें ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया। है; यह साक्षात् पशुके ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्रीलम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरेका हो जाय ॥ 22-23 ॥ यह मूर्ख कर्ममयी अविद्याको ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शङ्करका अपमान करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले है, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें ॥ 24 ॥ वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पोंसे सुशोभित है, उसके कर्मफलरूप मनोमोहक गन्धसे इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे है। इससे ये शङ्करद्रोही कमेकि जालमें ही फँसे रहें । 25 ॥ ये ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोड़कर केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या, तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियोंके सुखको हो सुख मानकर उन्होंके गुलाम बनकर दुनियामें भीख माँगते भटका करें ॥ 26 ॥
नन्दीश्वर के मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगुजीने यह दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया ॥ 27 ॥ 'जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले और पाखण्डी हो ॥ 28 ॥ जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं—वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हो, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं ॥ 29 ॥ अरे ! तुमलोग जो धर्ममर्यादाके संस्थापक एवं वर्णाश्रमियोंके रक्षक वेद और ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्डका आश्रय ले रखा है। ॥ 30 ॥ यह वेदमार्ग ही लोगोंके लिये कल्याणकारी और सनातन | मार्ग है। पूर्वपुरुष इसीपर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णुभगवान् हैं ॥ 31 ॥ तुमलोग सत्पुरुषोंके परम पवित्र और सनातन मार्गस्वरूप वेदकी निन्दा करते हो— इसलिये उस पाखण्डमार्गमें जाओ, जिसमें भूतोंके सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं ।। 32 ।।
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी भृगुऋषिके इस प्रकार शाप देनेपर भगवान् शङ्कर कुछ खिन्न से हो वहाँसे अपने अनुयायियोंसहित चल दिये ॥ 33 ॥ वहाँ प्रजापतिलोग जो यज्ञ | कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हजार वर्षमें समाप्त होनेवाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियोंने श्रीगङ्गा-यमुनाके सङ्गममें यज्ञान्त स्नान किया और फिर प्रसन्न मनसे वे अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।। 34-35 ।।