View All Puran & Books

श्रीमद्भागवत महापुरण (भागवत पुराण)

Shrimad Bhagwat Purana (Bhagwat Katha)

स्कन्ध 10, अध्याय 83 - Skand 10, Adhyay 83

Previous Page 290 of 341 Next

भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही गोपियोको शिक्षा देनेवाले हैं और वही उस | शिक्षाके द्वारा प्राप्त होनेवाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान् श्रीकृष्णने उनपर महान् अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियोंसे कुशल- मङ्गल पूछा ॥ 1 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका दर्शन करनेसे ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब भगवान् श्रीकृष्णने उनका सत्कार किया, कुशल- मङ्गल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे- ॥ 2 ॥ भगवन्! बड़े-बड़े महापुरुष मन ही मन आपके चरणारविन्दका मकरन्दरस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुलसे लीला-कथाके रूपमें वह रस छलक पड़ता है। प्रभो ! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाली विस्मृति अथवा अविद्याको नष्ट कर देता है। उसी रसको जो लोग अपने कानोंके दोनोंमें भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमङ्गलको आशङ्का ही क्या है ? || 3 || भगवन् ! आप एकरस ज्ञानस्वरूप और अखण्ड आनन्दके समुद्र हैं। बुद्धि-वृत्तियोंके कारण होनेवाली जाग्रत्. स्वप्न, सुषुप्ति– ये तीनो अवस्थाएं आपके स्वयंप्रकाश स्वरूपतक पहुँच ही नहीं पातीं, दूरसे ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसोंकी एकमात्र गति हैं। समयके फेरसे वेदोंका ह्रास होते देखकर उनकी रक्षाके लिये आपने अपनी अचिन्त्ययोगमायाके द्वारा मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणोंमें बार-बार नमस्कार करते हैं' ॥ 4 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जिस समय | दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुलकी स्त्रियाँ एकत्र होकर | आपसमें भगवान्‌को त्रिभुवन-विख्यात लीलाओंका वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हींकी बातें सुनाता हूँ ॥ 5 ॥

द्रौपदीने कहा- हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियो ! तुमलोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने अपनी मायासे लोगोंका अनुकरण करते हुए तुमलोगोंका किस प्रकार पाणिग्रहण किया ? ।। 6-7 ।।

रुक्मिणीजीने कहा- द्रौपदीजी ! जरासन्ध | आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपालके साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धके लिये तैयार थे परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ोंके झुंडमेंसे अपना भाग छीन ले जाय। क्यों न हो –जगत्में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटोंपर इन्होंकी चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदीजी ! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान्के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दयोंके आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करनेके लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हींकी सेवामें लगी रहूँ ll 8 ll

सत्यभामाने कहा- द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेनकी मृत्युसे बहुत दुखी हो रहे थे, अतः उन्होंने उनके वधका कलङ्क भगवान्पर ही लगाया। उस कलङ्कको दूर करनेके लिये भगवान्‌ने ऋक्षराज जाम्बवान्पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिताको दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलङ्क लगानेके कारण डर गये। अतः यद्यपि वे दूसरेको मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तकमणिके साथ भगवान्के चरणोंमें ही समर्पित कर दिया ॥ 9 ॥

जाम्बवतीने कहा- द्रौपदीजी मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान्को इस बातका पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति है। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिनतक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तकमणिके साथ उपहारके रूपमें मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म | इन्हींकी दासी बनी रहूँ ॥ 10 ॥कालिन्दीने कहा- द्रौपदीजी जब भगवान्‌को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणोंका स्पर्श करनेकी आशा-अभिलाषासे तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुनके साथ यमुना-तटपर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारनेवाली उनकी दासी हूँ ॥ 11 ॥ मित्रविन्दाने कहा — द्रौपदीजी मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान्‌ने सब राजाओंको जीत लिया और जैसे सिंह झुंड के झुंड कुत्तोंमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारकापुरीमें ले आये मेरे भाइयों भी मुझे भगवान् छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारनेका सौभाग्य प्राप्त होता रहे ॥ 12 ॥

सत्याने कहा- द्रौपदीजी! मेरे पिताजीने मेरे स्वयंवरमें आये हुए राजाओंके बल-पौरुषको परीक्षाके लिये बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलोंने बड़े-बड़े वीरोंका घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान्ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक | वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरीके बच्चोको पकड़ लेते हैं ।। 13 ।। इस प्रकार भगवान् बल-पौरुषके द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरङ्गिणी सेना और दासियोंके साथ द्वारका ले आये। मार्गमें जिन क्षत्रियोंने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवाका अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे ।। 14 ।।

भद्राने कहा — द्रौपदीजी ! भगवान् मेरे मामाके - पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्होंके चरणोंमें अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजीको यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान्को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियोंके साथ मुझे इन्होंके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।। 15 ।। मैं अपना परम कल्याण इसीमें समझती हूँ कि | कर्मके अनुसार मुझे जहाँ-जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हींके चरणकमलोंका संस्पर्श प्राप्त होता रहे ।। 16 ।। लक्ष्मणाने कहा- रानीजी देवर्षि नारद बार बार भगवान् के अवतार और लीलाओंका गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मीजीने समस्त
लोकपालोंका त्याग करके भगवान्‌का ही वरण किया,
मेरा चित्त भगवान्के चरणों में आसक्त हो गया ॥ 17 ॥साध्वी ! मेरे पिता बृहत्सेन मुझपर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छाकी पूर्तिके लिये यह उपाय किया ॥ 18 ॥ महारानी ! जिस प्रकार | पाण्डववीर अर्जुनकी प्राप्तिके लिये आपके पिताने स्वयंवरमें मत्स्यवेधका आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिताने भी किया। आपके स्वयंवरकी अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहरसे ढका हुआ था, केवल जलमें ही उसकी परछाई दीख पड़ती थी ॥ 19 ॥ जब यह समाचार राजाओंको मिला, तब सब ओरसे समस्त अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओंके साथ मेरे पिताजीकी राजधानीमें आने लगे ॥ 20 ॥ मेरे पिताजीने आये हुए सभी राजाओंका बल-पौरुष और अवस्थाके अनुसार भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। उन लोगोंने मुझे प्राप्त करनेकी इच्छासे स्वयंवर सभामें रखे हुए धनुष और बाण उठाये ॥ 21 ॥ उनमेंसे कितने ही राजा तो धनुषपर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुषको ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयोंने धनुषकी डोरीको एक सिरेसे बाँधकर दूसरे सिरेतक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरेसे बाँध न सके, उसका झटका लगनेसे गिर पड़े ॥ 22 ॥ रानीजी ! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर - जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठनरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण – इन लोगोंने धनुषपर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछलीकी स्थितिका पता न चला ॥ 23 ॥ पाण्डववीर अर्जुनने जलमें उस मछलीकी परछाई देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानीसे उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाणने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ll 24 ll

रानीजी इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियोंका मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियोंने मुझे पानेकी लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेधकी चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान्ने धनुष उठाकर खेल-खेलमें- अनायास ही उसपर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जलमें केवल एक बार मछलीकी परछाई | देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक | दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक 'अभिजित्' नामक मुहूर्त बीत रहा था ।। 25-26 ॥ देवीजी ! उस समय पृथ्वीमें जय जयकार होने लगा और आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ 27 ॥ रानीजी उसी समय मैंने रंगशालामें प्रवेश किया। मेरे पैरोंके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियों में मालाएँ गुँथी हुई थीं और मुँहपर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी । मैं अपने हाथोंमें रलोंका हार लिये हुए थी, जो बीच-बीचमें लगे हुए सोनेके कारण और भी दमक रहा था। रानीजी ! उससमय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकोंसे सुशोभित हो रहा था तथा कपोलोंपर कुण्डलोंकी आभा पड़ने से वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमाकी किरणोंके समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवनसे चारों ओर बैठे हुए राजाओंकी ओर देखा, फिर धीरेसे अपनी वरमाला भगवान्के गलेमें डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहलेसे ही भगवान् के प्रति अनुरक्त था ।। 28-29 ।। मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदङ्ग, पखावज, शङ्ख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ॥ 30 ॥

द्रौपदीजी ! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान्‌को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओंको बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये ॥ 31 ॥ चतुर्भुज भगवान्ने अपने श्रेष्ठ चार घोड़ोंवाले रथपर मुझे चढ़ा लिया और हाथमें शार्ङ्गधनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करनेके लिये वे रथपर खड़े हो गये ॥ 32 ॥ पर रानीजी ! दारुकने सोनेके साज-सामानसे लदे हुए रथको सब राजाओंके सामने ही द्वारकाके लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनोंके बीचसे अपना भाग ले | जाय ॥ 33 ॥ उनमेंसे कुछ राजाओंने धनुष लेकर युद्धके लिये सज-धजकर इस उद्देश्यसे रास्तेमें पीछा किया कि हम भगवान्‌को रोक लें; परन्तु रानीजी ! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंहको रोकना चाहें ॥ 34 ॥ शार्ङ्गधनुषके छूटे हुए तीरोंसे किसीकी बाँह कट गयी तो किसीके पैर कटे और किसीकी गर्दन ही उतर गयी। बहुत से लोग तो उस रणभूमिमें ही सदाके लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए ॥ 35 ॥

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान्ने सूर्यकी भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वीमें सर्वत्र प्रशंसित द्वारका नगरीमें प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूपसे सजायी गयी थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्यका प्रकाश धरतीतक नहीं आ पाता था ॥ 36 ॥ मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जानेसे पिताजीको बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी-सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओंको बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकारकी सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया ॥ 37 ॥भगवान् परिपूर्ण हैं – तथापि मेरे पिताजीने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत-से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये ॥ 38 ॥ रानीजी ! हमने पूर्वजन्ममें सबकी आसक्ति छोड़कर कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्ममें आत्माराम भगवान्‌की गृह-दासियाँ हुई हैं ।। 39 ।। सोलह हजार पत्नियोंकी ओरसे रोहिणीजीने कहा -भौमासुरने दिग्विजयके समय बहुत-से राजाओंको जीतकर उनकी कन्या हमलोगोंको अपने महलमें बंदी बना रखा था। भगवान्ने यह जानकर युद्धमें भौमासुर और उसकी सेनाका संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होनेपर भी उन्होंने हमलोगोंको वहाँसे छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानीजी! हम सदा-सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलोंका चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म मृत्युरूप संसारसे मुक्त करनेवाले हैं ॥ 40 ॥ साध्वी द्रौपदीजी ! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनोंके भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्माका पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ — कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभुके सुकोमल चरणकमलोंकी वह श्रीरज सर्वदा अपने सिरपर वहन किया करें, जो लक्ष्मीजीके वक्षःस्थलपर लगी हुई केशरकी है ।। 41-42 ॥ उदारशिरोमणि भगवान्‌के जिन चरणकमलोंका स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिने, तिनके और घास लताएँतक करना चाहती सुगन्धसे युक्त थीं, उन्हींकी हमें भी चाह है ॥ 43 ॥

Previous Page 290 of 341 Next

श्रीमद्भागवत महापुरण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवानके द्वारा पृथ्वीको आश्वासन और कंस के अत्याचार
  2. [अध्याय 2] भगवान्का गर्भ-प्रवेश और देवताओंद्वारा गर्भ-स्तुति
  3. [अध्याय 3] भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य
  4. [अध्याय 4] कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना
  5. [अध्याय 5] गोकुलमें भगवान्‌का जन्ममहोत्सव
  6. [अध्याय 6] पूतना- उद्धार
  7. [अध्याय 7] शकट-भञ्जन और तृणावर्त - उद्धार
  8. [अध्याय 8] नामकरण संस्कार और बाललीला
  9. [अध्याय 9] श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
  10. [अध्याय 10] यमलार्जुनका उद्धार
  11. [अध्याय 11] गोकुलसे वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार
  12. [अध्याय 12] अघासुरका उद्धार
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश
  14. [अध्याय 14] ब्रह्माजीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति
  15. [अध्याय 15] धेनुकासुरका उद्धार और ग्वालबालोंको कालियनाग के विश से बचाना
  16. [अध्याय 16] कालिय पर कृपा
  17. [अध्याय 17] कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान्‌ का दावानल पान
  18. [अध्याय 18] प्रलम्बासुर - उद्धार
  19. [अध्याय 19] गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना
  20. [अध्याय 20] वर्षा और शरदऋतुका वर्णन
  21. [अध्याय 21] वेणुगीत
  22. [अध्याय 22] चीरहरण
  23. [अध्याय 23] यज्ञपत्त्रियोंपर कृपा
  24. [अध्याय 24] इन्द्रयज्ञ-निवारण
  25. [अध्याय 25] गोवर्धनधारण
  26. [अध्याय 26] नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषय में सुनना
  27. [अध्याय 27] श्रीकृष्णका अभिषेक
  28. [अध्याय 28] वरुणलोकसे नन्दजीको छुड़ाकर लाना
  29. [अध्याय 29] रासलीलाका आरम्भ
  30. [अध्याय 30] श्रीकृष्णके विरहमें गोपियोंकी दशा
  31. [अध्याय 31] गोपिकागीत
  32. [अध्याय 32] भगवान्‌का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देन
  33. [अध्याय 33] महारास
  34. [अध्याय 34] सुदर्शन और शङ्खचूडका उद्धार
  35. [अध्याय 35] युगलगीत
  36. [अध्याय 36] अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्री अक्रूर को व्रज भेजना
  37. [अध्याय 37] केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान की स्तुति
  38. [अध्याय 38] अक्रूरजीकी व्रजयात्रा
  39. [अध्याय 39] श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
  40. [अध्याय 40] अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
  41. [अध्याय 41] श्रीकृष्णका मथुराजीमें प्रवेश
  42. [अध्याय 42] कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट
  43. [अध्याय 43] कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश
  44. [अध्याय 44] चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
  45. [अध्याय 45] श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
  46. [अध्याय 46] उद्धवजीकी ब्रजयात्रा
  47. [अध्याय 47] उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत
  48. [अध्याय 48] भगवान्‌का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
  49. [अध्याय 49] अक्कुरजीका हस्तिनापुर जाना
  50. [अध्याय 50] जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
  51. [अध्याय 51] कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
  52. [अध्याय 52] द्वारकागमन, श्रीबलरामजीका विवाह और रुक्मणी जी का संदेश
  53. [अध्याय 53] रुक्मिणीहरण
  54. [अध्याय 54] शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा कृष्ण-रुक्मणी विवाह
  55. [अध्याय 55] प्रद्युम्नका जन्म और शम्बरासुरका वध
  56. [अध्याय 56] स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्ण का विवाह
  57. [अध्याय 57] स्यमन्तक- हरण, शतधन्वाका उद्धार
  58. [अध्याय 58] भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
  59. [अध्याय 59] भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राज कन्याओं से भगवान का विवाह
  60. [अध्याय 60] श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद
  61. [अध्याय 61] भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्ध विवाह में रुकमी का मारा जाना
  62. [अध्याय 62] ऊषा-अनिरुद्ध मिलन
  63. [अध्याय 63] भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
  64. [अध्याय 64] नृग राजाकी कथा
  65. [अध्याय 65] श्रीबलरामजीका व्रजगमन
  66. [अध्याय 66] पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
  67. [अध्याय 67] द्विविदका उद्धार
  68. [अध्याय 68] कौरवोंपर बलरामजीका कोप और साम्बका विवाह
  69. [अध्याय 69] देवर्षि नारदजीका भगवान्‌की गृहचर्या देखना
  70. [अध्याय 70] भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और जरासंध के कैदी राजाओं के दूत का आना
  71. [अध्याय 71] श्रीकृष्णभगवान्‌का इन्द्रप्रस्थ पधारना
  72. [अध्याय 72] पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
  73. [अध्याय 73] जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई
  74. [अध्याय 74] भगवान् की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
  75. [अध्याय 75] राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
  76. [अध्याय 76] शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
  77. [अध्याय 77] शाल्व उद्धार
  78. [अध्याय 78] दन्तवका और विदूरथका उद्धार तथा बलराम जी द्वारा सूत जी का वध
  79. [अध्याय 79] बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा
  80. [अध्याय 80] श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत
  81. [अध्याय 81] सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति
  82. [अध्याय 82] भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट
  83. [अध्याय 83] भगवान्‌की पटरानियोंके साथ द्रौपदीकी बातचीत
  84. [अध्याय 84] वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
  85. [अध्याय 85] श्रीभगवान्के का वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञान-उपदेश और देवकी के पुत्रों को लौटाना
  86. [अध्याय 86] सुभद्राहरण और भगवान्‌का राजा जनक उर श्रुतदेव ब्राह्मण के यहाँ जाना
  87. [अध्याय 87] वेदस्तुति
  88. [अध्याय 88] शिवजीका सङ्कटमोचन
  89. [अध्याय 89] भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा
  90. [अध्याय 90] भगवान् कृष्णके लीला-विहारका वर्णन