उद्धवजीने कहा- भगवन्! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरण रहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलयके कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों में स्थित है; परन्तु जिन लोगोंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते है 1-2 बड़े-बड़े ऋषि महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियोंकी परम भक्तिके साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, आप मुझसे कहिये || 3 || समस्त प्राणियोंके जीवनदाता प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपनेको गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत्के प्राणी आपकी मायासे ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते 4 अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओंमें आपके प्रभावसे युक्त जो-जो भी विभूतियों है, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो! मैं आपके उन चरण कमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो समस्त तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले हैं ॥ 5 ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव ! तुम प्रश्रका मर्म समझनेवालोंमें शिरोमणि हो जिस समय कुरुक्षेत्रमें कौरव पाण्डवोंका युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओंसे युद्धके लिये तत्पर अर्जुनने मुझसे यही प्रश्न किया था ॥ 6 ॥अर्जुनके मनमें ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियोंको मारना, और सो भी राज्यके लिये बहुत हो निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषोंके समान वह यह सोच रहा था कि में मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं। यह सोचकर वह युद्धसे उपरत हो गया ॥ 7 ॥ तब मैंने रणभूमिमें बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीर शिरोमणि अर्जुनको समझाया था। उस समय अर्जुनने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो ॥ 8 ॥ उद्धवजी ! मैं समस्त प्राणियोंका आत्मा, हितेषी सुदद और ईश्वर – नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थोंके रूपमें हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कारण भी हूँ ॥ 9 ॥ गतिशील पदार्थोंमें मैं गति हूँ। अपने अधीन करनेवालोंमें मैं काल हूँ। गुणोंमें मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ ॥ 10 ॥ गुणयुक्त वस्तुओं में क्रिया शक्तिप्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानोंमें ज्ञान शक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में जीन हूँ और कठिनाईसे वशमें होनेवालोंमें मन हूँ ॥ 11 ॥ मैं वेदोंका अभिव्यक्तिस्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रोंमें तीन मात्राओं (अ+उ+म). वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरोंमें अकार, छन्दोंमें त्रिपदा गायत्री हूँ ॥ 12 ॥ समस्त देवताओंमें इन्द्र, आठ वसुओंमें अधि, द्वादश आदित्योंमें विष्णु और एकादश रुद्रोंमें नीललोहित नामका रुद्र हूँ ।। 13 ।। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु, राजमनु देवर्थियोंमें नारद और गौओमें कामधेनु ॥ 14 ॥ सिद्धेश्व कपिल, पक्षियोंमें गरुड़, प्रजापतियोंमें दक्ष प्रजापति और पितरोंमें अर्यमा हूँ ।। 15 ।। प्रिय उद्धव मे दैत्यों यराज प्रह्लाद नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ओषधियोंमें सोमरस एवं यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर हूँ — ऐसा समझो ।। 16 ।। मैं गजराजोंमें ऐरावत, जलनिवासियोंमें उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकने वालोंमें सूर्य तथा मनुष्यों राजा हूँ ॥ 17 में घोड़ उसैःश्रवा धातुओं सोना, दण्डधारियोंमें यम और सम वासुकि ॥ 18 ॥ निष्पाप उद्धवजी मे नागराजोमे शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियोंमें उनका राजा सिंह, आश्रमोंमें संन्यास और वर्णोंमें ब्राह्मण हूँ ॥ 19 ॥मैं तीर्थ और नदियोंमें गङ्गा, जलाशयोंमें समुद्र, अस्त्र शस्त्रोंमें धनुष तथा धनुर्धरोंमें त्रिपुरारि शङ्कर हूँ ॥ 20 ॥ मैं निवासस्थानोंमें सुमेरु, दुर्गम स्थानोंमें हिमालय, वनस्पतियोंमें पीपल और धान्योंमें जौ हूँ ॥ 21 ॥ मैं पुरोहितोंमें वसिष्ठ, वेदवेत्ताओंमें बृहस्पति, समस्त सेनापतियोंमें स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकों में भगवान् ब्रह्मा हूँ ।। 22 ॥ पञ्चमहायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतोंमें अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थों में नित्यशुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ ।। 23 ।। आठ प्रकारके योगों में मैं मनोनिरोधरूप समाधि हैं। विजयके इच्छुकोंमें रहनेवाला मै मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलोंमें आत्मा और अनात्माका विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियोंमें विकल्प हूँ ।। 24 ।। मैं स्त्रियोंमें मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषोंमें स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरोंमें नारायण और ब्रह्मचारियोंमें सनत्कुमार हूँ ॥ 25 ॥ मैं धर्मेोगं कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रय के त्यागद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभयके साधनोंमें आत्मस्वरूपका अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय गोपनके साधनोंमें मधुर वचन एवं मौन हैं और स्त्री-पुरुष के जोड़ोंगे मैं प्रजापति जिनके शरीरके दो भागों से पुरुष और स्त्रीका पहला जोड़ा पैदा हुआ ।। 26 ।। सदा सावधान रहकर जागनेवालोंमें संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओंमें वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित् ॥ 27 ॥ मैं युगोमें सत्ययुग, विवेकियोंमें महर्षि देवल और असित, व्यासोंमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियोंमें मनस्वी शुक्राचार्य हूँ ।। 28 । सृष्टिकी उत्पत्ति और लय, प्राणियोंके जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्याके जाननेवाले भगवानोंमें (विशिष्ट महापुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तोंमें तुम (उद्धव), किम्पुरुषों में हनुमान्, विद्याधरोंगे सुदर्शन (जिसने अजगरके रूपमें नन्दबाबाको यस लिया था और फिर भगवान्के पादस्पर्शसे मुक्त हो गया था) मैं हूँ ॥ 29 ॥ रत्नोंमें पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओंमें कमलकी कली, तृणोंमें कुश और हविष्यों में गायका घी हूँ ॥ 30 ॥ मैं व्यापारियोंमें रहनेवाली लक्ष्मी, | छल-कपट करनेवालोंमें द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओंकी तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और साविक पुरुषोंमें रहनेवालासत्त्वगुण हूँ ॥ 31 ॥ मैं बलवानोंमें उत्साह और पराक्रम | तथा भगवद्भक्तो भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवोंकी पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध, नारायण, हयामीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा इन नौ मूर्तियों में पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ ॥ 32 ॥ मैं गन्धर्वों में विश्वावसु और अप्सराओमें ब्रह्माजी के दरबारकी अप्सरा पूर्वचिति हूँ। पर्वतोंमें स्थिरता और पृथ्वीमें शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ ।। 33 ।। मैं जलमें रस, तेजस्वियोंमें परम तेजस्वी अग्नि; सूर्य, चन्द्र और तारोंमें प्रभा तथा आकाशमें | उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ ॥ 34 ॥ उद्धवजी ! मैं ब्राह्मणभतोंमें बलि, बीरोगे अर्जुन और प्राणियोंमें उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ ॥ 35 ॥ मैं ही पैरोंमें चलनेकी शक्ति, वाणीमें बोलनेकी शक्ति, पायुमै मल त्यागकी शक्ति, हाथोंमें पकड़ने की शक्ति और जननेन्द्रियमें आनन्दोपभोगकी शक्ति है। त्वचा स्पर्शको, नेत्रोंमें दर्शनकी, रसनामें स्वाद लेनेकी, कानोंमें श्रवणकी और नासिकामे सूपनेकी शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियोंकी इन्द्रिय शक्ति मैं ही हूँ ।। 36 । पृथ्वी, वायु आकाश, जल, तेज, अहङ्कार, महत्तत्त्व, पञ्चमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म-ये सब मैं ही हूँ ॥ 37 ॥ इन तत्त्वोंकी गणना, लक्षणोंद्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है ॥ 38 ॥ यदि मैं गिनने लगें तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है ॥ 39 ॥ ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है ।। 40 उद्धवजी। मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थ वस्तु नहीं है, मनोविकारमात्र है; क्योंकि मनसे सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है ।। 41 ।।इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्दभाषणसे रोको, मनके सङ्कल्प विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपञ्चाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा ॥ 42 ॥ जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल ॥ 43 ॥ इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ॥ 44 ॥