श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अंशुमान्ने गङ्गाजीको लानेकी कामनासे बहुत वर्षोंतक घोर तपस्या की। परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गयी ॥ 1 ॥ अशुंमान्के पुत्र दिलीपने भी वैसी ही तपस्या की। परन्तु वे भी असफल ही रहे, समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीपके पुत्र थे भगीरथ । उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ॥ 2 ॥ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती गङ्गाने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि- 'मैं तुम्हें वर देनेके लिये आयी हूँ।' उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी नम्रतासे अपना अभिप्राय प्रकट किया कि 'आप मर्त्यलोकमें चलिये' ॥ 3 ॥[गङ्गाजीने कहा-] 'जिस समय मैं स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरूँ, उस समय मेरे वेगको कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ ऐसा न होनेपर मैं पृथ्वीको फोड़कर रसातलमें चली जाऊँगी ॥ 4 ॥ इसके अतिरिक्त इस कारणसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पापको कहाँ घोऊँगी। भगीरथ । इस विषयमें तुम स्वयं विचार कर लो' ॥ 5 ॥
भगीरथने कहा- 'माता ! जिन्होंने लोक परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री पुत्रकी कामनाका संन्यास कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैं—वे अपने अङ्गस्पर्शसे तुम्हारे पापोंको नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदयमें अधरूप अघासुरको मारनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं॥ 6 ॥ समस्त प्राणियोंके आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतोंमें ओतप्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान् रुद्रमें ही ओतप्रोत है' 7 ॥ परीक्षित्! गङ्गाजीसे इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान् शङ्करको प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेवजी उनपर प्रसन्न हो गये ॥ 8 ॥ भगवान् शङ्कर तो सम्पूर्ण विश्वके हितैषी हैं, राजाकी बात उन्होंने 'तथास्तु' कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गङ्गाजीको अपने सिरपर धारण किया। क्यों न हो, भगवान्के चरणोंका सम्पर्क होनेके कारण गङ्गाजीका जल परम पवित्र जो है ॥ 9 ॥ इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गङ्गाजीको वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे 10 वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पड़नेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गङ्गाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गङ्गासागर-सङ्गमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा दिया ॥ 11 ॥ यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न था—फिर भी केवल शरीरकी) राखके साथ गङ्गाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ॥ 12 ॥ परीक्षित् ! जब गङ्गाजलसे शरीरकी राखका स्पर्श हो जानेसे सगर के पुत्रको स्वर्गकी प्राप्ति हो गयी तब जो लोग श्रद्धा साथ नियम लेकर श्रीजीका सेवन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ 13 ॥मैने गङ्गाजीकी महिमाके सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि गङ्गाजी भगवान्के उन चरणकमलोंसे निकली है, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणोंके कठिन बन्धनको काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गङ्गाजी संसारका बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ll 14-15 ll
भगीरथका पुत्र था श्रुत, श्रुतका नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नामसे भिन्न है। नाभका पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीपका अयुतायु अयुतायुके पुत्रका नाम था ऋतुपर्ण। वह नलका मित्र था। उसने नलको पासा फेंकनेकी विद्याका रहस्य बतलाया था और बदलेमें उससे अश्वविद्या सीखी थी ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ ।। 16-17 ॥ परीक्षित् । सर्वकामके पुत्रका नाम था सुदास । सुदासके पुत्रका नाम था सौदास और सौदासकी पत्नीका नाम था मदयन्ती सौदासको ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मोंक कारण सन्तानहीन हुआ ॥ 18 ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा भगवन्! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदासको गुरु वसिष्ठजीने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ॥ 19 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईको मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया । 20-21 ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि 'जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा ॥ 22 ॥जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका है राजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्ष के लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिमें जल लेकर गुरु वसिष्टको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ।। 23 ।। परन्तु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि 'दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़े ?' अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम 'मित्रसह' हुआ] ॥ 24 ॥ उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम 'कल्माषपाद' भी हुआ। अब ये राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ।। 25 ।। कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्रीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा- 'राजन्! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकुवंश और महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएं अभी पूर्ण नहीं हुई है इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ 26-27 ॥ राजन्| यह मनुष्य शरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोकी प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये बीर । इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ।। 28 । फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ।। 29 ।। राजन् | आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभांति जानते है। जैसे पिके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप जैसे श्रेष्ठ राजर्षि हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षिपतिका यथ किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ 30 ॥ आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं वादी पतिका मकैसे ठीक समझ रहे हैं? ये तो मौके समान निरीह है ।। 31 ।। फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह ॥ 32 ॥नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस | प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परन्तु सौदासने | शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और यह उस ब्राह्मणको वैसे ही रखा गया, जैसे बाघ किसीपशुको खा जाय ॥ 33 ॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने | मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणीने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ॥ 34 ॥ रे पापी! मैं अभी कामसे पीड़ित हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तूने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ' ॥ 35 ॥ इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हुई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोड़कर और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ 36 ॥
बारह वर्ष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मुक्त हो गये । जब वे सहवासके लिये अपनी पत्नीके पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणीके शापका पता था ॥ 37 ॥ इसके बाद उन्होंने स्त्री-सुखका बिलकुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्मके फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजीने उनके कहनेसे मदयन्तीको गर्भाधान कराया ।। 38 ।। मदयन्ती सात वर्षतक गर्भ धारण किये रही, परन्तु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठजीने पत्थरसे उसके पेटपर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोटसे पैदा होनेके कारण 'अश्मक' कहलाया ॥ 39 ॥ अश्मकसे मूलकका जन्म हुआ। जब परशुरामजी पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियोंने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम 'नारीकवच' भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वीके क्षत्रियहीन हो जानेपर उस वंशका मूल (प्रवर्तक) बना ॥ 40 ॥ मूलकके पुत्र हुए दशरथ, दशरथके ऐडविड और ऐडविडके राजा विश्वसह। विश्वसहके पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वाङ्ग हुए 41 ॥ युद्धमें उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। जब उन्हें देवताओंसे यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उन्होंने भगवान्में लगा दिया ।। 42 ।। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि 'मेरे कुलके इष्ट देवता हैं ब्राह्मण ! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणोंपर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ॥ 43 || मेरा मन बचपनमें भी कभी अधर्मकी ओर नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान्के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी ॥। 44 ।।तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंने मुझे मुँहमाँगा वर देने को कहा। परन्तु मैने उन भोगोंकी लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियोंके जीवनदाता श्रीहरिकी भावनामें ही मैं मग्न हो रहा था ॥ 45 ॥ जिन देवताओंकी इन्द्रियाँ और मन विषयोंमें भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुणप्रधान होनेपर भी अपने हृदयमें विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतमके रूपमें रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप भगवान्को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं 46 इसलिये अब इन विषयोंमें मैं नहीं रमता। ये तो मायाके खेल हैं। आकाशमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरोंसे बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्तपर चढ़ गये थे। संसारके सच्चे रचयिता भगवान्की भावनामें लीन होकर मैं विषयोंको छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हींकी शरण ले रहा हूँ ॥ 47 ॥ परीक्षित्! भगवान्ने राजा खट्वाङ्गकी बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्तसमय में ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमें जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये ॥ 48 ॥ वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्यके समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है । भक्तजन उसी वस्तुको | 'भगवान् वासुदेव' इस नामसे वर्णन करते हैं ॥ 49 ॥