श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! महाराज भरत बड़े ही भगवद्भक्त थे। भगवान् ऋषभदेवने अपने संकल्पमात्रसे उन्हें पृथ्वीकी रक्षा करनेके लिये नियुक्त कर दिया। उन्होंने उनकी आज्ञामें स्थित रहकर विश्वरूपको कन्या पञ्चजनीसे विवाह किया ।। 1 ।। जिस प्रकार तामस अहङ्कारसे शब्दादि पाँच भूततन्मात्र उत्पन्न होते हैं— उसी प्रकार पजनी गर्भ उनके सुमति राष्ट्रभू सुदर्शन, आवरण और धूमकेतु नामक पाँच पुत्र हुए जो था उन्होंके समान थे। इस वर्षको, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरतके समयसे ही 'भारतवर्ष' कहते हैं ।। 2-3 ।।
महाराज भरत बहुज्ञ थे। वे अपने-अपने कर्मों में लगी हुई प्रजाका अपने बाप-दादोंके समान स्वधर्ममें स्थित रहते हुए अत्यन्त वात्सल्यभावसे पालन करने लगे ॥4॥ उन्होंने होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा - इन चार ऋत्विजों द्वारा कराये जानेवाले प्रकृति और विकृति* दोनों प्रकारके अग्रिहोत्र, दर्श, पूर्णमास चातुर्मास्य, पशु और सोम आदि छोटे-बड़े ऋतुओं (यज्ञों) से यथासमय श्रद्धापूर्वक यज्ञ और क्रतुरूप श्रीभगवान्का यजन किया ।। 5 ।। इस प्रकार अङ्ग और क्रियाओंके सहित भिन्न-भिन्न योंके अनुष्ठानके समयजब अध्वर्युगण आहुति देनेके लिये हवि हाथमें लेते, तो यजमान | भरत उस यज्ञकर्मसे होनेवाले पुण्यरूप फलको यज्ञपुरुष भगवान् वासुदेवके अर्पण कर देते थे। वस्तुतः वे परब्रह्म ही इन्द्रादि समस्त देवताओंके प्रकाशक, मन्त्रोंके वास्तविक प्रतिपाद्य तथा उन देवताओंके भी नियामक होनेसे मुख्य कर्ता एवं प्रधान देव हैं। इस प्रकार अपनी भगवदर्पण बुद्धिरूप कुशलतासे हृदयके राग द्वेषादि मलोंका मार्जन करते हुए वे सूर्यादि सभी यज्ञभोक्ता देवताओंका भगवान्के नेत्रादि अवयवोंके रूपमें चिन्तन करते थे ॥ 6 ॥ इस तरह कर्मकी शुद्धिसे उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। तब उन्हें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान, हृदयाकाशमें ही अभिव्यक्त होनेवाले, ब्रह्मस्वरूप एवं महापुरुषोंके लक्षणोंसे उपलक्षित भगवान् वासुदेवमें- जो श्रीवत्स, कौस्तुभ, वनमाला, चक्र, शङ्ख और गदा आदिसे सुशोभित तथा नारदादि निजजनोंके हृदयों में चित्रके समान निश्चलभावसे स्थित रहते हैं— दिन-दिन वेग पूर्वक बढ़नेवाली उत्कृष्ट भक्ति प्राप्त हुई || 7 | इस प्रकार एक करोड़ वर्ष निकल जानेपर उन्होंने राज्यभोगका प्रारब्ध क्षीण हुआ जानकर अपनी भोगी हुई | वंशपरम्परागत सम्पत्तिको यथायोग्य पुत्रोंमें बाँट दिया। फिर अपने सर्वसम्पत्तिसम्पन्न राजमहलसे निकलकर वे पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में चले आये ॥ 8 ॥ इस पुलहाश्रममें रहनेवाले भक्तोंपर भगवान्का बड़ा ही वात्सल्य है। वे आज भी उनसे उनके इष्टरूपमें मिलते रहते हैं ॥ 9 ॥ वहाँ चक्रनदी (गण्डकी) नामकी प्रसिद्ध सरिता चक्राकार शालग्राम शिलाओंसे, जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर नाभिके समान चिह्न होते हैं, सब ओरसे ऋषियोंके आश्रमोंको पवित्र करती रहती है ॥ 10 ॥
उस पुलहाश्रमके उपवनमें एकान्त स्थानमें अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकारके पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल फलादि उपहारोंसे भगवान्की आराधना करने लगे। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओंसे निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ॥ 11 ॥ इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान्की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेमका वेग बढ़ता गया जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, | आनन्दके प्रबल वेगसे शरीरमें रोमाञ्च होने लगा तथा उत्कण्ठाके कारण नेत्रोंमें प्रेमके आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी। अन्तमें जब अपने प्रियतमके अरुण चरणारविन्दोके ध्यानसे भक्तियोगका आविर्भाव हुआ, तब परमानन्दसे सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवरमें बुद्धिके डूब जानेसे उन्हें उस नियमपूर्वक की जानेवाली भगवत्पूजाका भी स्मरण न रहा ।। 12 ।। इस प्रकार वे भगवत्सेवाके नियममें ही तत्पर रहते थे, शरीरपर कृष्णमृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकालस्नानकेकारण भीगते रहने से उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटोंमें परिणत | हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे। वे उदित हुए सूर्यमण्डलमें सूर्यसम्बन्धिनी ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्मय परमपुरुष भगवान् नारायणकी आराधना करते और इस प्रकार कहते ॥ 13 ॥ 'भगवान् सूर्यका कर्मफलदायक तेज प्रकृतिसे परे है। उसीने सङ्कल्पद्वारा इस जगत्की उत्पत्ति की है। फिर वही अन्तर्यामीरूपसे इसमें प्रविष्ट होकर अपनी चित्-शक्तिद्वारा विषयलोलुप जीवोंकी रक्षा करता है। हम उसी बुद्धिप्रवर्त्तक | तेजकी शरण लेते हैं ll
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