श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजम दम, तप, स्वाध्याय, वेदाध्ययन, त्याग (अतिथि आदिको अन देना), सन्तोष, तितिक्षा, विनय, विद्या (कर्मविद्या), अनसूया (दूसरोंके गुण दोष न ढूंढ़ना) आमशन (आपके क और भोक्तृत्वका ज्ञान) एवं आनन्द (धर्मपालनजनित सुख) सभी गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। उनकी बड़ी स्त्रीसे उन्होंके समान विद्या, शील, आचार, रूप और उदारता आदि गुणोंवाले नौ पुत्र हुए तथा छोटी पत्नीसे एक ही साथ एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ ॥ 1 ॥ इन दोनोंमें जो पुरुष था वह परम भागवत राजर्षिशिरोमणि भरत ही थे। वे मृगशरीरका परित्याग करके अन्तिम जन्ममें ब्राह्मण हुए थे ऐसा महापुरुषोंका कथन है॥ 2 ॥ इस जन्ममें भी भगवान्की कृपासे अपनी पूर्व जन्मपरम्पराका स्मरण रहनेके कारण, वे इस आशङ्कासे कि कहीं फिर कोई विघ्न उपस्थित न हो जाय, अपने स्वजनोंके सङ्गसे भी बहुत डरते थे। हर समय जिनका श्रवण, स्मरण और गुणकीर्तन सब प्रकार के कर्मबन्धनको काट देता है, श्रीभगवान्के उन युगल चरणकमलोंको ही हृदयमें धारण किये रहते तथा | दूसरोंकी दृष्टिमें अपनेको पागल, मूर्ख, अंधे और बहरेके समान दिखाते ॥ 3 ॥ पिताका तो उनमें भी वैसा ही स्नेह था। इसलियेब्राह्मणदेवताने अपने पागल पुत्रके भी स् समावर्तनपर्यन्त विवाह पूर्वक सभी संस्कार करनेके विचारसे उनका उपनयनसंस्कार किया। यद्यपि वे चाहते नहीं थे तो भी 'पिताका कर्तव्य है कि पुत्रको शिक्षा दें इस शास्त्रविधिके अनुसार उन्होंने इन्हें शौच आचमन आदि | आवश्यक कर्मोकी शिक्षा दी ॥ 4 ॥ किन्तु भरतजी तो | पिताके सामने ही उनके उपदेशके विरुद्ध आचरण करने | लगते थे। पिता चाहते थे कि वर्षाकालमें इसे वेदाध्ययन आरम्भ करा दूँ। किन्तु वसन्त और ग्रीष्मऋतुके चैत्र, बैस, ज्येष्ठ और आषाढ़ चार महीनौतक पढ़ाने वैशाख, | रहनेपर भी वे इन्हें व्याहति और शिरोमन्त्रप्रणवके सहित त्रिपदा गायत्री भी अच्छी तरह याद न करा सके ॥ 5 ॥
ऐसा होनेपर भी अपने इस पुत्रमें उनका आत्माके समान अनुराग था इसलिये उसकी प्रवृत्ति न होनेपर भी वे 'पुत्रको अच्छी तरह शिक्षा देनी चाहिये इस अनुचित आपसे उसे शौच, वेदाध्ययन, व्रत, नियम तथा गुरु और अग्रिकी सेवा आदि ब्रह्मचर्याश्रमके आवश्यक नियमोंकी शिक्षा देते ही रहे। किन्तु अभी पुत्रको सुशिक्षित देखनेका उनका मनोरथ पूरा न हो पाया था और स्वयं भी भगवद्भजनरूप अपने मुख्य कर्तव्यसे असावधान रहकर | केवल घरके धंधोंमें ही व्यस्त थे कि सदा सजग रहनेवाले कालभगवान्ने आक्रमण करके उनका अन्त कर दिया || 6 || तब उनकी छोटी भार्या अपने गर्भसे उत्पन्न हुए दोनों बालक अपनी सौतको सौंपकर स्वयं सती होकर पतिलोकको चली गयी ॥ 7 ॥
भरतजीके भाई कर्मकाण्डको सबसे श्रेष्ठ समझते थे। वे ब्रह्मज्ञानरूप पराविद्यासे सर्वथा अनभिज्ञ थे। इसलिये उन्हें भरतजीका प्रभाव भी ज्ञात नहीं था, वे उन्हें निरा मूर्ख समझते थे अतः पिताके परलोक सिधारनेपर उन्होंने उन्हें पढ़ाने लिखानेका आग्रह छोड़ दिया ॥ 8 ॥ भरतजीको मानापमानका कोई विचार न था। जब साधारण नर पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर | पुकारते तब वे भी उसीके अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इनके अनुसार कर देते। बेगारके रूपमें, मजदूरीके रूपये, माँगनेपर अथवा बिना माँगे जो भी थोड़ा-बहुतअच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसीको जीभका जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होनेवाला स्वतः सिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था, इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्द्वोंसे होनेवाले सुख-दुःखादिमें उन्हें देहाभिमानकी स्फूर्ति नहीं होती थी ॥ 9 ॥ वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आंधीके समय साँड़के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अङ्गहृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वीपर ही पड़े रहते थे, कभी तेल उबटन आदि नहीं लगाते थे और | कभी खान ही करते थे, इससे उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। उनका ब्रह्मतेज धूलिसे ढके हुए मूल्यवान् मणिके समान छिप गया था। वे अपनी कमरमे एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता 'यह कोई द्विज है', 'कोई अधम ब्राह्मण है' ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे ॥ 10 ॥ दूसरोंकी मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयोंने खेतकी क्यारियाँ ठीक करनेमें लगा दिया तब वे उस कार्यको भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बातका कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियोंकी भूमि समतल है या ऊँची-नीची, अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावलकी कनी, खली, भूसी, धुने हुए उड़द अथवा बरतनोंमें लगी हुई जले अन्नको खुरचन—जो कुछ भी दे देते, उसीको वे अमृतके समान खा लेते थे ॥ 11 ॥
किसी समय डाकुओंके सरदारने, जिसके सामन्त शूद्र जातिके थे, पुत्रकी कामनासे भद्रकालीको मनुष्यकी बलि देनेका संकल्प किया ॥ 12 ॥ उसने जो पुरुष पशु बलि देनेके लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदेसे निकलकर भाग गया। उसे ढूँढ़नेके लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रातमें आधी रातके समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोगसे अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आङ्गिरसगोत्रीय ब्राह्मणकुमारपर पड़ी, जो वीरासनसे बैठे हुए मृग-वराहादि जीवोंसे खेतोंकी रखवाली कर रहे थे ।। 13 ।। उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणोंवाला है, इससे हमारे स्वामीका कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्दसे खिल उठा और वे उन्हें रस्सियोंसे बाँधकर चण्डिकाके मन्दिरमें ले आये ।। 14 ।।
तदनन्तर उन चोरोंने अपनी पद्धतिके अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकारके आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदिसे विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील,पते अङ्कर और फल आदि उपहार सामग्री सहित दिनक विधिसे गान स्तुति और मृद एवं बोल आदिका महान शब्द करते उस पुरुष पशुको भद्रकालीके सामने नीचा सिर करके बैठा | दिया ॥ 15 ॥ इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर- पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करने के लिये देवी अभिमन्त्रित एक तोक्ष्ण खड्ग उठाया ।। 16 ।।
चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही. धनके मद उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामे भी उनको स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान् के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दता कुमार्गको ओर ब थे आपतिकालमे भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है 1 उसमें भी ब्राह्मण वधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियों के सुहृद एक ब्रह्मर्षिकुमारको बलि देना चाहते थे। यह भयङ्कर कुकर्म देखकर देवो भद्रकालीके शरीरमें अति दुःसह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं ॥ 17 ॥ अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनको भी बड़ी हुई थी तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित खड्गसे ही उन सारे पापियोंके सिर उड़ा दिये और अपने गणोंके सहित उनके गलेसे बहता हुआ गरम-गरम रुधिररूप आसव पोकर अति उन्मत्त हो ऊँचे स्वरसे गाती और नाचती हुई उन सिरोको ही गेंद बनाकर खेलने लगीं ॥ 18 ॥ सच है, महापुरुषोंके प्रति किया हुआ अत्याचाररूप अपराध इसी प्रकार ज्यों-का-त्यो अपने ही ऊपर पड़ता है ॥ 19 ॥ परीक्षित्! जिनको | देहाभिमानरूप सुदृढ़ हृदयग्रन्थि छूट गयी है, जो समस्त प्राणियों के सुहृद एवं आत्मा तथा वैरहीन हैं, साक्षात् भगवान् ही भद्रकाली आदि भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपने कभी न चूकनेवाले कालचक्ररूप श्रेष्ठ शस्त्रसे जिनकी रक्षा करते हैं और जिन्होंने भगवान्के निर्भय चरणकमलोका आश्रय ले रखा है-उन भगवद्भक्त परमहंसोंके लिये अपना सिर कटनेका अवसर आनेपर भी किसी प्रकार व्याकुल न होना-यह कोई बड़े आश्चर्यकी बात नहीं है ॥ 20 ॥