श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । वितथ अथवा भरद्वाजका पुत्र था मन्यु। मन्युके पाँच पुत्र हुए बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग नरका पुत्र था संकृति ॥ 1 ॥ संकृतिके दो पुत्र हुए- गुरु और रन्तिदेव । परीक्षित्! रन्तिदेवका निर्मल यश इस लोक और परलोकमें सब जगह गाया जाता है॥ 2 ॥ रन्तिदेव आकाशके समान बिना उद्योगके ही दैववश प्राप्त वस्तुका उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह परिग्रह, ममतासे रहित तथा बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्बके साथ दुःख भोग रहे थे || 3 || एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानीतक पीनेको न मिला। उनचासवें दिन प्रातःकाल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला ॥ 4 ॥ उनका परिवार बड़े सङ्कटमें था। भूख और प्यासके मारे थे लोग काँप रहे थे। परन्तु ज्यों ही उन लोगोंने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आ गया ॥ 5 ॥ रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान् के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धासे आदरपूर्वक उसी आपसे ब्राह्मणको भोजन कराया। ब्राह्मणदेवता भोजन करके चले गये ॥ 6 ॥
परीक्षित्! अब बचे हुए अन्नको रन्तिदेवने आपसमें बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेवने भगवान्का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अनमेंसे भी कुछ भाग शूद्रके रूपमें आये अतिथिको खिला दिया ॥ 7 ॥जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तोंको लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा- 'राजन्! मैं और मेरे | ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खानेको दीजिये ॥ 8 ॥ रन्तिदेवने अत्यन्त आदरभावसे, जो कुछ बच रहा था, सब का सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कृते और कुत्तोंके स्वामीके रूपमें आये हुए भगवान्को नमस्कार किया ।। ।। अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी | केवल एक मनुष्यके पीनेभरका था। वे उसे आपस में वॉटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा- 'मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये ॥ 10 ॥ चाण्डालकी वह करुणापूर्ण वाणी जिसके उच्चारणमें भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दयासे अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहने लगे ॥ 11 ॥ 'मैं भगवान् से आठों सिद्धियोंसे युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्षको भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियोंकि हृदयमें स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख में ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणीको दुःख न हो ॥ 12 ॥ यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देनेसे इसके जीवनकी रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यासकी पीड़ा, शरीरको शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विपाद और मोह-ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया ॥ 13 ॥ इस प्रकार कहकर रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको दे दिया। यद्यपि जलके बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभावसे ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपनेको रोक न सके। उनके धैर्यकी भी कोई सीमा है ? 14 परीक्षित् ये अतिथि वास्तवमे भगवान्को रची हुई मायाके ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जानेपर अपने अभिलाषा पूर्ण करनेवाले त्रिभुव ब्रह्मा, विष्णु और महेश- तीनों उनके सामने प्रकट हो गये ॥ 15 रन्तिदेवने उनके चरणोंमें नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान्की कृपासे वे आसक्ति और स्पृहासे भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिभावसे | अपने मनको भगवान् वासुदेवमें तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं ॥ 16 ॥ परीक्षित्! उन्हें भगवान्के सिवा और किसी भी वस्तुकी इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मनको पूर्वरूपसे भगवान लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी मा जागनेपर स्वप्न दृश्यके समान नष्ट हो गयी ॥ 17 ॥रन्तिदेवके अनुयायी भी उनके सदके प्रभावसे योगी हो गये और सब भगवान्के ही आश्रित परम भक्त बन गये ।। 18 ।।
मन्युपुत्र गर्गसे शिनि और शिनिसे गार्ग्यका जन्म हुआ यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मणवंश चला। महावीर्यका पुत्र था दुरितक्षय दुरितक्षयके तीन पुत्र हुए — त्रय्यारुणि, कवि और पुष्करारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्रका पुत्र हुआ हस्ती, उसीने हस्तिनापुर बसाया था । 19-20 ॥ हस्तीके तीन पुत्र थे— अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ अजमीढके पुत्रों में प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए ॥ 21 ॥ इन्हीं अजमीढके एक पुत्रका नाम था बृहदिषु। बृहदिषुका पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनुका बृहत्काय और बृहत्कायका जयद्रथ हुआ ॥ 22 ॥ जयद्रथका पुत्र हुआ विशद और विशदका सेनजित्। सेनजितके चार पुत्र हुए— रुचिराश्व, दृढहनु, | काश्य और वत्स ।। 23 ॥ रुचिराश्वका पुत्र पार था और पारका पृथुसेन । पारके दूसरे पुत्रका नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे ।। 24 ।। इसी नीपने (छाया) शुककी कन्या कृत्वीसे विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ 25 ॥ इसी विष्वक्सेनने जैगीषव्यके उपदेशसे योगशास्त्रकी रचना की। विष्वक्सेनका पुत्र था उदक्स्वन और उदकस्वनका भल्लाद। ये सब बृहदिषुके वंशज हुए ।। 26 ।। । *
द्विमीढका पुत्र था यवीनर, यवीनरका कृतिमान्, कृतिमान्का सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढनेमि और दृढनेमिका पुत्र सुपार्थ हुआ ॥ 27 ॥ सुपार्थसे सुमति, सुमतिसे सप्रतिमान् और सत कृतिका जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभसे योगविद्या प्राप्त की थी और'प्राच्यसाम' नामक ऋचाओंकी छः संहिताएँ कही थीं। कृतिका पुत्र नीप था, नीपका उग्रायुध, उग्रायुधका क्षेम्य, क्षेम्यका सुवीर और सुवीरका पुत्र था रिपुञ्जय ।। 28-29 ॥ | रिपुञ्जयका पुत्र था बहुरथ । द्विमीढके भाई पुरुमीढको कोई सन्तान न हुई। अजमीढकी दूसरी पत्नीका नाम था | नलिनी। उसके गर्भसे नीलका जन्म हुआ। नीलका शान्ति, शान्तिका सुशान्ति, सुशान्तिका पुरुज, पुरुजका 'अर्क और अर्कका पुत्र हुआ भर्म्याश्व । भर्म्याश्वके पाँच पुत्र थे- मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु काम्पिल्य और सञ्जय । भर्म्याश्वने कहा- 'ये मेरे पुत्र पाँच देशोंका शासन करनेमें समर्थ (पञ्च अलम्) हैं।' इसलिये ये 'पञ्चाल' नामसे प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गलसे 'मौद्गल्य' नामक ब्राह्मणगोत्रकी प्रवृत्ति हुई । 30 – 33 ॥
भर्म्याश्वके पुत्र मुद्गलसे यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुई। उनमें पुत्रका नाम था दिवोदास और कन्याका अहल्या । अहल्याका विवाह महर्षि गौतमसे हुआ। गौतमके पुत्र हुए शतानन्द ॥ 34 ॥ शतानन्दका पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण था। सत्यधृतिके पुत्रका नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशीको देखनेसे शरद्वान्का वीर्य मूँजके झाड़पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षणवाले पुत्र और पुत्रीका जन्म हुआ। महाराज शन्तनुकी उसपर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर | शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनोंको उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी यही कृपी द्रोणाचार्यकी पत्नी हुई ।। 35-36 ॥