श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! देहाभिमानी जीवोंके द्वारा सत्त्वादि गुणोंके भेदसे शुभ, अशुभ और मिश्र - तीन प्रकारके कर्म होते रहते हैं। उन कर्मो के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकारके शरीरोंके साथ होनेवाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीवको प्राप्त होता है, | उसके अनुभवके छः द्वार हैं— मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ । | उनसे विवश होकर यह जीवसूह मार्ग भूलकर भयङ्करवनमें भटकते हुए धनके लोभी बनिजारोंके समान परमसमर्थ भगवान् विष्णुके अश्रित रहनेवाली मायाकी प्रेरणासे बीहड़ बनके समान दुर्गम मार्गमें पड़कर संसार-वनमें जा पहुँचता है। यह वन श्मशानके समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते अपने शरीरसे किये हुए कमौका फल भोगना पड़ता है। यहाँ | अनेको वियोंके कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती तो भी यह उसके श्रमको शान्त करनेवाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द मकरन्द-मधुके रसिक भक्त-भ्रमरोके मार्गका अनुसरण नहीं करता। इस संसार वनमें मनसहित छः इन्द्रियाँ ही अपने कर्मोंकी दृष्टिसे डाकुओंके समान हैं ॥ 1 ॥ पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्ममें होना चाहिये यही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुषकी आराधना के रूपमें होता है तो उसे परलोकमें निःश्रेयसका हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्यका बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वशमें नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धनको ये मनसहित छः इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूचना, सङ्कल्प-विकल्प करना और निश्चय करना इन वृतियोंके द्वारा गृहस्थोचित विषयभोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती हैं, जिस प्रकार बेईमान मुखियाका अनुगमन करनेवाले एवं असावधान बनिजारोंके दलका धन चोर डाकू लूट ले जाते हैं॥ 2 ॥ ये ही नहीं, उस संसार बनमें रहनेवाले उसके कुटुम्बी भी — जो नामसे तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेड़ियों और गोदड़ों के समान होते हैं- उस अर्थलोलुप कुटुम्बीके धनको उसकी इच्छा न रहनेपर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेड़िये गड़रियोंसे सुरक्षित भेड़ोंको उठा ले जाते हैं॥ 3 ॥ जिस प्रकार यदि किसी खेतके बीजोंको अग्निद्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष | जोतनेपर भी खेतीका समय आनेपर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदिसे गहन हो जाता है—उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कमका सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओंकी पिटारी है ll 4 ll
उस गृहस्थाश्रममें आसक्त हुए व्यक्तिके धनरूप बाहरी | प्राणोंको डांस और मच्छरोंके समान नीच पुरुषोंसे तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदिसे क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्गमें भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कमसे कलुषित हुए अपने चित्तसे दृष्टिदोषके कारण इस मर्त्यलोकको, जो गन्धर्वनगर के समान असत् है, सत्य समझने लगता है ॥ 5 ॥ फिर खान-पान और स्त्री-प्रसङ्गादि व्यसनोंमें फँसकर मृगतृष्णाकेसमान मिथ्या विषयोंकी ओर दौड़ने लगता है॥ 6 ॥ कभी बुद्धिके रजोगुणसे प्रभावित होनेपर सारे अनथकी जड़ अग्रिके
मलरूप सोने को ही सुखका साधन समझकर उसे पानेके लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वनमें जागे ठिठुरता हुआ पुरुष अधिके लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाचकी (अगिया बेतालको) ओर उसे आग समझकर दौड़े ॥ 7 ॥ कभी इस शरीरको जीवित रखनेवाले घर, अन्न-जल और धन आदिमें अभिनिवेश करके इस संसाररण्य में इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है ॥ 8 ॥ कभी बवंडरके समान आंखोंमें धूल झोंक देनेवाली स्त्री गोदमे बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषोंकी मर्यादाका भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रोंमें रजोगुणकी धूल भर जानेसे बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मोंकि साक्षी दिशाओंके | देवताओंको भी भुला देता है ॥ 9 ॥ कभी अपने आप ही एकाध बार विषयोंका मिथ्यात्व जान लेनेपर भी अनादिकालसे देहमें आत्मबुद्धि रहनेसे विवेक-बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण उन मस्मरीचिकातुल्य विषयोंकी ओर ही फिर दौड़ने लगता है ॥ 10 ॥ कभी प्रत्यक्ष शब्द करनेवाले उल्लूके समान शत्रुओंकी और परोक्षरूपसे बोलनेवाले झाँगुरोंके समान राजाको अति कठोर एवं दिलको दहला देनेवाली डरावनी डॉटइसे इसके कान और मनको बड़ी व्यथा होती है ।। 11 ।।
पूर्वपुण्य क्षीण हो जानेपर यह जीवित ही मुर्देके समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलोंवाले पापवृक्षों, इसी प्रकारको दूषित लताओं और विषैले कुओंके समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनोंके ही काममें नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्देके समान हैं—उन कृपण पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥ 12 ॥ कभी असत् पुरुषोंके सङ्गसे बुद्धि बिगड़ जानेके कारण सूखी नदीमें गिरकर दुःखी होनेके समान इस लोक और परलोकमें दुःख देनेवाले पाखण्डमें फँस जाता है ।। 13 ।। जब दूसरोंको सतानेसे उसे अत्र भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रोंको अथवा पिता या पुत्र आदिका एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खानेके लिये तैयार हो जाता है। 14 ।। कभी दावानलके समान प्रिय विषयोंसे शून्य एवं परिणाममें दुःखमय घरमें पहुंचता है, तो वहाँ इष्टजनोंके वियोगादिसे उसके शोककी आग भड़क उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है ॥ 15 ॥ कभी कालके समान भयङ्करराजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धन-रूप प्राणोंको हर लेता है, तो यह मरे हुएके समान निर्जीव हो जाता है ॥ 16 ॥ कभी मनोरथके पदार्थोंक समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धोंको सत्य समझकर उनके सहवाससे स्वप्रके समान है क्षणिक सुखका अनुभव करता है ॥ 17 ॥ गृहस्थाश्रमके लिये जिस कर्मविधिका महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वतकी कड़ी चढ़ाईके समान ही है। लोगोंको उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखा-देखी जब यह भी उसे पूरा करनेका प्रयत्न करता है, तब तरह-तरहकी कठिनाइयों से क्रेशित होकर काँटे और कंकड़ोंसे भरी भूमिमें पहुँचे हुए व्यक्तिके समान दुखी हो जाता है ।। 18 ।। कभी पेटकी असह्य ज्वालासे अधीर होकर अपने कुटुम्बपर ही बिगड़ने लगता है ।। 19 । फिर जब निद्रारूप अजगरके चंगुल में फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकारमें डूबकर सूने वनमें फेंके हुए मुर्देके समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बातकी सुधि नहीं रहती ॥ 20 ॥
कभी दुर्जनरूप काटनेवाले जीव इतना कट तिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरोंको काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्तिके कारण नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदनाके कारण क्षण-क्षणमें विवेक शक्ति क्षीण होते रहनेसे अन्तमें अंधेकी भाँति यह नरकरूप अंधे कुएँमें जा गिरता है ॥ 21 ॥ कभी विषयसुखरूप मधुकणोंको ढूंढते ढूँढते जब यह लुक-छिपकर परस्त्री या परधनको उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजाके हाथसे मारा जाकर ऐसे नरकमें जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है ।। 22 । इसीसे ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्गमे रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकारके कर्म जीवको संसारकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ 23 ॥ यदि किसी प्रकार राजा आदिके बन्धन से छूट भी गया, तो अन्यायसे अपहरण किये हुए उन स्त्री और धनको देवदत्त नामका कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नामका कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुषसे दूसरे पुरुषके पास जाते रहते हैं, एक स्थानपर नहीं ठहरते ॥ 24 ॥ कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखक स्थितियोंके निवारण करनेमें समर्थ न होनेसे यह अपार चिन्ताओंके कारण उदास हो जाता है ।। 25 ।। कभी परस्पर लेन-देनका व्यवहार करते समय किसी दूसरेका थोड़ा-सादमड़ीभर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बेईमानीक कारण उससे वैर टन जाता है ।। 26 ।।
राजन्। इस मार्ग पूर्वोक्त विघ्नोंके अतिरिक्त सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उत्पाद, शेक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, सुधा पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न है ॥ 27 ॥ (इस विनबहुल मार्गमें इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमाया रूपिणी के बाहुपाश पड़कर विवेकहीन हो जाता है। तब उसीके लिये विहारभवन आदि बनवानेकी चिन्तामें |ग्रस्त रहता है तथा उसीके आश्रित रहनेवाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियोंके मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओंमें आसक्त होकर, उन्हींमें चित फँस जानेसे वह इन्द्रियोंका दास अपार अन्धकारमय नरकोंमें गिरता है ।। 28 ।।
कालचक्र साक्षात् भगवान् विष्णुका आयुध है। वह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त घरी आदि युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलनेवाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतोंका निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गतिमें बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना छोड़कर यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेरके समान अर्थशास्त्र- बहिष्कृत देवताओंका आश्रय लेता है-जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमोंने ही उल्लेख किया है ।। 29 ।। ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखेमें है; जब यह भी उनकी ठगाईमें आकर दुःखी होता है, तब ब्राह्मणोंकी शरण लेता है। किन्तु उपनयन संस्कारके अनन्तर श्रौतस्मार्तकमोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता, इसलिये | वेदोक्त आचारके अनुकूल अपनेमें शुद्धि न होने के कारण यह कर्म-शून्य शूद्रकुल प्रवेश करता है, जिसका भाव | वानरोंके समान केवल कुटुम्बपोषण और स्त्रीसेवन करना ही है ।। 30 ।। वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहारकरनेसे इसकी बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरे का मुख देखना आदि विषय-भोगोंमें फँसकर इसे अपने मृत्युकालका भी स्मरण नहीं होता ।। 31 ।। वृक्षोंके समान जिनका लौकिक सुख ही फल है उन घरोंमें ही सुख मानकर वानरोंकी भाँति स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगोंमें ही बिता देता है ।। 32 ।।
इस प्रकार प्रवृत्तिमार्गमें पड़कर सुख-दुःख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरि-गुहामे फँसकर उसमें रहनेवाले मृत्युरूप हाथीसे डरता रहता है ।। 33 ।। कभी-कभी शीत, वायु आदि | अनेक प्रकारके अधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखोकी निवृत्ति करनेमें जब असफल हो जाता है, तब उस है समय अपार विषयोंकी चिन्तासे यह खिन्न हो उठता है ।। 34 ।। कभी आपस में क्रय-विक्रय आदि व्यापार करनेपर बहुत कंजूसी करनेसे इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है ॥ 35 ॥ कभी धन नष्ट हो जानेसे जब इसके पास सोने, बैठने और खाने आदिको भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिलनेसे यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायोंसे पानेका निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरोंके हाथसे बहुत अपमानित होना पड़ता है ।। 36 । इस प्रकार धनकी आसक्तिसे परस्पर वैरभाव बढ़ जानेपर भी यह अपनी पूर्ववासनाओंसे विवश होकर आपसमें विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है ।। 37 ।। इस संसारमार्गमें चलनेवाला यह जीव अनेक प्रकारके फ्रेश और विघ्न-बाधाओंसे बाधित होनेपर भी मार्गमें जिसपर जहाँ आपत्ति आती है, अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ | देता है; तथा नये जन्मे हुओंको साथ लगाता है, कभी किसीके लिये शोक करता है, किसीका दुःख देखकर मूर्च्छित हो जाता है. किसीके वियोग होने की आशङ्कासे भयभीत हो उठता है, किसीसे झगड़ने लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने चिल्लाने लगता है, कहीं कोई मनके अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नताके मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी उन्होंके लिये बंधने में भी नहीं हिचकता साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधुसङ्गसे सदा बञ्चित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है जहाँसे इसकी यात्र आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्गको अन्तिम अवधि कहते है, उस परमात्माके पास यह अभीतक नहीं लौटा है ॥ 38 ॥ परमात्मातक तो योगशास्त्री भी गति नहीं है, जिन्होंने सब प्रकारके दण्ड (शासन) का त्याग कर दिया है, वे निवृति संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ।। 39 । जोदिग्गजों को जीतनेवाले और बड़े-बड़े दशोंका अनुष्ठान करनेवाले राजर्षि है उनको भी वहां गति नहीं है। शत्रुओका सामना करके केवल प्राणपरित्याग ही करते हैं तथा जिसमें यह मेरी है, ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था उस पृथ्वीमे ही अपना शरीर छोड़कर स्वयं परलोकको चले जाते है। इस संसारसे वे भी पार नहीं होते ।। 40 ।। अपने पुण्यकर्मरूप लताका आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियोंसे अथवा नरकसे छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्गमें भटकता हुआ इस जनसमुदायमें मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकोंमें जानेवालोंकी भी है ॥ 41 ॥
राजन्। राजर्षि भरतके विषयमें पण्डितजन ऐसा कहते है जैसे गरुडजीको होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी | प्रकार राजर्षि महात्मा भरतके मार्गका कोई अन्य राजा मनसे भी | अनुसरण नहीं कर सकता ।। 42 ।। उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरिमें अनुरक्त होकर अति मनोरम स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादिको युवावस्थामें ही विष्ठाके समान त्याग दिया था; दूसरोंके लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है ।। 43 । उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और खोकी तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टिके लिये उनपर दृष्टिपात करती रहती थी उस लक्ष्मीकी भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था, क्योंकि जिन महानुभावोंका चित भगवान् मधुसूदनकी सेवामें अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ।। 44 । उन्होंने मृगशरीर छोड़ने की इच्छा होनेपर उच्चस्वरसे कहा था कि धर्मकी रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठानमें निपुण, योगगम्य, सांख्यके प्रतिपाद्य, प्रकृतिके अधीश्वर यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरिको नमस्कार है।' ।। 45 ।।
राजन्। राजा भरतके पवित्र गुण और कर्मोंको भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धनकी वृद्धि करनेवाला, लोकमें सुयश बढ़ानेवाला और अन्तमें स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है जो पुरुष इसे | सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उसकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती है, दूसरोंसे उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता ।। 46 ।।